Saturday 28 December 2019

चिलका--झील....पानी ही पानी

         समय की रफ्तार नियत है। किंतु सोच की रफ्तार अनियत है। 2019 का रश्मि रथ वर्ष की अंतिम राह पर अग्रसर है। फिर ये नूतन और पुरातन वर्ष के संक्रमण काल में सुई की घड़ी अपनी नियत रफ्तार से टकटकी लगाए दौर रहा है।
      
              जाजपुर प्रवास को लगभग चार वर्ष हो गए। केन्द्रीय सेवा में आप यायावरी ही करते रहते है।ये आपको देश के विभिन्न क्षेत्रों की विविधता से रूबरू होने के कई मौके देता है। फिर आप उस सेवाकाल में खुद के लिए समय निकाल कर उसे अपने नजरिये से देखने और समझने का प्रयास करते है।आस-पास के दर्शनीय क्षेत्रो में जगन्नाथ मंदिर पूरी, कोणार्क का सूर्य मंदिर, लिँगराज मंदिर भुवनेश्वर जो कि विश्वविख्यात है उसके साथ-साथ आस-पास ही कई और विख्यात बौद्ध स्थल और स्थानीय तौर पर प्रसिद्ध का भ्रमण हो चुका। किंतु अब भी कुछ जगह बाकी रह रह गए थे , जिसका भ्रमण बाकी था। उसमें सबसे प्रमुख नाम चिलका झील है। 

         जाजपुर रोड से चिलका ज्यादा नही बस दो सौ बीस किमी है। अगर आप यहां आने से  पूर्व गूगल बाबा के सानिध्य में कुछ पल बिताते हैं तो आपको पता चलेगा कि "चिलका झील" के नाम से बेसक प्रसिद्ध हो, लेकिन भोगोलिय परिभाषा में ये "लैगून या अनूप" कहलाता है।अनूप अथवा लैगून किसी विस्तृत जलस्रोत जैसे समुद्र या महासागर के किनारे पर बनने वाला एक उथला जल क्षेत्र होता है जो किसी पतली स्थलीय पेटी या अवरोध (रोध, रोधिका, भित्ति आदि) द्वारा सागर से अंशतः अथवा पूर्णतः अलग होता है। यह लगभग ग्यारह सौ वर्ग किमी की दायरे में फैला हुआ है।खैर

      ऐसे भी ये वर्षांत वनभोज के रूप लोग एक दिन अवश्य घर से बाहर भ्रमण करना चाहते है। तो बैठे-बैठे अकस्मात चिलका के विस्तृत फैले जल प्रवाह की ओर ध्यान चला गया।अवकाश का स्वीकृति सामान्यतः एक दुरूह क्रिया है।फिर भी जैसा कि  राहुल सांकृत्यायन कहते है-"बाहरी दुनिया से अधिक बधाये आदमी के दिल मे होती है"। तो मैंने दिल की बाधाएं से पार पाते हुए मौखिक आवेदन प्रस्तुत कर दिया और एक दिन की हामी मुँह बाये सीपी के मुंह मे एक ओंस की बूंदों गिरने जैसा लगा ।वैसे तो अगर योजनाबद्ध अवकाश के आवेदन हो तो एक के साथ आगे-पीछे दिनों के उपसर्ग और प्रत्यय के रूप में कुछ और इजाफा हो जाते है। किंतु अनियोजित कार्य मे ध्येय पर ही ज्यादा ध्यान होता है, इसलिए उसका प्रयास ही नही किया।खैर
      
      यहां जाजपुर रोड से वाहन के द्वारा ही भ्रमण ज्यादा उपयुक्त  है सो पूर्व परिचित वाहन मालिक से संपर्क कर गाड़ी की उपलब्धता सुनिश्चित कर लिया।सर्दी का मौसम यहां काफी खुशनुमा और रूमानी है।जिसमे आप सर्दी से डरकर रजाई में खुद को छुपाने का प्रयास नही करते।जब देश का उत्तरी क्षेत्र भीषण सर्दी से ठिठुर रहा है । यहां एक अदद स्वेटर फिलहाल की शीत ऋतु से गुफ्तगू करने में मशगूल है।सुबह सवेरे छह बजे हम अपने आवास से उन आगंतुक पक्षियों से मिलने अपनी गाड़ी से निकल गए। जाजपुर रोड से लगभग बारह किमी की दूरी तय करने के बाद हावड़ा- चेनाई राष्ट्रीय राजमार्ग एन एच-16 के ऊपर आ गए। रोड की स्थिति कमोबेश आप अच्छा कह सकते है। यदि आप किसी अन्य स्थान से ओडिशा के भ्रमण पर है तो आपके लिए भुवनेश्वर या कटक ज्यादा मुफीद है। वैसे चिलका में रेलवे स्टेशन है किंतु कोई भी प्रमुख गाड़ियां यहां रुकती नही है। जाजपुर रोड से पानिकोइली, कटक, भुवनेश्वर होते हुए हम राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर हम खुर्दा रोड के रास्ते बढ़ चले। भुवनेश्वर से लगभग सत्तर किमी की यात्रा के पश्चात मुख्य राजमार्गों से काटती हुई एक अन्य मार्ग दिखा जिसपर चिलका की ओर तीर का निशान इंगित कर रहा था कि अब हम झील के आसपास पहुँच चुके है। तटीय क्षेत्र के अनुरूप पूरा परिदृश्य नारियल के पेड़ और अन्य वनिस्पतियो के आच्छादित आपको आह्लादित कर सकता है।कोई दस मिनट के बाद अब हम चिलका तट पर पहुँच चुके, अब समय दिन के लगभग ग्यारह बज गए ।वैसे अगर आप जगन्नाथ पूरी दर्शन के लिए जाते है तो वहां से लगभग नब्बे किमी की दूरी पर "सदपदा" नामक स्थान भी  चिलका झील के भ्रमण के नाम पर आपको गाइड ले जा सकते है, जो कि मुख्यतः समुद्र और चिलका झील का मुहाना है और डॉल्फिन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन चिलका में चिलका झील का भ्रमण आपको ज्यादा आनंदित करेगा।"चिलका विकास प्राधिकरण" के तहत यहां का विकास कार्य संचालित है। 

        विशाल जलराशि के निकट हम पहुच गए। दूर तक फैले झील आपको प्रकृति में समाहित सौंदर्य के अप्रितम कल्पना लोक में लेकर चल देता है। बादलो को चीरते सूर्य की बिंब नाव के धार के तरंगों पर जैसे लग रहा है जैसे किसी अनुगुंजी संगीतो पर थिरकने में लगी हुई है। पक्षी यही धरती के है या किसी और लोक में हमें विचरण करा रहा है, इसी कल्पना के पंख पर हम उड़ने लगे, तब तक साथ आये ड्राइवर ने कहा ये- ये टिकट काउंटर है यहां पर आप टिकट लेकर बढ़े ,मैं यही इंतजार करूँगा। आंख खोले हुए भी शायद तंद्रा की अवस्था हो सकती है, इसको अभी महसूस किया। वैसे भी अज्ञेय ने एक जगह लिखा  हैं - “वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उस से ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूं।” 

