Monday, 12 August 2013

निर्वात

इस तरह क्या देखते हो ?क्या देखने से बात बदल जाएगी।
 हा क्यों नहीं। ऐसी कौन सी बात है जो चिर-स्थाई  रहती है. वक्त के आँधी में कुछ उड़ जाते है नहीं तो समय काटता भी है और उसे गलाता भी है. उसे पुनः कोई न कोई तो आकार लेना ही है. निराकार तो मन भी नहीं बस उसको ढूडना है । 
तो क्या तुम अब भी देख पा  रहे हो की इसमें अभी भी तुम्हारे लिए कुछ रखा है.। 
अंतर्मन का रास्ता तो इसी बार्यह चक्षु से होकर जाता है।  मै  उसमे झाकने की कोशिश  कर रहा हु.शायद अब भी कोई कोना  ऐसा हो जहा तुमने कुछ जगह बचा रखी हो.।पहले  नजरो में तो तस्वीर कई की झलकती थी,मुझे लगता था मै उसमे धुंधला दीखता हु। 
इस तरह मेरा  अपमान  न करो. मंदिर की प्रांगन तो सभी के लिए होता है किन्तु बास तो वहां  पुजारी ही करता है. तो क्या बाकी  भक्तो के आने से पुजारी देवता से तो नाराज तो नहीं होता।
कहा की बाते कहा जोड़ रही हो. ये सब कहने -सुनने में अच्छा लगता है ,वास्तविक जीवन में नहीं। 
जो कहने और सुनने में अच्छा है उसे तो जीवन में उतारकर देखते तब न ।
तुम कहना क्या चाहती हो. ये तो सरासर बेशर्मी की हद है.
मै तो हद में होकर बेशर्म हु किन्तु तुम्हरी बातो  से  हद  भी शर्म से छुप गया, कहा तक जाओगे, तुमने कौन सी सीमा तय कर राखी है?
तुम तो सभी बातो की खिचड़ी पका देती हो.
जब दिमाग का हाजमा  ख़राब हो जाता है तो ये नुकसानदेह नहीं है. तुम्हे इन खिचड़ी की जरुरत है.
 तुम कुछ समझ क्यों नहीं रही हो,जो मै  कहना चाहता हु.
अब अच्छी तरह से समझ रही हु ,पहले नासमझ थी.। 
तुम्ही तो मुझसे दूर गए थे ,कितने लांछन लगाये थे जाते वक्त कुछ  याद है या भूलने का नाटक कर रहे हो। सख्त गांठो को खोलने से वो खुलता नहीं रेशा ही तिल-तिल कर निकलता है,बीती यादो को मवाद के रूप में बाहर निकलने न दो। 
उन काँटों को मन से निकाल फेको।
कैसे फेंकू,कोई  सहजने लायक फूल खिलने कहा दिए तुमने।
वो मेरी गलती थी मानता हु.।  
क्यों अब तुम्हारा अहम् या कहे शंकालू मन  सुखी लकड़ी की टंकार नहीं मारता ? तुम्हारा मन सुखा था, खुद ही तो बोझ डाला ,टूटना ही था.। शायद उर्वरकता शुरु से ही कम था ,मैंने सिचने का प्रयास तो किया किन्तु पता नहीं क्यों तुम इसे मेरी जरुरत समझ बैठे या मेरा कर्तव्य । फूलो के चटकने और सुखी लकडियो के चटकने में अंतर तो होता ही होगा,तुमने कोई मन का फुल तो चटकाया नहीं की उसकी मधुर तरंगे कानो को तरंगित करती ।
हम फिर से शुरुआत  कर सकते है.। 
हम नहीं तुम । 
रुकना तुम्हे पसंद है मै पसंद नहीं करती हू ,तुम क्या समझ नहीं पाए,चलो अच्छा हुआ.। वैसे समझने लायक समझ रखते तो आज कल की बाते नहीं होती । मै तो कभी ठहरी कहा। समय ने रुकने का मौका ही नहीं दिया।तुम्हारे जाने का निर्वात, क्या निर्वात रहता ? ऐसा विज्ञानं तो मानता नहीं। तुम्हारा  यही दिक्कत है ,न लोगो के कहने की बाते मानते हो न विज्ञान को समझते हो । तुम्हारे लिए अब यही ठीक होगा की अपने अन्दर एक निर्वात को महसूस करो शायद कोई भर जाये। शायद, नहीं नहीं  ये मेरी आशा भी है और दुआ भी.....पर महसूस तो करो।  

Sunday, 11 August 2013

काले-बादल



 रविवार की प्रतीक्षा मन व्यग्रता पूर्वक करता है.। दफ्तर में किसी प्रकार की अनावश्यक आवश्यकता न आन पड़े दिल इसी प्रकार की इक्छा रखता है.। जब तैयारी के साथ बहर जाने का समय हुआ ,आचानक कालिदास के दूतो ने पुरे क्षेत्र में अपना पाव फैला दिया। ईद की चाँद की तरह अगर सावन के महीने में अगर इन काले काले बदल का दीदार होगा तो किन का मन मयूर इनको देख के नहीं नाचेगा। बस बाहर जाने का विचार त्याग कर घर में बैठे-बैठे ही इन नजारों से रु-बरु होने लगे। 




 पता नहीं ये काले काले बदल ही क्यों बरसते है। कुछ भी हो सप्ताहंत तक निहारते नयन को अगर कुछ अनुयोजित कार्यक्रम को छोड़कर भी अवकास के दिन अगर इनका दीदार और पचम सुर में इनके बूंदों का रिमझिम स्वर सरिता कानो में घुले तो आनंद की सीमा आप अपने लिए तय कर सकते है। 








