Friday, 23 September 2016

पछतावा

                 
                    मनसुख के गांव में आज गर्वयुक्त उदासी बिखरी हुई है।  एक शहीद की अंत्येष्ठि में शामिल होना है।  बड़े -बड़े कदम भरते सभी उसी ओर चल पड़े जिधर हजारो कदम बहके बहके से चले जा रहे है। बहुत दिनों बाद ऐसा लग रहा है, देश और देशभक्ति की अनोखी बयार हवा में घुल गई है। सभी मन ही मन गौरवान्वित महसूस कर रहे है। हर कोई उस शहादत में अपना भी हिस्सा देख रहा है। तिरंगे में लिपटा शव पर फूल मर्यादित रूप से अपने आप को सहेज कर रखा हुआ है। इस मौके पर कोई भी पंखुरी अपने आपको उस तिरंगे से अंतिम विदाई देने के पूर्व विच्छेदन नहीं चाह रहा है। पीछे-पीछे सेना की टोली अनुशासित रूप से, कदम-से-कदम मिलाकर अपने साथी का साथ, महाप्रस्थान से पूर्व अंतिम कदम तक हौसला बनाये चल रहा है। क्या बूढा क्या जवान हर कोई इस पल को जीना चाह रहा है। आखिर देश के लिए उत्सर्ग कोई अपने आपको कर दिया है। नीले आसमान में चमक रहे सूरज भी लगा जैसे इन पलो में गमगीन हो अपने आपको बादलो में ढक लिया और दोनों हाथो से वृष्टि पुष्प उसके कदमो में बरसाने लगा। सारा गांव उस समय थम सा गया। पर्दे के लिहाज भूल महिलायें भी उस वीर जवान को एक झलक देख  अपने पलकों में बसा लेने हेतु उत्सुकता से अपने चहारदीवारी के किसी खाली झरोखे को ढूढने में प्रयत्नशील लग रही। सरकार के बड़े अधिकारी भी अपने इस मौके पर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित कर रखे है। मनसुख भी उस भीड़ का हिस्सा है ,लखन चाचा भी साथ ही साथ चल रहे थे। 
                       मनसुख भी  पीछे-पीछे चला जा रहा है।  किन्तु दृश्य उसके सामने पांच साल पहले का चलचित्र की भांति घूमने लगा। जब  लखन चाचा का बेटा अपने एक और साथी के साथ  बहुत खुश होकर आया और कहा की -बाबूजी हमारा फ़ौज में सलेक्शन हो गया और पत्र सामने रख दिया।मनसुख भी वही बैठा था।  तीनो हम उम्र मित्र थे। साथ साथ दोनों के चयन से बहुत खुश। किन्तु एक ही बेटा और फ़ौज की नौकरी अपने हाथो मरने मरने भेज दे। अंतरात्मा काँप गई थी। कहा- बेटा अपने पास काफी जमीन है खेती कर फ़ौज-वॉज में कुछ नहीं रखा है। मनसुख ने भी लखन चाचा से तरफदारी की किन्तु वो टस से मस  नहीं हुए।देश के प्रति मनसुख का लगाव कुछ कम हो ऐसा नहीं था ,किन्तु फ़ौज के लिए जो हौसला चाहिए वो नहीं था।  वो खेती कर खुश था और उसका दोस्त फ़ौज में ख़ुशी देख रहा था। कई बार मनाने पर भी नहीं माने। अंततः  मन  मसोसकर उसका दोस्त अपने बाबूजी की बात मान गया।  खेती को उन्नत विधि से करने के लिए लोन लिया। और सुखार ने सारे के सारे अरमान पर पानी फेर दिया। एक सुबह बेटे का शव घर के पीछे बगान में पेड़ से लटका पाया।सब कुछ ख़ामोशी से निपट गया। मनसुख उस वक्त भी  साथ था और अपने को गैर होते और दुःख पर कुटिलता के वाण अलग से चले ।
              आज लखन चाचा के बेटे के  मित्र की विदाई है।अचानक तेज बिगुल की धुन सुनाई दी। मनसुख जैसे लगा नींद से जगा। अचानक तेज उठती लपटे लगा जैसे आसमान को भी अपने में समेटने को उधृत हो रहा हो। आसमान से रिमझीम फूलो का अर्पण चिता को सम्मानित कर रहा था। बगल में ही खड़े लखन काका को मनसुख ने देखा। नजरो में भुत गतिमान लग रहा था। आँखों के किनारे आंसू की बुँदे ढलकने को तत्पर लगा। मनसुख नहीं समझ पाया ये इस शहादत का दुःख या बीते कल का पछतावा।