            यहां "सी डी ए" संचालित बोटिंग की व्यवस्था है, साथ ही साथ आस-पास के  लोगो के रोजगार का एक प्रमुख स्वय के बोट पर्यटक को झील के सौंदर्य का भ्रमण कराते है। किंतु "सी डी ए" संचालित बोटिंग में क्षमता के अनुरूप पर्यटक के आने के बाद खुलती है। लेकिन प्राइवेट बोट आपके अनुरूप ही चलेगी। किन्तु इसमे आपका पर्स कुछ ज्यादा ढीला होगा। अब समय और पर्स दोनों के तुलनात्मक भाव कर आप किसी बोट में भ्रमण कर सकते है।छोटो बोट की क्षमता दस से सोलह लोगो की होती है, जबकि "सी डी ए" संचालित बड़ी बोट की क्षमता लगभग पचास से साठ की है।

                 अब एक सौ अठारह नंबर के नाव पर बुकिंग की प्रक्रिया के बाद झील के तट पर पहुच गए।नाविक "कालिया" वहां अपने बोट के साथ हमे मिल गया।ये बोट लगभग दस लोगो की क्षमता के अनुरूप हम सभी उसमे सवार हो गए। अब बोट किनारा छोड़ झील की यात्रा पर निकल गया। वन-भोज के इरादे से हम निकले ,इसलिए घर से खाने के टिफ़िन हमारे साथ चला। वैसे यहां आपको कोई अच्छा होटल नही मिलेगा दूसरा समय अलग से जाया होता है। इसलिए नाव अपने मांझी और पतवार के साथ चलते ही हमने वन-भोज की जगह चिलका में "जल-भोज" के लिए बैठ गए। इसी दौरान कालिया हमे बताया कि किनारे इसकी गहराई तीन फुट तक है जबकि चिलका की सबसे ज्यादा गहराई लगभग तीस से चालीस फुट तक है। वो खुद मछवारे के परिवार से है और ये नाव खेना उसके रोजगार से ज्यादा उसका शौक है। क्योंकि पेशे से वह राज्य सरकार के प्राथमिक स्कूल में शिक्षक है। अभी स्कूल में छुट्टियां होने के कारण वो यहां है। कुछ भावुक सा होता बोला बचपन से इन्ही पानी के आसपास पला-बढ़ा है, इसलिए मौका मिलते ही वो पानी मे पहुच जाता है।कभी-कभी तो वो मछली की खोज में तीन से चार दिन इसी नाव पर गुजारते है।खाने-पीने का सामान सब साथ ही होता है। यह कहते हुए वह पानी के बीच होते हुए भी जैसे कही और विचरण करने लगा। शायद प्रतिकूल या अनुकूल कोई भी स्थिति हो , किसी के सानिध्य में बिताए कल, रह-रह कर हमें अपनी ओर खींचता है। बोट ने अपनी रफ्तार पकड़ ली, सुदूर तक  निगाहे बस पानी मे तैरने लगा।धरती और आकाश का मिलन तो क्षितिज कहलाता है।किंतु यहां पानी और आकाश की नीलिमा कब एक दूसरे के संग मिल करवटे बदलते है सब कुछ अविस्मरणीय, अद्भुत सा प्रकृति में समाई अनंत अदृश्य मनोरम छटा से आप सिर्फ विस्मृत से होते जाते है। कही नेपथ्य जैसे लगा "मिलन" फ़िल्म का गीत-" सावन का महीना पवन करे शोर" चिलका के हवाओ में तैरने लगा।अब तक लगभग झील के अंदर पांच किमी की यात्रा कर एक छोटे से पत्थरो के द्विप पर पहुँच गए। जिसे "चढ़ाईहाड़ा' के नाम से जानते है। पानी के बीच पत्थरो पर दो-चार फ़ोटो क्लिक कर अब आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए पानी के अंदर अब हल्की श्याम और श्वेत उबर-खाबड़ परिछाई जैसे तैरने लगी। हमे लगा जैसे और किसी द्विप के नजदीक आ गए। यहां झील की गहराई अब कम होकर तीन से चार फुट हो गया। तब तक कालिया ने बताया कि इसे ही "नालंबना द्वीप" कहते है। ये पक्षियों के लिए प्रसिद्ध है।ऐसा अनुमान है कि प्रवासी पक्षीयो   की लगभग 205 प्रजातियाँ  इस मौसम यानी दिसम्बर से फरवरी में  इस झील पर आती है।सर्दियों में यह झील कैस्पियन सागर, ईरान, रूस और दूर स्थित साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों का निवास स्थान बन जाती है। अब जहां देश मे एन आर सी और सी ए बी पर कितने लोग स्वयं के पहचान को लेकर सशंकित हो रहे है। वही ये सभी पक्षियां विभिन्न सुदूर भागो से आकर यहां बेखबर होकर जल-क्रीड़ा में मग्न है। इसके आगे अब जाना मना है, क्योंकि आगे पंक्षियों के संवर्धन के कारण प्रवेश निषेध है।स्वयं के लिए सशंकित इंसान और जीवो के पहचान के लिए कितना संवेदनशील है, इस विरोधभाष मे दिमाग को उलझने का यहाँ कोई औचित्य नही नजर आया। विस्तृत फैले क्षेत्र में सिर्फ पानी ही पानी एक समतल सतह पर कही कोइ चिन्ह या निशान नही बता रहा है। लेकिन इन जलराशि के मध्य सुखी बांस बल्ली बिल्कुल तन कर खड़ा है। जैसे चिलका के मध्य यह अपनी हरियाली को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास रत है। कालिया ने बताया चिलका की यात्रा में यही इनके दिशा निर्देशक तंत्र है।समय अपनी रफ्तार से भगा जा रहा था। इसलिए अब आगे बढ़ कर कालीजाई द्वीप में कालीजाई देवी के मंदिर  में आ गए। मंदिर के हुंडी में आने वाला चढ़ावा अभी भी पास के "बालू गाँव" ,के राजा के वंशज को जाता है। मान्यता है कि उसी राजा ने देवी की मंदिर स्थापित किये।जिसके विषय मे कई किवंदतियां प्रसिद्ध है,किन्तु वो कहानी फिर कभी। काली जय द्विप लगभग ढाई-तीन किमी में फैला हुआ पहाड़ी क्षेत्र है। इसके भी आसपास विविध प्रवासी पंक्षियों की जमघट लगा हुआ है।सतपड़ा, बालुगाँव, रंभा और बारकुल से होते हुए नौकासवारी के माध्यम से आप चिल्का झील के महत्व को महसूस कर सकते हैं।बीच झील के किनारे आपको आईएनएस चिलका "भारीतय नौसेना" पूर्वी तट का मुख्यालय भी है। जहां विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण चलते है । किन्तु उसके लिए आप समय की प्रचुर मात्रा अपने साथ लेकर चले। यहां घूमते-घूमते समय अब मुठ्ठी से रेत की भांति फिसलने लगा। ऊपर आसमान में सूरज भी लगा जैसे थक कर निढाल हो रहा है। और यहां से लगभग पांच घंटे की यात्रा कर वापस जाजपुर भी लौटना है। इसलिए नाव के संग-संग प्रवासी पक्षियों के संग हम वापसी की यात्रा पर चल दिये। 

