Monday, 17 October 2016

डाकिया दाल लाया .......

                         
                            प्रसन्न होने के लिए हर समय वाजिब कारण हो ऐसा तो जरुरी नहीं  है। खुशियो के प्रकार का कोई अंत नहीं है। बीतते पल बदलते रूपो में नए नए कलेवर के साथ खुद को आनंददित करने के नए -नए बहाने देते रहते है। बसर्ते आप उसको पहचानने की क्षमता रखे। फिर वो बाते जो बचपन में उसको एक झलक देखकर अंतर्मन को आनद से झंकृत करने की सम्भावना जगाता रहा उस मृतप्राय  अहसास के पुनः पल्लवित होने कि  सम्भावना वाकई सुखद लगता है।  बात आप सभी के लिए भी बराबर ही है। 
                           गुजरे दौर में इस देश समाज में जिस सरकारी कर्मचारी ने अपनी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अहसास सभी को कराया वो डाकिया ही था। कक्षा दसवी तक न जाने इसकी भूमिका ख़ुशी और अवसाद के पलों पर उसका प्रभाव विभिन्न परीक्षाओ में विभिन्न तरह से कितनी बार वर्णित हुआ होगा इसका लेखा जोखा शायद मिले। हिंदी फिल्मो में इसका चित्रण और गीतों का दर्शन संभवतः कितना है कहना मुश्किल है। डाकिये का पराभव समाज के बदलते स्वरूप और भागते समय के साथ कही पीछे छूट सा गया और बिखरते सामजिक परिदृश्य में यह भी कही खो गया।  जब आधार स्तम्भ ही डगमगा गए तो संरचना का टिकना तो मुश्किल ही है।कभी समाज में हर तबके के लोगो के आँखों का तारा डाकिया ,जिसको देखते ही लोगो के मन अनायास ही कितने सपने सजों  लेते और साईकिल जब घर के पास न रूकती तो अपनों के बेरुखीपन को भी डाकिये का करतूत समझ लेते। फिर भी जल्द अगली बार फिर से उसका इन्तजार रहता। आज वही डाक विभाग एक उपेक्षित और असहाय सा गांव और शहर के किसी कोने में अपने वजूद से लड़ता दिखाई पर जाता है। आखिर अब इतना समय किसके पास है की एक खत के लिए सुनी अँखियों से उसकी राह निहारते रहे। जबकि बेसक अब भी दिन में चैबीस घंटे क्यों न हो।  
                           इतिहास से सबक लेने वाले लोग विवेकशील ही माने जाते है और प्याज ने कितने को रुलाया कि उसकी आह से सरकार चल बसी। इससे सबक हो या कुछ और  किन्तु लगता है अब डाकघर और डाकिये के अच्छे दिन आने वाले है। आज ही समाचारपत्र में देखा है कि अब सरकार डाक घर के माध्यम से दाल बेचने वाली है।आखिर जब दाल रोटी भी नसीब  होना दुश्वार होने लगे तो कुछ न कुछ क्रांतिकारी कदम तो उठाना ही पड़ेगा। विश्व की महाशक्ति से होड़ लेने की ख्वाहिश  पालते देश के नागरिक दाल से वंचित रहे। ये देश के कर्ता -धर्ता को आखिर कैसे शोभा देगा। व्याप्त अपवित्रता की जड़ो को पवित्र करने के लिए आखिर पहले ही  गंगा कि अविरल धारा तो डाक घरो के दहलीज तक पहुच ही चूका था। अब दाल कि खदबदाहट भी आपको डाकघर पर सुनाई और दिखाई देगा। चाहे तो आप गंगा जल के साथ ही साथ दाल भी खरीद ले ताकि अगर दाल में कुछ काले की सम्भावना नजर आये तो गंगा जल छिड़क कर उस सम्भावना को ख़ारिज कर सकते है। अब गलती से अगर डाकिया दिख जाए तो जो की सम्भावना कम है आप अपने दाल की एडवांस बुकिंग करवा ले। क्योंकि अगर डाक बाबू के नियत में खोट आ जाये तो कुछ भी संभव है। आने वाले समय में और उम्मीदे पाल सकते है की पर्व त्योहारों पर आप सीधे मनीआर्डर में दाल और अन्य उपलब्ध सामान भेजना चाहे तो भेज  सकते है। साथ ही साथ आज के भी बच्चों को डाकिया और डाकघर की उपयोगिता का पता चल जाएगा। बेसक उनके लिए हो सकता है फिर से डाकिये ऊपर निबंध आ जाए।  ऐसा भी नहीं है की यह करने से सिनेमा या संगीत की रचनाशीलता में कोई कमी आ जाएगा बल्कि उसमे नए आयामों की सम्भावना और बलबती होगा। किन्तु जब तक गीतकार कोई नया गीत नहीं रचते आप बेसक यह गुनगुना सकते है - डाकिया दाल लाया ,डाकिया दाल लाया  ....... । खुश होने के बहाने तलाशिये तनाव तो  हर जगह मुफ्त उपलब्ध है।