( यह कहानी मेरा दूसरा ब्लॉग "मनसुख का संसार " से है )

Sunday, 18 September 2016

जो शहीद हुए है ....

    
                    सच है की कोई इसलिए शहादत नहीं देता की हम पत्थर की दीवार बन जाए।  ये शहादत तो इसलिए है की पत्थर नहीं तो उसके प्रतीक जो हम बनते ही जा रहे है उस जड़ मानसिकता को झकझोर सके ।संवेदना की चिंगारी को प्रज्वलित करने के लिए हर बार सैनिको को आखिर रक्त की आहुति क्यों देना पड़ता है।जब तक इसप्रकार की कोई घटना नहीं होती हम यंत्रवत सा बस चलते रहते है।किन्तु प्रतिकार या खुद को सुरक्षित रखने की भाव जब गाहे बगाहे इन घटनाओ के बाद हम प्रयास करते ,स्वयम्भू बुद्धिजीवी एक नए व्याख्यान के साथ खड़े हो जाते है।
                      कलात्मक एवं काव्यात्मक लेखनी से मन तो मोहा जा सकता है,लेकिन सच के आवरण पर पूरी तरह झूठ का पर्दा पड़ा रहे ये बहुत समय तक संभव नहीं रहता। ऐसा लगता है महान  विचारक बन उभरने का भाव तो कही नहीं इस तरह सोचने को मजबूर करता है और आत्मकुंठित हो लगता है की समग्र रूप में देख रहे है। लेकिन  संभवतः लिक से हटने की चाहत से विचार सुदृढ़ नहीं हो सकते बल्कि  उस महान विचार की पुष्टि भी आम जान मानस की सहमति आवश्यक कारक होता है। अपनी उपस्थिति इस भीड़ में दिखाने के लिए ये आवश्यक है कि प्रचलित अवधारणाओं से हटकर ही चले। व्याख्यानों में लंबे और छरहरे वाक्यो से नापाक मनसूबे से प्रेरित तत्व प्रभावित नहीं होते ,किन्तु गोली की एक आवाज कई को थर्रा देती है। तभी तो हम इस  दिग्भ्र्मितता की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रहे है की आखिर हमें करना क्या चाहिए।दुश्मन अपने इरादे में सफल होता जा रहा और बहुतों  अभी तक अपने स्वस्वार्थ प्रेरित क्षद्म मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे है। बेसक उदार विचारो के उदार लोग अगर कुछ ठोस कहने और करने की स्थिति में न भी हो तो किसी खास परिस्थिति को खास रूप में आकलन करने की कोशिस का ही प्रयास रहे तो बेहतर होगा। सामान्य रूप में देखने का प्रयास अंततः नुकसान देह हो सकता है। जिसका विकृत परिणाम सभी के ऊपर बराबर ही होगा। चाहे को  किसी भी विचारधारा से प्रेरित हो। 
                   संभवतः कुछ लोग इस तरह के घटना से व्यथित नहीं होते इसलिए उनमे विचलन न होना अस्वभाविक नहीं है किन्तु ऐसी शहादत पर कुछ व्यथित तो होते ही है इसलिए विचलन स्वभाविक है। इस विचलन को शब्दो को चासनी में उड़ेलकर वाक्यों की लंबी शृंखला से कम नहीं किया जा सकता। हर घटना को अंदर की बातो से तौलना और सामान्य रूप में लेने प्रयास काफी घातक हो सकता है। जब भी आप इस वाकये से एकाकार हो तो सैनिको की बलिदान को बलिदान के ही रूप में देखे।वास्तव में ये बहादुर जवान हमें पत्थर की दीवार से बाहर निकल संजीदा होकर सोचने हेतु ही बलिदान दिए की अगर खोखली विचारधारा से बाहर निकल संजीदा होकर हम न सोचे तो कल शायद इतना बहस करने का समय हमारे पास न हो।