Saturday 2 November 2019

छठ ...यादें

            यहाँ काली पूजा की महत्ता है। काफी भव्य और लगभग दस दिनों का आयोजन रहता है। यहां रहते हुए इसका भी एहसास बचे खुचे समय मे समय निकाल कर करने चल दिये। घर के बगल में बड़ा सा मैदान है और रंगारंग कार्यक्रम की भी व्यवस्था है। भीड़ भरे आयोजन स्थल पर चहलकदमी बता रही है कि यहाँ के लोग इस आयोजन का भरपूर लुफ्त उठा रहे है।

            लेकिन मन का कोना इस आयोजन के तड़क-भड़क के बीच जैसे खामोशी की चादर ओढ़ रखा है। शरीर बेशक यहां भ्रमर कर रहा है लेकिन मन यायावरी कर गाँव के आंगन में बार-बार भटक कर पहुँच जा रहा है।क्योंकि आज खरना की पूजा है। विधिवत चलने वाले बहुदिनी व्रत "छठ" का एक पड़ाव।
     
            इस बार छठ में घर से दूर होना, लगता है कि कटे जड़ के साथ तना बस इधर से उधर डोल रहा है। छठ का महात्म्य क्या है ये तो बस वही जानता है जिसने किसी न किसी रूप में उसके संसर्ग में आया है और छठ को जिया है। घर से इस समय दूर रहना, जैसे लग रहा है अस्तित्वहीन होकर शून्य में भटक रहा हूँ। बीच-बीच मे मन शरीर को यही जैसे छोड़ गाँव के आंगन में विचरने लगता है। गोबर की निपाई से आँगन का कोना-कोना छठ की खुसबू से दमक रहा है।अभी तक पता नही कितने चक्कर बाजारों के लग गए होते। वैसे तो सुप पथिया, मिट्टी के बर्तन माँ पहले से ही व्यवस्था कर के रखती थी।लेकिन उसके बाद भी सांध्य पहला अरग के निकलने से पहले तक जैसे भागमभाग लगा ही रहता। फिर सारे फल, सब्जी, ईंख सब तो आ ही गया। तब तक माँ कहती अरगौती पात तो है ही नही। अरे वो समान के लिस्ट में तो लिखाया था। तब तक मैं भाग कर कहता ओह रुको अभी लेकर आता हूँ। पूजा त्योहार तो कई है लेकिन छठ अद्भुत...। 

             चार पांच दिन पहले से गेहूं धो कर सूखने लगता। छत बड़ा सा है। आस-पड़ोस के भी महिलाएं वही अपना गेहूं सुखाने आ जाती। माँ कहती - ईय एक टा गीत गायब से नई। वही आबाज आता। काकी अहाँ शुरू करु न। बस उसके बाद सनातन लोकगीत परंपरा की तरह जो बचपन से सुनते आ रहे है। माँ धीरे-धीरे गुनगुनाना शुरू कर देती- उगो हे दीनानाथ....मारबो रे सुगवा धनुष से...कांचही बांस के बहँगीय...और माटी के संग गुंथी हुई अक्षुण्ण अनगिनत और न जाने कितने मैथिली और भोजपुरी के गीत। उधर कही से शारदा सिन्हा की आवाज भी  घर की चहारदीवारी को लांघ कर एहसास कराता रहता कि पूरा परिवेश ही जैसे छठमय हो रखा है। एकांकी व्रत की धार कैसे सामूहिकता में सबको बांध सागर की तरह छठ के घाट पर सब एकसाथ आत्मसात हो जाते है, यही छठ की परम्परा अनवरत अब भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव के बदलते माहौल में भी अब तक खुद को जीवंत रखे हुए है।

                दीपावली की रात के प्रथम सूर्योदय में भगवान भास्कर की किरण में कुछ अद्भुत छटाएँ होती है और लगता है जैसे छठ की दिव्यता फैलने लगा।  बिना किसी के बताए लगता है कि वातावरण में स्वतः उद्घोष हो गया। तैयारी तो न जाने हर छठ व्रती अपने स्तर पर कब से करता है लेकिन अब तैयारी अपने अंतिम स्तर पर आ जाता है। हर घर, हर गली, हर सड़क हर बाजार छठ की प्रकृति प्रदत्त तैयारी से एक अलग भब्यता परोसने लगता है। जबकि कुछ भी विशेष नही सब के सब वही आस पड़ोस खेत खलिहान और बगीचे में मिलने वाला। अत्यधिक की गुंजाइश बेसक लेकिन कम से कम भी पूर्णता से पूर्ण ही दिखता है।

               छठ का घाट सिर्फ व्रतियों के भगवान भास्कर को अर्ध्य नही है, बल्कि एकल व्रत की धार सामूहिक समष्टि को कैसे एक तट पर साथ रहने की अवधारणा को अब भी सहोजे रखा है सबसे अद्भुत है। 
             और इस सबके बीच अपने गाँव घर से दूर छठ के माहौल में इस तरह तल्लीन होना, चेतन अस्तित्व के ऊपर अवचेतन छठ की अनगिनत रूपो का उभरना-विचरना, मन को छठ के होने तक यू ही यायावरी कर पता नही यादों को कुरेद रहा है या फिर नही होते हुए भी वही लेकर जा रहा है। पता नही क्या.....?

Friday 23 August 2019

जन्माष्टमी की शुभकामनाएं

आनंद का क्षण है। बादल झूम-झूम कर बरस रहे है।आखिर हो भी क्यों नही...आज बाल गोपाल का जन्मोत्सव जो है। तो फिर आज कृष्ण के ऊपर लोहिया जी का लिखा लेख याद आ रहा है। जिसमे लोहिया अपने चिंतन में कहते है-

                कृष्ण के पहले भारतीय देव , आसमान के देवता है। निसंदेह अवतार कृष्ण के पहले शुरू हो गया । किन्तु त्रेता का राम ऐसा मनुष्य है जो निरंतर देव बनाने की कोशिश करता रहा।इसलिए उसमे आसमान की देवता का अंश अधिक है। द्वापर का कृष्ण ऐसा देव है जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा।कृष्ण देव होता हुआ सदैव मनुष्य बना रहा। कृष्ण ने खुद गीत गाया है "स्थितप्रज्ञ" का,ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जमकर इस्तेमाल करता हो अर्थात "कूर्मोङ्गनीव" जो कछुए की तरह यह मनुष्य अपने अंगों को बटोरता है, अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका की इन्द्रीयार्थो से पुरी तरह हटा लेता है।

          तो फिर जन्माष्टमी के इस अवसर पर आनंद के असीम संसार मे तिरोहित होने के साथ-साथ कृष्ण के गीत को भी कर्मरूपी चिंतन करते रहे ।।

        जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।।

Friday 16 August 2019

मंगल मिशन....