Tuesday, 11 October 2016

विजयी कौन .....?

                       बस अब युद्ध अंतिम दौर में है। किसी भी क्षण विजयी दुंदुभि कानो में गूंज सकती है। सभी देवतागण पंक्तिबद्ध हो अपने -अपने हाथो में पुष्प लिए अब भगवान के विजयी वाण के प्रतीक्षा में आतुर दिख रहे है। सभी के मुख पर संतोष की परिछाई दिखाई दे रहा है। अब इस महापापी का अंत निश्चित है। आखिर कब तक महाप्रभु के बाणों से अपनी रक्षा कर पायेगा। काल को अपने कदमो तले दास बनाने वाले को अब सम्भवतः अवश्य ही काल अपने चक्षु से दिख रहा होगा। अहंकार का दर्प अवश्य ही पिघल रहा है। राक्षसों की सेना में भी   मुक्ति की व्याकुलता दिख रही है। वानरों की सेना में असीम उत्साह का संचार एक -एक कर राक्षसों को मुक्ति मार्ग पर प्रस्थान कर रहे है। 
                         महाबली महापराक्रमी रावण रथ पर आरूढ़ आसमान से विभिन्न प्रकार के शस्त्र का प्रहार कर अपने वीरता के  प्रदर्शन में अब भी लगा हुआ है। महाप्रभु राम उसके हर शस्त्र का काट कर उसके साथ कौतुक कर रहे है। किन्तु अब भगवान् के चेहरे पर धारण मंद स्मित रेखा पर खिंचाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। देवतागण भगवान् के मुख पर उभरे इस रेखा को पढ़ कर आनंद और हर्ष से भर गए है। प्रभु राम अपने धनुष की प्रत्यंचा पर वाण धर अब इस कौतुक पर पूर्ण विराम करना चाह रहे है और प्रत्यंचा की तान प्रभु के और समीप खिंचता जा रहा है। प्रत्यंचा की तान से जैसे आसमान में बिजली सी कौंध गई और रण भूमि में दोनों ओर की सेनाओ को लगा जैसे रावण का काल बस उसके नजदीक आ गया। बदलो की टकराहट से पूरा रणक्षेत्र कंपायमान हो गया। दोनों ओर की सेनाये लड़ना भूल जैसे मूक दर्शक हो  महाप्रभु की ओर एकटक देखने लगे। अचानक इस दृश्य को देख देवतागण भी विस्मित से दिखने लगे। हाथो में धारण किये पुष्प इस गर्जन को सुन जैसे प्रभु के ऊपर बरसने को आतुर होने लगे। किन्तु अभिमानी रावण अब भी बेखबर भगवान् के लीलाओ को समझने में अक्षम लग रहा। उसके आँखों पर अभिमान का दर्प राम के देवत्व को देखने में बाधक था। भगवान् की प्रत्यंचा पर धारण वाण बस अपने आपको को भगवान् के तर्जनी और अंगूठे से मुक्त हो इस महापापी को महाप्रस्थान के लिए जैसे आतुर दिख रहा है। इसी क्षण बस राम ने वाण को मुक्त कर दिया। वाण का वेग देख जैसे वायुदेव का  भी सांस थम गया। पुरे रणभूमि में एक स्तब्धता छा गया। जिस क्षण की प्रतीक्षारत  देव ,मानव ,गन्धर्व ,आदि अब तक थे अब वो क्षण बिलकुल नजदीक दिख रहा है। प्रभु के धनुष से निकला वाण द्रुत गति से सीधा जाकर रावण की नाभी में समा गया। आसमान भार मुक्त, किन्तु  महापंडित रावण का भार अब भी पृथ्वी उठाने को तत्पर दिखी। रथ से अलग हो रावण का शरीर अब रण भूमि में चित पड़ गया। 