                        राष्ट्रवाद से सम्बंधित अवधारणाओं की फेहरिस्त बहुत  लंबी है। किन्तु हम जिस समाज और काल को जीते है उसी की प्रचलित अवधारणों के अनुसार ही आचरण की अपेक्षा करते है।बीते कल की विवेचना और भविष्य की रुपरेखा पर कल्पित रंगों का आवरण आज में बदरंग हुए दीवारों की तस्वीर नहीं बदलेगा। सैनिक राष्ट्र के नाम पर सदियो से बलिदान होते आये है और आगे भी होते रहेंगे। इस बलिदान पर आँखे नम बेसक न हो किन्तु बलिदानो के विभिन्न निहितार्थ अगर निकालने में हम व्यस्त रहेंगे तो यह नापाक मनसूबे के खिलाड़ियो की बहुत बड़ी विजय होगी चाहे वो देश के अंदर हो अथवा शत्रु देश हो। बुराई से ग्रस्त मानव मन कई कमजोरी धोतक हो सकता है किन्तु देश और देशभक्ति के मामले में भी संजीदा होता है इसकी कई कहानी प्रचलित है। भाषा तो विचार के आदान-प्रदान का माध्यम भर है और जरुरी है की जब आप किसी से संवाद करना चाहते है तो उसे आपकी भाषा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। अथवा जिस भाषा में अगला संवाद कर रहा हो उस भाषा की जानकारी आपको होना चाहिए। बेसक भावुकता  हमें समग्र मानववाद , युद्ध और विनाश जाने कितने विषय हमारे जेहन में तरंगे बन झिकझोड़ने लगता है और हम इसी बात पर भावुक हो इंसान और इंसानियत की दुहाई देते हुए अपने को कमजोर साबित करने में उलझ बैठते है। ये सत्य है की युद्ध हमेशा बेनतीजा रहा हो किन्तु ये भी उतना ही सत्य है की युद्ध का भय शत्रु को वार्ता के मेज तक खीच के लाते है। कम से कम कायरता तो हमारे शब्दो में नहीं दिखनी चाहिए, हथियार के जवाव में हमेशा हथियार ही चला है। ताकतवर हथियार ही घुटने टेकने को मजबूर करता है। इस बात को कौन कैसे परिभाषित करेगा की यहाँ कौन नौटंकी कर रहा है। वो जो मीडिया में बैठ कर इस तरह के हमलो का जबाब देने को तैयार है या वो जो शब्दो की बाजीगरी करते हुए इस हरकत को सामान्य ठहराने का प्रयास कर रहा है। दोनों में से कोई भी सरहद पर इन स्थितियों में अपने को नहीं पायेगा सामने तो बस सैनिको की छाती ही होगा। किन्तु उस करवाई को भरोसा हम जैसे के विचार ही मजबूती प्रदान करेंगे। बेशक भावनाओ की बेईमानी नहीं होने दे अपने विचार को स्थापित करने के लिए कही ऐसे-ऐसे तर्क अथवा कुतर्क गढ़ बैठे की विभिन्न अनगिनत पाटो में पहले से बटें इन जनसमूहों पर देश का आवरण जो चढ़ा हुआ है उसके तंतुओ को कमजोर करने के आप आरोपी हो। बलिदान होने वाले सैनिक आखिर हमारे भाई है ,ये फिर अपने आपको न दोहराये इसको तो हमें ही अंतिम स्तर पर जाकर सोचना होगा।एक ऐसे कुचक्र का शिकार हो जान गवाते सैनिक और हम समझने में भी अक्षम हो की इसे युद्ध या क्या समझे, वास्तव में उस राष्ट्र के नागरिकों के ढुलमुल विचार सरकारी नीति के रूप में परिलक्षित होता है ।  विचारों के ऊपर जमे पुराने धुंध को हटाने का समय है और बदलाव स्वभाविक प्रक्रिया है।
                     सभी शहीद को शत -शत नमन। 

Sunday, 11 September 2016

कराहता आज ......