                   मिशन मंगल कुल मिला कर एक अच्छी फिल्म है। इसरो के सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम "मार्स ऑर्बिटर मिशन" से जुड़े वैज्ञानिको के जुनून,लक्ष्य के प्रति समर्पण, प्रतिकूल कारको में मध्य दृढ़ इच्छाशक्ति के वास्तविक जादुई यथार्थ का फिल्मांकन और उसे थियेटर के बड़े पर्दे पर देखने का एक अलग ही आनंद है। इसकी सफलता का अनुमान इसके प्रथम प्रयास में सफल होने के साथ - साथ इसके बजट के संकुचन का भी है। तभी तो जहा किसी शहर में ऑटो का किराया प्रति किलोमीटर 10 रुपया पड़ता है, वही मंगलयान प्रति 8 रुपये किमी के दर से अपने लक्ष्य तक पहुच गया। खैर

      अब आते है फिल्म पर । लंबी स्टार कास्ट में सभी कलाकारों को समुचित स्पेस दिया गया है।फ़िल्म के अंत मे क्लिपिंग से ये पता चलता है कि इस "मंगलयान" के प्रोजेक्ट से लगभग 2700 वैज्ञानिक और इंजीनयर जुड़े हुए थे। स्वभाविक है कि उसमें कुछ साथ किरदारो के मध्य इस फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया है।जिसमे पांच मुख्य महिला किरदार है।जो कि इस अभियान के विभिन्न प्रोजेक्ट को लीड कर रही है। साथ मे तीन पुरुष कलाकार है।फिर आप अंदाज लगा सकते है कि किसके लिए कितना स्पेस है। लेकिन कहानी के अनुरूप फ़िल्म में सभी की अपनी मौजूदगी है। कहानी छोटी लेकिन इतिहास बड़ी है। सीनियर सायंटिस्ट राकेश धवन जिसकी भूमिका में अक्षय कुमार है।  एक असफल अभियान के बाद तात्कालिक इसरो के एक बंद प्रोजेक्ट "मंगल मिशन" भेज दिए जाते है। पिछले असफल प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे जो कि असफल अभियान में खुद को जिम्मेदार मानती है भूमिका को निभाया है विद्या बालन ने इसी तरह सोनाक्षी सिन्हा,तापसी पन्नू,कीर्ति , शरमन जोशी,विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एच् डी दत्तात्रेय आदि ने विभिन्न किरदारो को जिया है। जहाँ मध्याह्न से पहले फ़िल्म की पटकथा किरदारो को बुनने में समय लगाता है लेकिन साथ ही साथ कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। वैज्ञानिको के विभिन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि को रचने में कहानीकार के अपने दर्शन हो सकते है। लेकिन वो आपको उबाऊ या बोरिंग नही लगेगा। संजय कपूर एक अरसे बाद दिखे है और अपने पुराने गाने"अंखिया मिलाऊ कभी कभी अँखिका चुराऊ पर थिरकते मिलेंगे। लेकिन किरदार कुछ "कन्फ्यूज़्ड" सा है। दत्तात्रेय अपनी भूमिका से काफी आकर्षित करते है और इस उम्र में भी जिस ऊर्जा से भरे है लगता है अभी-अभी एयर फोर्स से रिटायर हुए है। दतात्रेय एयर फोर्स में विंग कमांडर से रिटायर है और बाद में फिल्मों से जुड़ गए। बाकी अदाकारी सभी कलाकारों की अपनी किरदार के अनुरूप है। मध्याह्न के बाद फ़िल्म अपनी गति में रहती है।इस तथ्य को जानते हुए भी यह इसरो का एक सफल मिशन है आपकी नजरे पर्दे पर अंत तक लगी रहती है। कुछ सांकेतिक डायलॉग अच्छे या खराब या किस परिपेक्ष्य में फिल्मकार ने दिखाया है ये आप खुद फील देख कर तय कर सकते है। फ़िल्म का बैक ग्राउंड संगीत बढ़िया है। निर्देशक ने पूरी कोशिश की है और सेट डायरेक्टर ने एक इसरो ही उतार दिया है।

      इसरो के पचास साल पर इसरो के वैज्ञानिकों के प्रयास और सफलता कि उद्घोषणा करती यह फ़िल्म है, यह उस जिजीविषा और अदम्य उत्साह की गाथा को रुपहले पर्दे पर प्रस्तुत करता है, जिसमे ज्यादातर हीरो पर्दे के पीछे ही रह जाते है। बाकी कमिया भी कई है लेकिन सिर्फ अच्छे को ही कभी-कभी देखने का अपना ही मजा है और वो भी स्वतंत्रता दिवस के बिजी मौके पर आपको किसी फिल्म के पहले दिन के दूसरे शो का आपको टिकट मिल जाये तो...।।

Monday 10 June 2019

भारत- एक समीक्षा

               सीधे और सपाट शब्दो मे कहूँ तो फ़िल्म में मनोरंजन के मसाले भरपूर है,लेकिन वो टुकड़े-टुकड़े में थोड़ा बहुत मनोरंजन करता है।लेकिन एक पूरे फ़िल्म के रूप में कही भी बांधने में मुझे तो नही लगता है कि सफल हो पाया है।अली अब्बास जाफर के निर्देशन के कारण आज "भारत मैच छोड़"  "भारत फ़िल्म" को देखने चल दिया।लेकिन सलमान के साथ पिछली दो फ़िल्म "सुल्तान" और "टाइगर जिंदा है" के मुकाबले यह काफी कमजोर मूवी है।कहानी में कोई विशेष तारतम्य नही है बस बटवारे के पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में आप भावनात्मक रूप से जितना महसूस कर पाते है, उतनी देर बांधती है, अन्यथा दुहराव ज्यादा और काफी झोल-झाल है। सलमान अपने नाम के अनुरूप है और कैटरीना पहले की भांति खूबसूरत, दिसा पाटनी की जगह एक्स,वाय, जेड कोई भी होती कुछ फर्क नही पड़ता। अन्य कलाकार छोटी-छोटी भूमिका में आकर्षित करते है और अपना प्रभाव छोड़ते है।फिर भी कहानी के तौर पर एक समग्र रूप से उभर नही पाते है।लेकिन अपने पूर्व की सारे इमेज को तोड़कर कोई सामने आता है तो वो सुनील ग्रोवर है और हिस्सो में तो लगता है ये उसी की फ़िल्म है। गीत संगीत में विशेष कुछ नही है।

               आप जहां से चाहे फ़िल्म की शुरुआत कर सकते है औऱ कही भी छोड़ कर जा सकते है। निर्देशक खुद ही कहानीकार है तो वो कहानी ठीक से सुना नही पाए और कहानी में कसाव के नाम पर कुछ भी नही है। कोरियन फ़िल्म के री-मेक को इस देश के मिट्टी के अनुसार ढाल पाने में असफल ही कहा जायेगा। कॉमेडी का तड़का लगाने लगाने का पूरा प्रयास रहा है और कुछ जगह आपको यह गुदगुदाता है। लेकिन भारत की यात्रा फ़िल्म के अनेक पड़ाव पर आपको पहले से ही आभास हो जाएगा जिसके कारण कहानी में रोमांच नाम की कोई बात नही रहती है।

              बाकी भाई की फ़िल्म है तो उनको चाहने वाले उन्हें निराश नही करते है।ये बॉक्स ऑफिस के कलेक्सन से पता चलता है।लेकिन पिछले कुछ सालों में आई फिल्मो में सलमान की सबसे कमजोर फ़िल्म है। बाकी आप देख कर उसमें अपने लायक कुछ देखे।

Sunday 12 May 2019

अबकी बार...किसकी सरकार

चुनाव जारी है। कही भाग-भाग के लोग मत का दान कर रहे है तो कही दान का नाम से ही भय खा रहे है। दिल्ली वाले इस भय से ज्यादा ग्रसित दिख रहे है ।आज छठवें चरण में लगता है दिल्ली की पीढ़ी लिखी जनता शायद चुनाव को बेमतलब की कवायद समझता है।

