मुद्दों में मुद्दा इतना ही है कि देश मे मुद्दों की कमी नही है। हम तो इसी मुद्दों पर लड़ रहे थे। अब ये भी कोई बात है कि आप मुद्दों का ट्रैक ही चेंज कर दे। किसी दौड़ में अगर कोई अपना लेन बदल देता है तो उसे डिसक्वालिफाई कर देते है। अब यहाँ सरकार की कोई नैतिकता ही नही है। मुद्दों का पूरा ट्रेक बदल दिया। आखिर देश में अब तक गरीबी हटाओ, बेरोजगारी भगाओ, भ्रष्टाचार मिटाओ, महगाई डायन मारो और पिछले कुछ वर्षों से राम मंदिर बनाना है, पाकिस्तान को सीखना है, इस मुद्दों पर ही चुनाव होता आया है।अब आपने ये क्या उसमे एन आर सी, सी ए ए जैसे मुद्दों को जबरदस्ती घुसा दिया है।अब यार भोली जनता पर भी रहम करो। आखिर जनता का टास्क तो बढ़ गया। इस तरह अगर मुद्दों की फेहरिस्त बढ़ती जाएगी तो जो जनता पहले से मुद्दों के बोझ तले दबे हुए है,वो और भार कैसे उठाएंगे..?इसलिए तो हम साफ-साफ कह रहे है कि ये जो नए मुद्दे आपने भोली-भाली जनता के ऊपर एन आर सी और सी ए ए का डाल दिया है। उसे वापस ले ले। हम वही पुराने सास्वत मुद्दे को ही रहने दे। आखिर सरकार ही तो बनाना है, बाकी तो देश पहले भी चल रहे थे और आगे भी चलेंगे।लेकिन जो सरकार मुद्दों की सास्वतता को जड़ से मिटाने का प्रयास करे तो वो जनता के साथ सही में अन्याय करती है। पुराने मुद्दों के खत्म होने से नए मुद्दों को ढूंढना भी तो एक दुरुह काम है और फिर उसके बारे में जनता को बताना तो उससे भी कठिन। फिर बेचारी भोली-भाली जनता आखिर अपने दिनचर्या में ऐसे दबा हुआ है। फिर वो कैसे समय निकाल कर इन नए मुद्दों पर अपनी राय को कायम करे । बेशक भ्रष्टाचार कुछ कम होने की खबर हो और राम मंदिर भी न्यायालय द्वारा सुलझ गए हो। फिर भी पुराने मुद्दे कई है, आप ये नए मुद्दे उछाल कर, पार्टी तो गोते लगा ही रही है, जनता को क्यो उछालने में लगे हो...?
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
Saturday, 18 January 2020
Tuesday, 14 January 2020
मकर सक्रांति की शुभकामनाएं...
कुरुक्षेत्र का मैदान अब रक्त-रंजित कीचड़ में बदल गया है।युद्ध का दसवां दिन विषाद की वायु से पूरा वातावरण रत्त हो रखा है । विधवा विलाप और पुत्र शोक संतप्त रुदन से कंपित सिसकारियां, मातम और रूदन की प्रतिध्वनि संग एक क्षत्र पसर पूरे वातावरण को जैसे शमशानी क्षेत्र में बदल दिया है ।आज के युद्ध के समापन की घोषणा हो चुकी है। क्या कौरव क्या पांडव सभी के रथ एक ही दिशा में भाग रहें है।रक्त और क्षत-विक्षत लाश ने कुरुक्षेत्र के मैदान पर अपना एकाधिकार कर रखा है।
महापराक्रमी, महाधनुर्धर, परशुराम शिष्य, गंगापुत्र, देवव्रत भीष्म वाणों के शैया पर पड़े हुए है। कौरव के सेना का सेनापति यूँ लाचार और बेवस, जिनके गांडीव की कम्पन सेअब तक कुरुक्षेत्र का मैदान दहल रहा था। वो बलशाली असहाय सा इस निस्तेज अवस्था मे है।भीष्म अब कौरव और पांडव के मिश्रित सेना से घिर चुके थे।
वाणों की शेष शैय्या पर इस रूप में भीष्म को देख दुर्योधन के चेहरे पर क्रोध की स्पष्ट रेखा खिंच आया है । वह मन में भीष्म के घायल से द्रवित नहीं है जितना भविष्य के पराजय की आहट का डर उसकी भृकुटि पर उभर रहा है । यह भय क्रोध का रूप धर आँखों में उभर रहा है। पांडवों में संताप पितामह को लेकर स्पष्ट परिलक्षित है।जहाँ अर्जुन का मन कर्मयोग और निजत्व मर्म को लेकर संघर्षरत्त दिख रहा, वही बलशाली भीम भीष्म पितामह के इस रूप को देखकर सिर्फ अकुलाहट मिश्रित दुःख से अश्रुपूर्ण हो रखा। धर्मराज युधिष्ठिर अब इस कालविजयी योद्धा से श्रेठ ज्ञान की कुछ याचना से चरणों में करबद्ध हो अपने आँखों के अश्रु की धार को रोक रखा है। नकुल सहदेव आम मानव जनित शोक के वशीभूत हो बस अपने अश्रुओं को निर्बाध रूप से बहने के लिए छोड़ रखा है।