मायने बदलते रहते है पल-पल
शायद कल के होने का 
आज में कोई मायने नहीं रहता,
किन्तु फिर भी ,
इतिहास के पन्ने के संकीर्ण झरोखे से
आने वाले कल के होने के मायने में 
व्यस्त हम सब
बस कुचलता जाता है आज।। 
बेचारा जीर्ण-शीर्ण,
बेवश लाचार आज,
कल को सींचने में 
पल-पल बस मुर्झाता जाता है।। 

कल के दबे कुचले
घिनौने से अतीत जिसकी दुर्गन्ध
आज की कारखानों में बनी सभ्यता के इत्र 
दूर नहीं कर पाते,
किन्तु ऊपर निचे ढलानों
बराबरी और गैर बराबरी के तराजू पर तौलते
विरासत के बोझ से दबे बीते कल 
निकलने को आज में आतुर
किन्तु आने वाले कल के मायने में 
आज फिर कुचल दिए जाते।। 

बीते कल पर शोध और सत्यरार्थ कि तलाश 
अँधेरी गर्त पर परी गहन धूलो को 
बार-बार झारने की चाहत ,
किन्तु पल-पल आज पर 
परत -दर -परत जमा होते धूलो को 
हटाने की बैचैनी का 
कहीं कोई निशा दीखता ?
बस सुनाई देती है शोर 
हर एक नुक्कड़ खाने पर 
कल को बदल देने के वादे का ,
और कल को तराशने हेतु 
हर पल चलता रहता है हथौड़ा आज पर 
आज बस  कराहता और कराहता है।  
किन्तु अमृत पान हेतु 
गरल - मंथन कि कथा से 
हमसब  प्रेरित लगते है,
शायद आज में कुछ न रखा है।। 