               वैसे भी दिल्ली वालों को पता है कि कही पर कितना भी मतदान करे....सरकार तो दिल्ली में ही बननी तय है। फिर इस कर्कश सूर्य के ताप से बच कर ही रहा जाए.....खैर...
सोचा अब अंतिम चरण में सिर्फ़ 59 सीटे ही बच गई है । सो अब दावे और प्रतिदावे का दौर जारी है।बाकी 23 मई को पता ही चल जाएगा कि जनता ने किसके साथ न्याय किया और किसके साथ अन्याय...। चोर ने चोर-चोर का शोर मचाया या चौकिदार ही चोर निकला इसपर फैसला अब हो रखा है।जनता अवश्य न्याय करेगी....आखिर जनता ही तो जनार्दन है....।

              23 मई खास तो होगा। इतिहास में यह दिन बेंजामिन फ्रेंकलिन के द्वारा "बाय-फोकल" के आविष्कार के लिए दर्ज है। आप उस बाई-फोकल लेंस से आने वाले 23 मई को देखेंगे तो कैसे दशा और दिशा दिखेगा। आखिर दूर और नजदीक दोनों देखने का सामर्थ्य है इसमें। वैसे कही पढ़ रहा था कि 23 मई को हिटलर का भी अंत हुआ था।वैसे हर ओर एक हिटलर तो है ही...??फिर अंत किसका..?

             किन्तु फिर भी देश के इतिहास में फिर से एक लोकतांत्रिक सरकार के गठन की घटनाक्रम अंकित हो जाएगा। संविधान के भावना से छेड़छाड़ , जनता की अवमानना, असहिष्णुता गाथा पर कुछ समय के लिए कौमा लग जायेगा। विजयी नेता जनता के विवेक और उनमें भरोसे के लिए धर्म और जात-पात के बंधन से ऊपर उठकर देश के विकास में अपना अमूल्य वोट देने के लिए बधाई दे रहे होंगे।अच्छे दिन आये या नही आये अच्छे दिन लाने के मंसूबो पर कोई संदेह नही करने के लिए जनता विजयी दल की ओर से फिर से धन्यवाद के पात्र बनेगे...।

                लेकिन इसी बीच  कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, पत्रकार , आर्थिक विशेषज्ञ, प्रगतिशीलता के वाहक साहित्यकार वही दूसरी ओर इसे पुनः अप्रत्याशित कह कर नए जनादेश की अवहेलना तो नही करेंगे,लेकिन नए शब्द गढ़ कर जनता के विवेक पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लगा रहे होंगे। 

                       सीटों की लड़ाई में उलझे विचारधारा का मार्ग जो भी लेकिन जनता वोट देके सरकार बनाने का मार्ग तो बना ही देती है, इसलिए आप जनता के विवेक पर कोई प्रश्न चिन्ह नही लगा सकते । सरकार तो साफ-साफ बनती दिख रही हैं लेकिन किसकी ....? मैंने तो बता दिया...अब आप ही बताये.....।

Sunday 5 May 2019

राजनीति और सेवा

            चुनाव का मौसम है  नेताजी हर चौक-चौराहे पर मिल जाते है।तो आज एक नेताजी से मुलाकात हो गई। नेता जी काफी आश्वस्त लग रहे थे। मुस्कुराते हुए एक नुक्कड़ पर बैठे थे..अब चर्चा चाय पर थी या न्याय पर कह नही सकते ..लेकिन थोड़ी बहुत चर्चा शुरू हो गई।अब चुनाव है तो चर्चा राजनीति की ही होगी...लेकिन मेरे द्वारा एक दो बार राजनीति शब्द का प्रयोग करते ही थोड़ा गंभीर हो गए और छूटते ही कहने लगे- आप व्यर्थ में राजनीति  ...राजनोति शब्द को दुहराए जा रहे है।
देखिये सारी बात "राज" से शुरू होती है और "राज" पर ही खत्म होती है। बाकी रही नीति की बाते तो वो तो बनती और बिगड़ती रहती है। जनता के काम आई तो नीति और नही आई तो अनीति, बहुत सीधी बात है। इसलिए चुनाव में हम राजनीति करने के लिए खड़े नही होते बल्कि सिर्फ राज करने के लिए। आश्चर्य से उनका मुँह ताकते हुए कहा तो फिर क्या आप जनता की सेवा के लिए वोट नही मांग रहे है और  फिर राजनीतिक पार्टियां क्यो कहते है? नेताजी थोड़े ईमानदार है सो फिर थोड़े गंभीरता से बोलने लगे-
  देखिये शब्दो मे उलझने से निहितार्थ नही निकलते..। अब आपने राजनीति की कौन सी परिभाषा पढ़ा है ये तो आप जाने लेकिन मुझे तो ये दो परिभाषा ही पता है-
           लासवेल के अनुसार- ‘‘राजनीति  का अभीष्ट  है कि कौन क्या कब और कैसे प्राप्त करता है।’’  या फिर
           रॉबर्ट ए. डहन कहते हैं- ‘‘किसी भी राजनीति व्यवस्था में शक्ति, शासन अथवा सत्ता का बड़ा महत्व है।’’ 
             ये दोनों बड़े विद्वान रहे है। दोनों के परिभाषा में कही सेवा का कोई जिक्र है क्या..? और आप जो बार-बार राजनीति-राजनीति रट  लगा रखे है न उसमे भी राज्य है..और राज्य होगा तो राजा होगा ही न...औऱ राजा होगा तो राज ही करेगा। सेवा करना है तो मंदिर के पुजारी बन जाये या किसी धर्म के धर्म गुरु और भगवान कि सेवा करे। इंसान तो कर्म करने के लिए ही पैदा हुआ ।आप न जाने कहाँ से सेवा ले लाये ...? मैं कोई राजनीति शास्त्र तो पढ़ा नही है। इसपर कुछ बोला नही। नेताजी बोलना जारी रखे और कहने लगे -तभी तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहा है -  "  कोउ नृप होई हमै का हानि " ऐसे ही तो नही कहा होगा न। कुछ न कुछ सोच कर ही लिखा होगा...और एक आप है कि सेवा...सेवा की रट लगा रखे है।
मतलब ये पार्टिया जनता की सेवा के लिए नही बल्कि राज करने के तैयार होता है..?
ही...ही...ही..उन्होंने दांत निपोर कर कहाँ- आप भी बड़े भोले है। राज-भाव और सेवा-भाव में आपको कोई समानता दिखता है? क्या ये दोनों आपको समानार्थी शब्द दिखते है।
मैने कहा - हां.. समानार्थी तो शायद नही है।
               नेताजी ने फिर कहा- तो फिर  राजनीति में आप सेवा को क्यो जबरदस्ती घुसेड़ रहे है...?चुनाव सिर्फ राज पाने के लिए ही लड़े जाते है। उसमें नीति, अनीति, विनती, मनौती,फिरौती ये सब उसको प्राप्त करने के निमित मात्र हैं। अंतिम ध्येय तो राज करना ही है।
लेकिन हम तो समझते थे नेता लोग तो सेवा करने राजनीति करने आते है।
नेताजी ने कहा कि अच्छा आप क्या करते है..?
मैंने कहा- सरकारी नौकरी में हूं।
तो नेताजी ने कहा हमलोग भी यही समझते है कि सरकारी नौकरी में भी लोग सेवा करने आते है...लेकिन हमें तो ऐसा नही लगा।
           अब नेताजी थेडे सीरियस हो गए-कहने लगे देखिये आजकल लोग अपने माँ-बाप की सेवा बिना स्वार्थ के नही करते। रिश्तेदार और आस पड़ोस को जरूरत पड़ने पर मुँह चुराकर निकल लेते। तो नेता कोई मंगल ग्रह से आते है भाई। वो भी आपकी तरह यही से है। अब कुछ लोग सरकारी नौकरी ढूंढते है तो हम जैसे कुछ अपनी नौकरी राजनीति में ढूंढते है..आपको तो बस बार  परीक्षा पास करना होता है और हमे हर पांच साल में पर्चा देना पड़ता हौ। बस फर्क इतना ही है और कुछ नही...समझे कि नही..??ही..ही...ही..।।

Saturday 4 May 2019

फोनी का प्रस्थान ..