भीष्म यदि वर्तमान है,तो बाकी कौरव दक्षिणायन में विवेक पर जम आये अहंकार और दुर्बुद्धि की परत । वही पांडव भविष्य का उत्तरायण जो इस हठी सिला को परास्त कर विवेक पर घिर आये तम की परिछाइयो को परास्त कर मानव के नैसर्गिक सौंदर्य को निखारने के लिये युद्धरत हो। तभी तो नारायण नर रूप धर स्वयं रथ के सारथी का दायित्व ले लिया है।
देवकी नंदन भी वही भीष्म की इस अवस्था को देख भविष्य के गर्भ छिपे भारत के अध्याय को जैसे खंगाल रहे है।
किन्तु अब युधिष्ठिर से नहीं रहा जा रहा। पितामह आखिर आप इस वाण शैय्या पर कब तक ऐसे पड़े रहेंगे। दोनों पक्ष के क्या जयेष्ठ क्या अनुज क्या सभासद क्या आम जन , सभी को भीष्म की पीड़ा ये दर्द ये कराह जैसे रह रह कर दिल को क्षत विक्षत कर रहा है। हर हाथ इस याचना में जुड़ रहे है कि कुरु श्रेष्ठ अपनी इच्छा मृत्यु के वरदान को अभी वरन कर ले। खुद को इस पीड़ा से मुक्त करे ।
किन्तु भीष्म ये जानते है कि इस जम्बूदीप पर अज्ञान का जो सूरज अभी दक्षिणायन में है, इस भूमी को इस रूप में असहाय छोड़कर चले जाना तो उनके स्वाभिमान को शोभा नहीं देगा। कही आने वाला कल इतिहास में यह नहीं कहे की भीष्म ने हस्तिनापुर के सिंघासन से बंध कर जो प्रतिज्ञा लिया वो तो धारण कर निभा गए, किन्तु भीष्म जैसे महाज्ञानी के अपने भी मानवोचित धर्म को निभाने हेतु जिस कर्तव्य और धर्म के मध्य जीवन भर संघर्षरत्त रहे उसके अंतिम अध्याय को अपने आँखों के सामने घटित होते देख सहम गए। वर्तमान का कष्ट भविष्य के उपहासपूर्ण अध्याय से ज्यादा कष्टकारी तो नहीं हो सकता। ये अंग पर बिंधे बाण नहीं बल्कि वर्तमान के घाव का शल्य है । भविष्य के अंग स्वस्थ हो तो इतना कष्ट तो सहना पड़ेगा।
महाभारत का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है। मंथन के विषाद रूप और विचार के द्वन्दयुद्ध से एक नए भारत का उदय हो गया है। अब दक्षिणायन से निकल कर उत्तरायण में जिस सूर्य ने प्रवेश किया वह नैसर्गिक प्रकाश पुंज बिगत के कई कुत्सित विचारो के साए को जैसे अपने दर्प से विलीन दिया है है। वर्ष का यह क्रम साश्वत और अस्वम्भावी है और समाज और देश इस से इतर नहीं है। किंतु उत्तरायण में प्रवेश की इच्छा पर अधिकार के लिए भीष्म सदृश भाव भी धारण करने की क्षमता ही नियति के चक्र को रोक सकता है।
लगभग 58 दिन हो गए ....वर्तमान के भीष्म को क्षत विक्षत पड़े लेकिन धौर्य नहीं खोया....ये विचारो की रक्त पात काल चक्र में नियत है....कोई न कोई मधुसूदन आता रहेगा जो काल के रथ का पहिया अपने उंगली में चक्र की भांति धारण करेगा ....लेकिन वर्तमान हमेशा भीष्म की तरह कर्तव्य और धर्म के मध्य क्षत विक्षत हो भविष्य के ज्ञान किरण का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने हेतु प्रतीक्षारत रहेगा।
आप सभी को मकर संक्रांति .... लोहड़ी.. पोंगल...बिहू.. जो भी मानते हो, उन त्योहारों की हार्दिक शुभकामनाए एवं बधाई।
Monday, 13 January 2020
तन्हाजी-ए अनसंग वारियर
इस बात की पूरी संभावना है कि आपके पसंद-नापसन्द विचारधारा के दायरे में बंध सकता है। कला का विस्तार काल से परे तो नही हो सकता चाहे हम दार्शनिकता की कोई भी धारणा ओढ़ ले।लेकिन जब उस धारणा के चादर से,हम जैसे ही बाहर झांके, हकीकत के झोंके से उसके एक-एक सूत बिखर जाते है।खैर...
भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि ।
कारणादेशकालस्य देशकालः स तदृशः ।।
-शांतिपर्व-
"" देशकाल का ऐसा प्रभाव होता है कि एक ही काम एक समय मे धर्म हो सकता है और वही समय बदलने पर अधर्म भी हो सकता है।"
तो फिर अपने-अपने देशकाल के अनुसार ये आलमगीर औरंगजेब अपनी राजनैतिक कूटनीति की चाल चल दिया। स्वराज की घोषणा हो चुकी है। भगवा के कीर्ति पताका का उद्घोष "तन्हाजी" कर चुके है, हिन्दू राज्य के राजा क्षत्रपति शिवाजी के सबसे भरोसेमंद और दाहिना हाथ। उदयभान राठौड़ मुगलिया लहजे में भगवा को मिटाने की चुनौती देता है। मराठा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और मुगलिया लहजा दोनों को बहुत बारीकी से निर्देशक पर्दे पर उतार दिया है।वेश-भूषा, तत्कालीन किला, छापेमारी युद्ध कौशल, और उसपर 3-डी का प्रभाव। फ़िल्म के शुरू होते ही आप उस काल मे जैसे टहलने लगते है। फ़िल्म को देखने से पता चल जाता है कि निर्देशक ओम राउत ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उभारने में कितने प्रभावशाली रहे है।
कहानी इतिहास के हर्फों में दर्ज है। तन्हा जी मलासुरे सिंघनाद के किले को उदयभान राठौड़ से मुक्त कराने के लिए युद्ध करता है। जिसमे सफल भी होता है। बाकी ताने-बाने, भाव-भंगिमाएं, कलात्मकता की छूट के नाम पर अपनी रचनाशीलता से पटकथा को एक पूर्ण रूप से गूंथ कर आपके सामने पेश करता है। जिसमे ज्यादातर समय फ़िल्म आपको आकर्षित करती है। युद्ध के दृश्य तो खासकर आपको जैसे बांध लेता है।
अजय देवगन तन्हा जी के रोल में जंचे है, वही उदय भान की क्रूरता को सैफ अली खान ने पूरी तरह से जिया है। काजोल छोटी सी भूमिका में है लेकिन काफी भावपूर्ण नजर आई है। लेकिन खास तौर पर शिवाजी की भूमिका में शरद केलकर और और औरंगज़ेब की भूमिका में ल्यूक केनी की उपस्थिति दमदार नजर आता है। दोनों कि भूमिका कुल मिलाकर छोटा ही कहा जायेगा लेकिन जब भी पर्दे पर आए अपना प्रभाव जबरदस्त रूप से छोड़ते है।
बाकी बैक ग्राउंड संगीत दृश्य को जीवंत कर देता है, जहाँ तक गीत की बात है तो गुंजाइस के अनुरूप ठीक है। बाकी आप देख के तय करे....
Friday, 10 January 2020
नई धुन
संघर्ष शायद बुद्धिमानो के बीच ज्यादा होता है।जब "एक्स्ट्रा इंटेलीजेंसिया" से दिमाग कुपोषित हो जाता है तो मस्तिष्क का झुकाव "दर्शन" से विरक्त होकर "प्रदर्शन" की ओर आसक्त हो जाता है।वैसे भी आपकी बौद्धिकता तभी लोगो को आकर्षित करती है, जब आप "जरा हट के" कुछ कहते है। फिर नामचीन विश्वविद्यालय के प्रांगण में सिर्फ सामान्य कौतूहल ही जगे तो फिर ",रिसर्च" के लिए और कोई बिना प्रांगण वाले कॉलेजों के आंगन को क्यों न "सर्च" किया जाय ? खैर...कुछ दिनों से लोक और तंत्र दोनों से अलग जाकर जो मंत्र पढ़-पढ़ कर ये देश को जगाने में लगे हुए है, उससे कौन-कौन उत्साहित है और कितनो के अंदर मुरझाई जोश में आशा के नए कोंपल प्रस्फुटित है. ये तो समय बताएगा । वैसे शायद जनता तो ज्यादातर अर्धनिन्द्र में ही रहती है ?