 अगर आपके घर एक झरोखा हो जिससे आप प्रकृति को निहारने  का आनंद ले सकते है तो बहुत एकत्रित की गई अनावश्यक तनाव की परते ऐसे बदलो की झोंको में या उड़ जायेंगे नहीं तो बारिश में अवस्य ही धुल जायेंगे,बस मन को उसमे बसने की आवश्यकता है। 


संभवतः प्रकृति ने  बारिश की व्यवस्था आने वाले मानवो की प्रवृति को समझ कर ही किया होगा, इतने प्रकार के बिभिन्न कपट क्रिया से ग्रसित जब लगता है की इनमे कुरूपता अंग करने लगता है ,अपनी फुहार से इसे पहले की तरह स्वच्छ ,निर्मल तथा पवित्र बना देते है.। इसलिए तो रिमझिम बारिश के बाद का पल भी मन को ये नज़ारे ऐसे आगोश में लेते है की लगता है बस ऐसे ही निहारते रहे.।  

Saturday, 10 August 2013

हलचल अगस्त ' ४७


     ये सावन यु ही बरस रहा होगा 
       हाथो में तिरंगे भींग कर भी
   जकडन से निकलने की आहट में   
      शान से फरफरा रहा होगा।। 
            थके पैर लथपथ से  
         जोश से दिल भरा होगा 
           बस लक्ष्य पाने को
        नजर बेताब सा होगा।।


            क्या अरमान बसे होंगे 
           नयी सुबहो के आने पर 
      फिरंगी दास्ताँ से निकलने की      
        वो अंतिम सुगबुगाहट पर। । 
         जो तरुवर रक्त में  सिंची 
           अब लहलहा रहे होंगे
 लालकिले से गाँवों के खेत खलिहानों में
 सभी धुन भारती के गुनगुना रहे होंगे। ।  


          फिरंगी की दिया बस
          टिमटिमा रही होगी 
           वो बुझने ने पहले 
      कुछ तिलमिला रही होगी।।
         वो जकड बेड़ियो की
      कुछ-कुछ दरक रहा  होगा
       खुशी से मन -जन पागल
  मृदंग पे मस्त हो झूमता होगा।


          नयी भोर के दीदार को
    नयन  अपलक थामे रहे होंगे
  बीती अनगिनित काली रातो को
         हर्ष से बस भूलते होंगे।   
      जब ये माह  आजादी का 
        युहीं हर साल आता है 
     क्या रही होगी तब हलचल 
   पता नहीं क्यों ख्याल आता है।।      

Thursday, 8 August 2013

शहादत मुद्दे में कही खो जाते ।

सब उठाते इसे अपने अंदाज में ,
हर किसी को फ़िक्र करना आता है ,
हुतात्मा 
आवेश में विषरहित आवेशित हो कर
चहू ओर अपनों पर फुफकारना आता है ।

फ़िक्र अपने-अपने सियासती रोजी-रोटी की
बटखरा ले विचारों का,तौलने में उलझे पड़े,
शरहदों पे बिखरे लाश को किस पाले में रखे
की नाकामियों का भार कही और पड़े ।

है लोहा गरम अभी चोट कर लेने दो
जवानों को जो खोया कुछ तो मोल लेने दो ,
हम इस पाले  में हो या उस पाले में,
हमें अपनी नजर से दर्द  देख लेने दो।

जाने कौन किसके दर्द को महसूस करता है,
उन माँ का जिसने खोया जिगर  का टुकरा ,
या चंद नीति के नियंता जिनके खद्दर पर लगा ,
चोटित अस्मिता की मवाद का धब्बा ।

उलझती नीतिया  चित्र : गूगल साभार
बहते हुए लहू किसकी प्यास बुझाती है
कुछ अपने भी है जो इसे पानी समझते है,
नाकामियों को कफ़न से ढकते ही आये
धब्बा नहीं बस लिपटे तिरंगो में शान देखते है।

दुश्मनों से दोस्ती की आश में यहाँ
खंजर खाने को बहादुरी माने बैठे ,
चमक धार की कुछ तो दिखाना लाजिम है ,
की कांपते हाथ से अमन की कामना वो भी करे।

ये शरहद पे खड़े नौजवान वीर बेचारे,
देश के अरमानो का बोझ संभाले ,
उफ़ न करते बंधे इक्छा पर कुर्बान हो जाते ,
किन्तु हर बार इनकी शहादत मुद्दे में कही खो जाते। ।

Sunday, 4 August 2013

डूब न जाये हम ,चलो अब चले कही।।

हाथो में हाथ , कदम दर कदम साथ
चल रहे दूर कही ,न जाने कहा।
अपनों ने मुह फेरे,
जानने वाले पता नहीं क्यों मुस्कुराया।
इतनी बेरुखी, खून का रिश्ता भी
खून के प्यासे से लगने लगे,
रिश्तो के रेशे  अब तार -तार है,
इन रेशो से बने कफ़न  ढूंढ़ते उन्हें,
गली के हर मोड़ पर ठेकेदार
कब्र खोदे तैयार है।
लहलहाते अरमानो पर अब
नफरत की बारिस हो चली
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।
सुखी पेड़ ,सपनो की छाया
तपती शिला पर अब कमर था टिकाया
कोमल से पाव में दुनिया के घाव
वो झुककर हाथो से जाने किसको सहला रहा ।।
नजर में समाने की चाहत
अब नजर चुराती हुई
किंचित ससंकित, खुद में उलझे से
मंजिल है साथ पर जाना कहा है
घृणा की आंधी में सब उड़ से गए
पता नहीं अब आशियाना कहा है।
सभ्य समाज के असभ्यता से अन्जान
कोई और कहानी न बन जाये यही
डूब न जाये हम  ,चलो अब चले कही।।