Tuesday 8 September 2015

नन्हा फरिस्ता

खामोशी चीखती है लहरों से  टकरा कर  
औंधे मुँह लेटा जैसे माँ के गोद  में 
न सुबकता न ही रोता कंकालो की बस्ती से दूर
लगता है गहरी नींद में सोता  ।

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जिंदगी खुद से शर्मसार है
मौत उसको मुँह चिढ़ाती
चिटक रही सूखे टहनियों सी
दम्भी सभ्यता के वट वृक्ष की  ।

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नन्हा फरिस्ता लहरो से खेलकर 
मुस्कुरा के चल दिया 
पाषाण ह्रदय शिलाओं को भी 
आंसुओ से तर गया। 

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कितने नींद से जागे अब 
उसे सोता सोचकर  
कई राहें अब खुल गई नई 
उन बंद आँखों को देखकर। 
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Saturday 5 September 2015

आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना 


अब आडम्बर कोई नहीं,सब तेरा प्रभु इंतजार करे ,
कुछ शुक्ल नहीं दिखता बस चारो ओर अज्ञान भरे। 

कल्कि का कालिख उड़ रहा सब ओर तम  अँधेरा है,
भीग रहे कितने नयने यहाँ छाया अँधियारा गहरा  है। 

कर्तव्य का कोई मोल नहीं मोह ने सबको लीला है, 
गीता ज्ञान की बाते सिर्फ टकराती मंदिर शिला है। 

जो लाँघ चले मंदिरशाला तेरे विकृत गुणगान करे, 
चौसंठ कला नहीं कोई बस रसिया कह सम्मान करे। 
  
इस बार फिर तू आएगा हम मधुर धुन पर नाचेंगे,
कितने ही बिकल विलापो को बस कुछ पल ही  ढाकेंगे। 

अबकि आकर मुरली मनोहर कुछ ऐसा चक्र चला देना, 
शिश अलग अज्ञान का कर पुनः ज्ञान रवि फैला देना। 

Saturday 7 March 2015

अब हम चलते है ।

कही कुछ ठिठक गया
जैसे समय, नहीं मैं । 
नहीं कैसे हो सकता
जब समय गतिशील है
फिर कैसे ठिठक गया,
अंतर्विरोध किसका
काल  या मन का ?
मन तो समय से भी
ज्यादा गतिमान है
फिर कौन ठिठका
काया जड़ या चेतन मन ?
समय का तो कोई बंधन है ही नहीं
फिर ये विरोधाभास क्यों
मन को समझाने का
या खुद को बहलाने का?
पता नहीं क्या
बस अब हम चलते है । 

Thursday 14 August 2014

जश्ने-आजादी

भूल कर याद करना
और याद कर भूल जाना
बदलना दीवार की तस्वीर को 
या नई दीवार ही बनाना। 
कस्मे ,वादे और
सुनहरी भविष्य के सपने
यादो में धंसे शूल
और भविष्य के सुनहरे फूल। 
सब कुछ पूर्ववत सा
पहले ही जहन में उभर आता है
रस्मो अदायगी ही मान
सब जैसे गुजर जाता है। 
फिर नया क्या है
ये उमंगें कुछ-कुछ
जैसे  बनवाटी  तो नहीं। 
मर्म छूती  है कही क्या 
या महज दिखावटी तो नहीं। 
किससे ये छल 
या खुद से छलावा है। 
एक दिन की ये बदली तस्वीर 
किसके लिए ये  दिखावा है। 
यादों को जो रोज नहीं जीते 
इस दिन का इंतजार है
करने के इरादे का क्या 
जब लफ्फाजी का बाजार है। 
तालियां बजाकर कब तक 
गर्दिशों के दिन जाते है 
जूनून एक रोज का क्यों हो 
हर दिन जश्ने-आजादी मनाते है।  

Wednesday 9 July 2014

खाली मन .....?? ?

जब यहाँ कुछ भी नहीं था 
तब भी बहुत कुछ था 
कुछ होने और न होने की 
कयास ही बहुतो के लिए
बहुत कुछ था। 
फिर मै बैचैन क्यों होता हूँ 
की अब मेरे मन में क्या है ? 
नहीं कुछ उमड़ने घुमड़ने पर भी 
कही न कही अंतस के किसी कोने में 
कुछ बुलबुले छिटक उठते है 
और अपनी नियति में 
जाने कहाँ सिमट जाते है। 
इन बुलबुले से किसी 
धार बन जाने की चाहत में 
बस बुलबुले का बनना और 
मिट कर शून्य में विलीन हो जाना    
मन में एक क्षोभ जाने क्यों 
भर जाता है।  
अनायास कितने प्रकार के 
तरंग छिटक जाते है 
कुछ समेटु उससे पहले ही 
कितने विलीन हो  जाते है।  
किन्तु एक बुलबुले में खोना भी 
कितना कुछ कह जाता है। 
शून्य सा दिखता ,शून्य को समेटे 
शायद सब शून्य है,ऐसा कह जाता है। 
बाह्य प्रकाश के पाने से 
कैसी सतरंगी छटा छटकती है 
खाली मन को भी 
उम्मीदों के कई रंग भर जाती है। 
शून्य  मन क्या शांत और गंभीर है, 
या इस निर्वात को भरने की 
झंझावती तस्वीर है ,
जद्दोजहज जारी है 
मन में कुछ नहीं होना 
क्या बहुत कुछ का होना तो नहीं है ?