        यह क्या जोर-जोर की अट्टहास रण भूमि पर पड़े रावण के मुख से आ रहा और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से राम को घूरा।  उसका अट्टहास मृत्यु पूर्व अंतिम उद्घोष था या चुनौती देवतागण भी विचारमग्न ,प्रभु के अधर पर स्वभाविक मंद स्मित मुस्कान। रावण अट्टहास करता करता दर्पपूर्ण स्वर में कहा - राम क्या तुमने मुझे सच में परास्त कर दिया ,
राम -रावण क्या अब भी अभिमान नहीं गया। क्या मृत्यु को इतने पास से भी देखने में सक्षम नहीं हो। अहंकार जब नजरो में छा जाता है तो ऐसा ही होता है। 
रावण -अहंकार मेरे शब्दो में नहीं राम तुममे झलक रहा है। रावण कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। राम आज तुमने सिर्फ एक रावण का वध किया है। रावण की इस नाभि में बसे अमृत अभी सूखा कहा है। वह तो बस छिटक कर इसी पृथ्वी पर फ़ैल गया है। राम ये तुम नहीं जानते की तुम एक रावण के कारण कई रावण को जन्म दे दिए। रावण आज भी जिन्दा है और कल भी रहेगा। आने वाले युग में इस रावण की गुणों से युक्त कितने क्षद्म मानव होंगे तुम सोच भी नहीं सकते। चलो माना की तुम भगवान् हो और इस धरती पर अवतरण लिए। किन्तु जब मानव ही  रावण के गुणों से युक्त होगा किस मानव के रूप में आओगे। ये  तो मारीच से भी गुनी होंगे कब राम का रूप धर रावण दहन करेंगे और कब रावण का रूप धर सीता हर ले जाएंगे तुम्हारे देवता को भी समझाना मुश्किल हो जाएगा। हर कोई एक दूसरे को रावण कहेगा खुद को राम कहने वाला शायद ही मिले। यह राम तुम्हारी जीत नहीं हार है। जिस पृथ्वी से पाप मिटाने के लिए तुमने एक रावण का वद्ध किया उस रावण से कई रावण निकलेंगे यह तुम्हारी हार है। राम अभी तक तो तुमने पृथ्वी को  रावण मुक्त किया लेकिन आने वाले समय के लिए भार युक्त कर दिया। अब तो वर्षो यह मानव मेरा गुणगान करेंगे। अपने अंहंकारो की तुष्टि हेतु बस मेरे पुतले पर वाण चलाएंगे। राम मेरा शरीर नहीं मरा है वह तो तुम्हारे वाण से क्षत -विक्षित हो  बिखर गया चारो दिशाओ में। राम विचारो यह तुम्हारी विजय है या पराजय। पुनः अट्टहास जोर और जोर से, चारो दिशाए उन अट्टहास से जैसे कांपने लगा। 
         अचानक जैसे  उसकी तन्द्रा खुली खुद को रावण दहन के भीड़ में घिरा पाया। रावण सामने वाले मैदान में धूं -धूं कर जलने लगा। फटाको की आवाज से कान बंद सा हो गया। लेकिन उसके कानो में अभी भी रावण के प्रश्न  और अट्टहास गूंज रहे , भीड़ मदमस्त है और उसकी नजर राम को तलाश रहा है ।    

(आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामना )

Sunday, 9 October 2016

किस फलसफे पर जाऊं .....