Wednesday, 31 August 2016

दिल्ली और बारिश

                       
                                 क्या आप दिल्ली में रहते है ? हम तो खैर नहीं है फिलहाल वहा। तो फिर आपको दिल्ली की बारिश रुलाई या आपने रास्तो पर पटे पानी के सैलाब को स्विमिंग रोड समझ उसको पार करते  समय इंग्लिश चैनल पर विजय की खुशफहमी का अहसास किया, अगर नहीं है तो उसे कोसने की जगह नगरपालिका का शुक्रिया अदा करे और इसका आनंद ले । इन रोड पर बहते धार को देखकर भावुक होने से बचे। लगता है अपने लोगो में भावुकता की कमी हो गई है तभी तो मीडिया हमें भावुक होने के बहाने देता और खुद भी भावुक हो जाता है। पहले पत्रकारिता में भावुकता कम तथष्टता ज्यादा होता था किन्तु समय कि मांग ने लगता है कुछ प्रभाव बदल दिया है ।असहिष्णुता का राग अलापते-अलापते ये खुद कही असहिष्णु तो नहीं हुए जा रहे है। ये तो हमारे सांस्कृतिक उद्घोषणा है की हम आलोचना को अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील औजार समझते है। तभी तो कबीर ने कहा -"निंदक नियरे    राखिये " और हम है की सबके सब पीछे ही पर गए। 
                              अब ऐसा भी क्या कह दिया।  बहुत छोटा सो सवाल तो पूछा ,आखिर जब दिल्ली के रोड पानी से तृप्त हो तो भला ये जानने में कोई गुनाह तो नहीं है की आखिर पहुचने के लिए और कौन से साधन लिए गए,रोड पर कार और नाव एक साथ हो इससे सुन्दर दृश्य और क्या होगा? उन्होंने तो अगर देखा जाय तो भरतीय छात्रों के अंदर किसी भी कार्य को पूरा करने की जिजीविषा को सलाम किया। और हम है की उनकी आलोचना समझ बैठे है। लगे हाथ हमने अपने सरकारों को भी कोसना शुरु कर दिया। लेकिन हम भूल रहे है की हमारे यहाँ हर साल रूप बदल-बदल कर ये सैलाब कही न कही आता ही रहता है। कही के सड़क जाम हो जाते तो कही के कही पूरा क्षेत्र ही कट जाता। इन सबसे नीति-नियंता वाकिफ है। अब अगर वो दिल्ली को दुरुस्त कर दे फिर हम दिल्ली के बाहर वाले ही कहना शुरू कर देंगे कि हमारे साथ भेद-भाव किया जा रहा है। आखिर ऐसी परिस्थिति के दिल्ली में उत्तपन्न होने के बाद ही बाकियों का दुख-दर्द समझा जा सकता है। नहीं तो उड़न  खटोला पर बैठ का इन स्थितियों का जायजा लेने जाना पड़ता है। इससे सरकारी खजाना पर बोझ पड़ता वो अलग। दिल्ली का ये सब नजारा सरकारी धन का दुरूपयोग रोकने में मददगार है हम ऐसा क्यों नहीं सोच सकते। ताज्जुब है। हमें भी ख़ुशी होती है जब सबको एक प्रकार से देखा जाता है। और रही दिल्ली की सुंदरता की बात तो यह सिर्फ राजधानी है और हम है कि दिल्ली को "राजरानी" समझने लगे है। दिल्ली सभी को मोहती है स्वभाविक रूप से विश्व के अन्य गणमान्य भी दिल्ली के इस सुदरतम नज़ारे का आनंद लेने आ सकते है। पर्यटन विभाग को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। 
                      ऐसे मीडिया भी तो दिल्ली में बारिश न हो तब समाचार और बारिश हो जाए तो समाचार। वो तो नगरपालिका से लेकर मंत्री तक खुश होंगे की अपना मीडिया देश की आलोचना सुनना नहीं पसंद नहीं करता , नहीं तो जवाव देते या न देते कैमरा तो पीछे-पीछे तो आता ही। हम है की विश्व की महाशक्ति को अपनी तकलीफ सुना-सुना कर करार पर करार करने में लगे है ऐतिहासिक दस्तावेज की किताब मोटी होती जा रही है। अब जब अगर आप ऐसा समझते है की यह आलोचना है तो हमें तो खुश होना चाहिए की दिल्ली की इस समस्या को विश्व के महाशक्ति ने अगर खुद संबोधित किया है तो इस पर भी एक करार कर ही लेगा ताकि दिल्ली को इससे निजात मिल सके। इस पक्ष को देखने में क्या बुराई है।  बाकी जो इन सैलाब में घिरे है वो चैनलो पर ये दिल्ली जैसे निम्न कोटि का सैलाब कितना देखे। 

Saturday, 27 August 2016

दाना मांझी के बहाने



हम संवेदनशील होने का दम्भ भरते ,
पर जाने वो कब का दम तोड़ चूका है।
कभी -कभी हम दाना मांझी के बहाने
हर ओर से चीत्कार कर,
उस संवेदनशीलता की छाती पर चढ़ बैढ़ते।
इस आशा में की कही ,
इन शब्दो का प्रहार जो कुछ दिन तक मुँह बाएँ,
टीवी की ड्राइंग रूम से ,नुक्कड़ खाने तक
कुत्ते की रोती कर्कश आवाजो में भौकेगा।
शायद संवेदनशीलता जाग जाए।।
किन्तु वो तो कब का जा चूका ,
जब से दुनिया बाजार
और इंसान सिर्फ खरीदार बन के रह गया,
ये ना किसी मांझी की चिंता है
न किसी के दाना की ,
बस सरोकार इस संवेदन के बहाने
बाजारों का सांस चलते रहने की ,
बेसक उसकी कीमत
इंसानी सांस ही क्यों न हो ,
इंसान तो जाने के लिए ही आया है
बाजार का जिन्दा रहना ज्यादा जरुरी है
क्योंकि जब तक हम है
हमें बाजार की जरुरत के बारे में
घुटी में मिलाकर बताया गया है।
ऐसे कितने जिन्दा और मुर्दा लाश 
हम सबके कंधे पर रोज ही घूमता है। 
और हम सब इस इसे न देख 
बस ढूंढते की अगला मांझी
कब इस गठरी को अपने कंधे पर ले निकले 
और फिर हम संवेदना को तलाशे । ।