लगता है अब ये छात्र राष्ट्रकवि दिनकर के इन पंक्तियों से ज्यादा प्रभावित है--
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार,
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।।
अब ये तलवार न सही हाथों में हॉकी स्टिक, लाठी या रॉड के भरोसे "विचारो" की "नई-धारा" के सूत्रपात के लिए प्रयत्नशील है। इनकी इस कर्मठता और ध्येय के प्रति जिजीविषा वाकई सराहनीय है। ज्ञान के अर्जन और परिमार्जन में अगर कुछ सरकारी संपत्ति नष्ट भी हो जाये तो उसके लिए व्यथित और चिंतित नही होना चाहिए। क्योंकि इससे "बुद्धि-जीवी" के अंदर का जीव थोड़ा कुंठित होकर काटने को आतुर हो सकते है।
अब हम तो इस इंतजार में बैठे है कि ये सपेरा अब अपनी तुम्बे में से कौन सा "साँप" निकालेगा और लोग बिना बीन के ही उसे देख-देख कर नागिन डांस करके जमीन पर लोट-पोट होकर जनता को जगाने में लग जाएंगे।
लगता है अब ये छात्र राष्ट्रकवि दिनकर के इन पंक्तियों से ज्यादा प्रभावित है--
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार,
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।।
अब ये तलवार न सही हाथों में हॉकी स्टिक, लाठी या रॉड के भरोसे "विचारो" की "नई-धारा" के सूत्रपात के लिए प्रयत्नशील है। इनकी इस कर्मठता और ध्येय के प्रति जिजीविषा वाकई सराहनीय है। ज्ञान के अर्जन और परिमार्जन में अगर कुछ सरकारी संपत्ति नष्ट भी हो जाये तो उसके लिए व्यथित और चिंतित नही होना चाहिए। क्योंकि इससे "बुद्धि-जीवी" के अंदर का जीव थोड़ा कुंठित होकर काटने को आतुर हो सकते है।
अब हम तो इस इंतजार में बैठे है कि ये सपेरा अब अपनी तुम्बे में से कौन सा "साँप" निकालेगा और लोग बिना बीन के ही उसे देख-देख कर नागिन डांस करके जमीन पर लोट-पोट होकर जनता को जगाने में लग जाएंगे।
Friday, 3 January 2020
तलाश
कुछ लोग
अंधेरा कायम रखना चाहते है,
क्योंकि
रोशनी की महत्ता समझा सके।।
ये पुरातनपंथी है
या फिर तथाकथित प्रगतिशील।
लीलते दोनों ही है जीवन को
एक में उत्सर्ग अभिलाषा है
और दूसरे की क्रांति
एक लालसा है।।
जब हुक्मरान
वाचाल हो ,
तो जनता सिर्फ
मूक और बघिर हो सुरक्षित ।।
नीति और नियंता
तो बदलते रहते है
लेकिन हर बार
एक नए जख्म देकर।।
क्योंकि पुराने घाव भरना
शायद कभी राज की नीति
नही होती है ।
वो तो हमेशा
आज के जख्म का उसे
कारण मानती है।।
और हम भी
घाव के निशान खुजलाकर
शायद कुछ ऐसा ही तलाशते है।
इंसान खुद को भूल
जब भी कुछ और तलाशा
तो सिर्फ इंसानियत ही तो वो खोया है।।
अंधेरा कायम रखना चाहते है,
क्योंकि
रोशनी की महत्ता समझा सके।।
ये पुरातनपंथी है
या फिर तथाकथित प्रगतिशील।
लीलते दोनों ही है जीवन को
एक में उत्सर्ग अभिलाषा है
और दूसरे की क्रांति
एक लालसा है।।
जब हुक्मरान
वाचाल हो ,
तो जनता सिर्फ
मूक और बघिर हो सुरक्षित ।।
नीति और नियंता
तो बदलते रहते है
लेकिन हर बार
एक नए जख्म देकर।।
क्योंकि पुराने घाव भरना
शायद कभी राज की नीति
नही होती है ।
वो तो हमेशा
आज के जख्म का उसे
कारण मानती है।।
और हम भी
घाव के निशान खुजलाकर
शायद कुछ ऐसा ही तलाशते है।
इंसान खुद को भूल
जब भी कुछ और तलाशा
तो सिर्फ इंसानियत ही तो वो खोया है।।
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