किस फलसफे पर जाऊं 
मौत की युक्तियां तलाशें  
या सिर्फ जिंदगी को गले लगाऊं ।।

खिंची है कितनी दीवारें 
हर नजरो में नजर तलाशती है , 
हमें शक न हो अपनों के मंसूबो पर  
इसलिए सरहद पर जमाये बैठे है ।। 

बुझ रहे खुद के  दियें हर रोज  
इसकी किसी को कोई खबर नहीं ,
रह रह कर जला दो  उसे 
हर तरफ शोर ये सुनता ।। 

भूख से कोई मरे इसमें कोई तमाशा नहीं 
खुद कि  बदनीयत पे कौन शक करे ,
शुक्र है की वो बगल में पाक सा  है 
उसी की ख्वाहिस का इल्जाम क्यों न करे ।। 

अपनों से ही मासूम से सवाल पर उबल जाए 
लगता है रक्त की तासीर बदल सी गई है , 
शायद इन लाशों में बहुत कुछ छिपा है 
जमाये गिद्ध की नजरो से पूछो जरा ।। 

बहुत माकूल अब माहौल है 
वो अपना भी लिबास हटा देते है , 
कई सालो के सब प्यासे है 
एक रक्त का दरियां क्यों न बहा देते है ।। 

किस फलसफे पर जाऊं 
मौत की युक्तियां सुझाऊं 
या सिर्फ जिंदगी को गले लगाऊं ।।   

Tuesday, 27 September 2016

प्रवाह...


बादलो का कोई कोना छिटककर 
जैसे फ़ैल गया मेरे चारो ओर , 
और मैं घिर गया 
किसी  अँधेरी गुफा में। 
साँसों का उच्छ्वास टकराकर 
उस बादलो से ,
गूंजती थी नसों के दीवारों में 
न सुंझाता कुछ, 
फिर फैलते रक्त की लालिमा 
जाने कैसे उस कालिखो पर भी 
घिर कर उभर आया ।  
बीते आदिम मानव के कल का चित्रण 
या उन्नतशील होने का द्वन्द ,
संहार के नित नए मानक 
गर्वोक्ति संग उद्घोषणा , 
बैठे कर विचार करते सब आपस में 
कैसे हम रक्त पिपासु बने।  
कहीं इतिहास तो नहीं दोहरा रहा 
अब आदिम मानव रूप बदल ,
अपने गुणों का बखान कर रहे। 
अनवरत सदियो के फासले 
नाप कर भी 
उद्भव का संक्रमण 
शायद हमारे रुधिर में 
उसी प्रवाह के साथ विदयमान है। 
झटक कर मस्तिष्क झकझोड़ा 
छिटकते धुंध से बाहर आया 
या उन रौशनी में 
जहाँ शायद कुछ दीखता नहीं। 
पता नहीं क्या ?