तुलसीदास जी सुन्दरकाण्ड मे कहते है:-

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ।।

फोनी अब अपने चरम से गरज कर  कलिंगनगर पर छा गया और लगता था उन्नचासो प्रकार के वायु ने यह अपना डेरा डाल दिया । अब यहां हरि का प्रेरणा था या कुछ और...कह नही सकते।  वायु का वेग लग रहा जैसे सभी को उड़ा कर ले जाने के लिए आतुर है।

किंतु इस तूफान में जहां कुछ पेड़ अपनी जड़ से उखड़ गए वही ये आम अपने अपने डालियो से जुड़े रहने के लिए जद्दोजहद में लगा रहा। प्रकृति अपने संहार की प्रवृति के साथ जहां तांडव नृत्य करता रहा  ,वही उसकी कृति अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही थी। फिर उद्भव और संहार दोनों प्रकृति की ही लीला है तो फिर "कर्म कर्म प्रधान विश्व रची रखा " के अनुसार ये आम भी अपनी टहनी से लिपटे रहने में संघर्षरत रहा।

       अब  इसकी जड़ उखड़ने तक अपने तने के अस्तिव पर भरोसा करता रहा और फिर फोनी के आघात से विलगाव होने से बच ही गया। वैसे भी अपने जड़ से जुड़े रहने में जो भरोसा करते है उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह जल्द नही लगता....है कि नही??

     

Saturday 26 January 2019

गणतंत्र दिवस की सुभकामनाये

आप स्वतंत्र है कि आप अपने गणतंत्र पर कई प्रश्न चिन्ह लगा सकते है....??? यह एक कारण अपने आप में आपको बधाई का पात्र बनाता है....।
 बेशक आप व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को आप अपने इच्छा अनुरूप नहीं पाकर मायूस भी हो सकते है। आस्था और स्वाभिमान के घर्षण से उठे ताप आपको अंदर तक धधका रहा हो ...ये भी हो सकता है। अपेक्षाओ के किसी भी स्तर से असंतुष्ट होने के कई कारण आप गिना सकते है। चूकते रोजगार के अवसर और महंगाई के तले लिलती जिंदगी से भी  निराश होने के भरपूर वजह सभी के पास है। किसानों के आत्म हत्या से लेकर संसाधनों के असुन्तलित वितरण पर आप क्षोभ जता सकते है।  अनगिनित कारण है जिस पर आप अपने इर्द गिर्द मायूसी की परिछाई से खुद को घिरे हुए देख सकते है।
        लेकिन सिर्फ एक वजह काफी है आपके मुस्कुराने के लिए की आप एक समृद्ध लोकतंत्र के नागरिक है। आप खुश हो सकते है कि आप प्रश्न करने के लिए स्वतंत्र है और आप खुद पर हंस भी सकते है कि आपके दिल में जितने भी शंका के बादल घर कर रखा है उसमें हम सभी का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूप में इस बादल के सृजन योगदान तो रहता ही है। खैर फिर भी ये तसल्ली तो दे ही सकते है कि अपेक्षाओ का संसार रचने की पूरी स्वतंत्रता तो आखिर है.....।
          आप एक बार पुनः मुस्कुरा सकते है कि गणतंत्र के 70वे वर्षगाँठ में गण और तंत्र के बीच के रिश्ते पर कही कोई विरोधभास तो नहीं है....? समझ के विकसित होने में देशप्रेम की निष्ठां से सरोबार होकर आस्था के कई पायदानों से चढ़ते हुए कब मुठ्ठी भर सामूहिक चेतना देश के कई भागों को अपनी इच्छा से  अवचेतन कर देने में नहीं झिझकता है ....इस विकसित भाव पर भी प्रसन्न हो सकते है।.इस  गणतंत्र के निरपेक्ष रूप पर अभिमान करने के सभी के पास अपने कारन है।
   अतः पुनः आप सभी को 70वे गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई......।

Tuesday 15 January 2019

उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक

                      पिछली फिल्म "केदारनाथ"देखते समय "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" का ट्रेलर देख ये निश्चित था कि इसे देखना है।क्योंकि फ़िल्म की कहानी का विषय वस्तु ही कुछ ऐसा है कि वो पहली नजर से ही आपको आकर्षित करने की क्षमता रखता है।किंतु दिन और समय निश्चित नही था। क्योंकि हमारे दिन की निश्चिन्तता पर अनिश्चिन्तता के बादल सदैव भ्रमण करते रहते है।खैर

        वैसे तो हर किसी के फ़िल्म देखने का नजरिया और पसंद व्यक्तिगत होता है।लेकिन अच्छे और घटिया का लेबल जहाँ बॉक्स ऑफिस का निर्धारण करता है वही समीक्षकों की राय भी काफी मांयने रखता है। मेरा अपना मानना है कि यह फ़िल्म किसी को पसंद आएगी तो किसी को बहुत ।लेकिन अगर मैं सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो यह फ़िल्म धमाकेदार और मनोरंजक है। 

               फ़िल्म अपनी पहली ही शॉट से आकर्षित करता है, जहाँ उत्तर-पूर्व के जंगलों का फिल्मांकन बैक ग्राउंड संगीत के साथ आपको बांध लेता है।जैसा कि नाम से ही इसकी कहानी जाहिर है।किंतु निर्देशक ने पूर्व के घटनाक्रम को एक सूत्र में पिरोते हुए कुल पांच अध्यायों में घटनाक्रम को फ़िल्मता है और कही से भी कोई सूत्र इन अध्यायों में आपको खलेगा नही। सारे घटनाक्रम फ़िल्म ने समाचार और कहानी के रूप में ऐसे पिरोये हुए है कि वो आपके सामने तैरने लगेंगे।

          ऐसे फिल्मो के स्क्रीनप्ले में भावनाओ के विभिन्न रंगों दर्शाने की गुंजाइश कम होती है। फिर आप अगर इसको जबरदस्ती शामिल करते है तो यह बोझिल बनाने के अलावा कुछ और नही करता। इसलिए युद्ध की पृष्ठभूमि पर "बॉर्डर" को छोड़ हाल के वर्षों में और कोई दूसरी फिल्म ने ऐसा कोई छाप नही छोड़ा। न ही बॉक्स ऑफिस पर और न ही समीक्षकों की नजर में। इस रूप में अगर देखे तो "उड़ी-द सर्जीकल स्ट्राइक" ने अपना लक्ष्य और नजरिया साफ रखा। निर्देशक आदित्य धर ने बेशक कहानी के घटनाओं को जोड़ने में जो एक कलात्मक कल्पनाशीलता लिया होगा वो कही से भी आपको खलेगा नही। चाहे मुख्य किरदार की घरेलू वजह से दिल्ली पोस्टिंग हो या फिर कुछ दृश्य राजनैतिक परिदृश्यों पर हो।लेकिन आपको अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नही दिखेगा। फ़िल्म शुरुआत से ही निर्देशक के गिरफ्त में रहता है और वो कही से भी भटकते नही दिखते है। निर्देशक क्या दिखाना चाहता है और उन कहानी को कैसे पिरोना है ये भी स्पष्ट है। शायद स्क्रीनप्ले और निर्देशन दोनों आदित्य धीर का है,इसलिए वो क्या चाहते है उनको पहले से स्पष्ट है। इस प्रकार की एक्शन पृष्टभूमि जिसका क्षेत्रीय भूभाग का आधार कश्मीर  हो तो समझिए फ़िल्म के सफल और असफलता में सिनेमेटोग्राफर की कैमरे के पीछे भूमिका अहम होती है। कई बार सिर्फ घूमते कैमरे कहानी को कैसे कहते है ,वो आपको इस फ़िल्म में देखने को मिलेगा। इस फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर मितेश मीरचंदानी ने फिर से एक बार दिखाया कि फ़िल्म "नीरजा" के लिए फ़िल्म फेयर का बेस्ट सिनेमेटोग्राफर अवार्ड उनको ऐसे ही नही दिया गया था। ऐसे भी उनका मानना है कि " यदि कहानी की मांग दृश्य की प्रमुखता है, तब तो वो केंद्र में है नही तो उनका काम कहानी का पूरक है  और यह काम दर्शकों का ध्यान दृश्य की ओर सिर्फ खींच कर नही किया जा सकता है।"

        जहां तक इस फ़िल्म के कलाकार और अभिनय की बात है तो सभी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।वैसे मुख्य रूप से शुरू से अंत तक विकी कौशल छाये हुए है और अभिनय की गहराई का इसी से पता चलता है कि किसी भी दृश्य में वो आपको अभिनय करते हुए नही लगेंगे ।इससे पूर्व फ़िल्म राजी इनका मैंने देखा था उसमें एक पाकिस्तानी सेना के रूप में रम जाना और अब मेजर विहान सिंह शेरगिल के रोल में, फिर दो अलग चरित्र में जब आपको कोई सामंजस्य नही दिखेगा तो आप समझ जाएं कि उनके अभिनय में कितनी गहराई है। फ़िल्म "संजू" और उससे पूर्व "विककी डोनर" में उनके अभिनय को समीक्षकों ने सराहा है।वैसे मैने ये दोनों फ़िल्म देखी नही इसलिए कुछ कहना मुश्किल है।अन्य कलाकारों में मोहित रैना को अच्छा स्पेस दिया गया है और मोहित मेजर करण के रूप में जंचे भी है। इससे पूर्व टी वी धारावाहिक "देवो के देव महादेव" में मुख्य भूमिका निभाने वाले मोहित रैना के महादेव वाले मुस्कान भी इसमें आपको नजर आएंगे। बाकी यामी गौतम और कीर्ति कुलकर्णी भी आपको प्रभावित करेगा।परेश रावल तो खैर परेश रावल ही है तो उनके विषय मे क्या कहा जाय, वो आपको अजित डोभाल के समकक्ष रोल में दिखेंगे। वैसे प्रधानमंत्री के रूप में रजित कपूर काफी मंजे कलाकार है।क्योंकि इनको जब दूरदर्शन पर "व्योमकेश बक्शी" धारावाहिक प्रसारित होता था तभी से देख रहा हूँ। बाकी आप देख के आकलन करे।

                  इस फ़िल्म की सबसे खूबी ये है कि ये देशभक्ति और देशप्रेम पर लंबे चौडे भाषण नही देता है। एक सैनिक की हृदय- भावना, मानवीय-संवेदना,मानसिक द्वंद को बहुत सहजता से दर्शकों के सामने रख देता है।कर्तव्य के प्रति समर्पण विभिन्न रूपो में शायद हर कोई रखता हो लेकिन उस जिजीविषा को सिर्फ एक सैनिक ही जीता है जो यह जानता है कि जहां ऐसे हर क्षण काल के आगोश में खेल कर जीवन प्रकाश का पताका फैलाया जाता है।और सब जानते समझते यह खेल आसान नही है। फिर मेजर शेरगिल के शब्दों में "कई बार जितने के लिए सैनिक के शौर्य और पराक्रम से ज्यादा सैनिक के जज्बातों की होती है।"

                       अब अंत मे हर बातों में राजनैतिक तड़का लगाने  की परिपाटी जो आज कल चला हुआ है उससे यह फ़िल्म भी अछूता नही है। सीमा विहीन विश्व की कल्पना के इतर अगर आप वर्तमान में है, चाहे कितना भी उदारवादी क्यो न हो तो भी आप देशविहीन नही हो सकते । तो फिर वर्तमान की सीमा और संप्रभुता को खुद के विचारों से चुनौती देने से पूर्व एक बार इस फ़िल्म को देखे और विचार करे कि यह भारतीय सेना का शौर्य गाथा का फिल्मांकन है या फिर कोई दरबारी बंदन।।

Monday 31 December 2018

नववर्ष की शुभकामनाएं ---


            गणनाओ के चक्रिक क्रम में प्रवेश का भान होते हुए भी  हम पुनः दुहराव की अनवरत प्रक्रिया के संग बदलते तिथी से नव के आगमन का भरोसा और आशान्वित हर्ष से खुद को लबरेज कर लेते है।अपनी गति और ताल पर थिरकते हुए एक पूर्ण चक्र का उत्सव खगोलीय पिंड की अनवरत कर्म मीमांसा का भाग है या उसी पथ पर दुहराव की प्रक्रिया में पथ का अनुसरण भी किसी प्रकार का नूतन-प्रस्फुटन है ...? स्वयं का नजरिया विरोधाभास के कई आयामो से  छिटकते हुए भी संभवतः नूतन परिकल्पना के संग ताद्य्यतम्य बनाना ही समय-सम्मत प्रतीत होता है..?

       विज्ञान में दर्शन का समावेश और दर्शन के साथ विज्ञान का सामंजस्य के बीच वर्तमान का यू ही गुजरते जाना भविष्य के लिए हर क्षण आशाओ के क्षद्म संचार से इतर कुछ भी नजर नही आता है। मन की अपनी गति और क्रम है,लेकिन विश्वास और चेतना के धुरी पर घूमते हुए कैसे उस विलगाव की गलियो में भटकने लगती है, जहां मानव समिष्टि के तमाम तम का वास होता दिखता है और उस स्याह गलियो में बेचैनियों से टकराते हुए कैसे एक दूसरे को रौंदते हुए पग की असीमित रफ्तार सामुदायिक रफ्तार की उद्घोषणा के प्रश्नवाचक गलियो से न गुजरकर सिर्फ उन राहो पर बढ़ती चली जा रही है ,जहां ऐसे किसी भो द्वंद से उसे जूझना न पड़े।