Friday, 23 September 2016

पछतावा

                 
                    मनसुख के गांव में आज गर्वयुक्त उदासी बिखरी हुई है।  एक शहीद की अंत्येष्ठि में शामिल होना है।  बड़े -बड़े कदम भरते सभी उसी ओर चल पड़े जिधर हजारो कदम बहके बहके से चले जा रहे है। बहुत दिनों बाद ऐसा लग रहा है, देश और देशभक्ति की अनोखी बयार हवा में घुल गई है। सभी मन ही मन गौरवान्वित महसूस कर रहे है। हर कोई उस शहादत में अपना भी हिस्सा देख रहा है। तिरंगे में लिपटा शव पर फूल मर्यादित रूप से अपने आप को सहेज कर रखा हुआ है। इस मौके पर कोई भी पंखुरी अपने आपको उस तिरंगे से अंतिम विदाई देने के पूर्व विच्छेदन नहीं चाह रहा है। पीछे-पीछे सेना की टोली अनुशासित रूप से, कदम-से-कदम मिलाकर अपने साथी का साथ, महाप्रस्थान से पूर्व अंतिम कदम तक हौसला बनाये चल रहा है। क्या बूढा क्या जवान हर कोई इस पल को जीना चाह रहा है। आखिर देश के लिए उत्सर्ग कोई अपने आपको कर दिया है। नीले आसमान में चमक रहे सूरज भी लगा जैसे इन पलो में गमगीन हो अपने आपको बादलो में ढक लिया और दोनों हाथो से वृष्टि पुष्प उसके कदमो में बरसाने लगा। सारा गांव उस समय थम सा गया। पर्दे के लिहाज भूल महिलायें भी उस वीर जवान को एक झलक देख  अपने पलकों में बसा लेने हेतु उत्सुकता से अपने चहारदीवारी के किसी खाली झरोखे को ढूढने में प्रयत्नशील लग रही। सरकार के बड़े अधिकारी भी अपने इस मौके पर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित कर रखे है। मनसुख भी उस भीड़ का हिस्सा है ,लखन चाचा भी साथ ही साथ चल रहे थे। 
                       मनसुख भी  पीछे-पीछे चला जा रहा है।  किन्तु दृश्य उसके सामने पांच साल पहले का चलचित्र की भांति घूमने लगा। जब  लखन चाचा का बेटा अपने एक और साथी के साथ  बहुत खुश होकर आया और कहा की -बाबूजी हमारा फ़ौज में सलेक्शन हो गया और पत्र सामने रख दिया।मनसुख भी वही बैठा था।  तीनो हम उम्र मित्र थे। साथ साथ दोनों के चयन से बहुत खुश। किन्तु एक ही बेटा और फ़ौज की नौकरी अपने हाथो मरने मरने भेज दे। अंतरात्मा काँप गई थी। कहा- बेटा अपने पास काफी जमीन है खेती कर फ़ौज-वॉज में कुछ नहीं रखा है। मनसुख ने भी लखन चाचा से तरफदारी की किन्तु वो टस से मस  नहीं हुए।देश के प्रति मनसुख का लगाव कुछ कम हो ऐसा नहीं था ,किन्तु फ़ौज के लिए जो हौसला चाहिए वो नहीं था।  वो खेती कर खुश था और उसका दोस्त फ़ौज में ख़ुशी देख रहा था। कई बार मनाने पर भी नहीं माने। अंततः  मन  मसोसकर उसका दोस्त अपने बाबूजी की बात मान गया।  खेती को उन्नत विधि से करने के लिए लोन लिया। और सुखार ने सारे के सारे अरमान पर पानी फेर दिया। एक सुबह बेटे का शव घर के पीछे बगान में पेड़ से लटका पाया।सब कुछ ख़ामोशी से निपट गया। मनसुख उस वक्त भी  साथ था और अपने को गैर होते और दुःख पर कुटिलता के वाण अलग से चले ।
              आज लखन चाचा के बेटे के  मित्र की विदाई है।अचानक तेज बिगुल की धुन सुनाई दी। मनसुख जैसे लगा नींद से जगा। अचानक तेज उठती लपटे लगा जैसे आसमान को भी अपने में समेटने को उधृत हो रहा हो। आसमान से रिमझीम फूलो का अर्पण चिता को सम्मानित कर रहा था। बगल में ही खड़े लखन काका को मनसुख ने देखा। नजरो में भुत गतिमान लग रहा था। आँखों के किनारे आंसू की बुँदे ढलकने को तत्पर लगा। मनसुख नहीं समझ पाया ये इस शहादत का दुःख या बीते कल का पछतावा।

( यह कहानी मेरा दूसरा ब्लॉग "मनसुख का संसार " से है )