        फिर भी ऐसा तो है कि दिन और रात की उसी घूर्णन गति को पहचानते और जानते हुए भी निशा के प्रहरकाल में भी भास्कर का पूर्वोदय मन के कोने में दबा होता है। उस विश्वास का अनवरत सृजन तम के गहराते पल के साथ और गहराता जाता है। पारिस्थिकी वातावरण में फैले अंधकार का साया अवश्य ही दृष्टिपटल को बाधित करता हो, लेकिन मन के कोने में दबे विश्वास की उस प्रकाशपुंज को बाधित नही कर पाता है, जिसकी अरुणोदय की लालिमा का विश्वास सहज भाव से हृदय में  संचरित होता रहता है।

               अतः मात्र आंकड़ो में जुड़ता एक और अंक का सृजन नव वर्ष का आगमन नही है। वस्तुतः यह आगमन उस विश्वास का है जो सूर्य के प्रथम किरण के संग कमल के खिलने सा मानव मन भी अभिलाषा से संचित हो  प्रफ्फुलित होता है।यह सृजन है उस आशा का जहाँ प्रकृति की वसन्तोआगमन सी सूखे टहनियों पर नव पल्लव आच्छादित हो जाता है , जिस भरोसे को धारण कर सभी प्रतीक्षारत रहते है। यह दिन है स्वप्न द्रष्टाओं के उस भरोसे का जो अब भी शोषित, कुठित, दमित,विलगित और स्वयं के अस्तित्व से अपरिचित और तृस्कारित मानव के संग मानव रूप में देखने की जिजीविषा का सिंहावलोकन की अभिलाषा संजोए राह देखते है। यह उस राह पर पड़ने वाला वह नव-रश्मि है जिसमे समिष्टि में व्याप्त किसी भी वर्ग भेद को अपनी प्रकाश से सम रूप में आलोकित कर सके, नव वर्ष उस आशा के संचार का आगमन है। नव वर्ष उस भरोसे के सृजन का दिन है जहाँ प्रतिदिन परस्पर अविश्वास की गहरी होती खाई को विश्वास की मिट्टी से समतल करने के विश्वास का प्रस्फुटन होता है।यह उन सपनों के सृजन का पल है जहाँ पुष्प वाटिका में हर कली को स्वयं के इच्छा अनुरूप प्रकृति सम्मत खिलने का अधिकार हो। कोई एक तो दिन हो जहां सभ्यताओं के रंजिस वर्चस्व में स्वयं से परास्त मानव मन सामूहिक रूप से स्वयं का विजय उद्घोष कर सके, शायद नव वर्ष वही एक दिन है।
         विमाओं सी उद्दीप्त असंख्य विचारों के अनवरत प्राकट्य और अवसान के मध्य नव वर्ष के प्रथम पुंज सभी के मष्तिष्क तंतुओ को इस प्रकार से आलोकित करे कि सामूहिक समिष्टि के निर्बाध विकास और सह-अस्तित्व की धारणाओं का पोषण कर सके उस भाव का जागृत होना शायद नव वर्ष का आगमन है।
             
सूर्य संवेदना पुष्पे:, दीप्ति कारुण्यगंधने ।
लब्ध्वा शुभम् नववर्षेअस्मिन् कुर्यात्सर्वस्य मंगलम् ॥

 .        जिस तरह सूर्य प्रकाश देता है, पुष्प देता है, संवेदना देता है और हमें दया भाव सिखाता है उसी तरह यह नव वर्ष हमें हर पल ज्ञान दे और हमारा हर दिन, हर पल मंगलमय हो ।
                    आशा और विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष 2019 की हार्दिक मंगल कामनाएं और सुभकामनाये।। 

Tuesday 18 September 2018

बिग बॉस में जुगलबंदी

                 शायद 83 का वर्ष रहा होगा। घर मे नया-नया टेपरिकोर्ड ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराया । तब तक बगल के घर मे ग्रामोफोन पर गाने सुनने से ज्यादा उसके डिस्क के ऊपर कुत्ते को ग्रामोफोन में गाने की तस्वीर आकर्षित करता था। खैर...। नए टेपरिकोर्ड के संग उसके कैसेट स्वभाविक थे। टी-सीरीज का उदय हो चुका था। प्राम्भिक रूप से बस इतना ध्यान है कि मुकेश के गाये रामचरितमानस के कैसेट बजते थे। फिल्मी गाने गिने चुने थे। इसी बीच भजन गंगा के केसेट ने बजना शुरू कर दिया और ठुमक चलत राम चन्द्र के साथ ही अनूप जलोटा का नाम पैजनिया की भांति बजने लगा। फिर तो शायद ही ऐसा होगा कि कोई नया भजन का एलबम घर नही आया हो। आवाज की सात्विकता का प्रभाव ऐसा था कि उनके गाये गजल पर भी भजन के ही भाव सुनने में आता था। भजन संध्या सुपरहिट हो चुका था। समय के धार के साथ अनूप जलोटा कही किनारे लग गए। 

                  अब वर्षो बाद अनूप जलोटा जसलीन के संग बिग बॉस में दिखे है। बार-बार उनका गाया भजन "श्याम पिया मोहे रंग दे चुनरिया" गूंज रहा है। शायद उनके कीर्तन का ही प्रताप है कि "बिग बॉस" ने अपने घर मे "विशेष रिश्ते" के डोर के साथ अनूप जलोटा संग जसलीन को आमंत्रित कर दिया। अब देखे की प्रेम-चुनर का रंग  उतरता है या कब बिग बॉस का घर छूटता है। "कलर" ने अपने इस घर मे कई रंग भरे है। स्वभाविक है प्रेम का रंग ही सभी को नजर आ रहे है। तभी तो दोनों छह गए है। देखिए अब इस घर मे दोनो की जुगलबंदी में कौन सा राग निकलता है।


Wednesday 5 September 2018

रुपये की लीला...

                     रुपया आजकल रोज गिर रहा है। कुछ चैनल इसपर विशेष चिंतित है और कुछ डॉलर के मुकाबले भाव बताकर चुप हो जाते है। अब तक के इतिहास में ऐसा नही हुआ है। फिर कोई भी इतिहास बनाने वाली घटना को ऐसे नकारत्मक भाव मे प्रस्तुत करना इनकी मानसिकता को दर्शाता है। रोज-रोज ऐसे थॉडे ही न होता है। हम तो इसी बात पर खुश है कि ईन ऐतिहासिक घटनाक्रम के गवाह हम भी बने है। खैर....।।  साथ ही साथ ये भी सुनने में आया है... हो सकता है अफवाह हो ....कि जिन्होंने रुपये के चाल पर विशेष नजर रखा है  उनके ऊपर इनकम टैक्स वालो की भी विशेष नजर है।
                      मूझे लग रहा है कि आर्थिक नीतियों के सूत्रधार ने कुछ नए सूत्र खोजे है। भले अब तक कुछ लोग इसे महज कागज का एक टुकड़ा न मान इसके अवमूल्यन को राष्ट्र का अवमूल्यन मानते रहे। लेकिन वो विचार भी भला कोई विचार है जो कि स्थिर और दृढ़ रहे। मांग में तरलता का सिद्धांत अर्थशास्त्र में  काफी प्रमुख है और जब सबकुछ अर्थशास्त्र  से प्रेरित है तो विचारो पर उसका प्रभाव तो स्वभाविक है। इसलिए अब लुढ़कते रुपये में शायद नया दर्शन हो।
                       जिस प्रकार से काला धन जमा करने में सभी प्रेरित थे और नॉटबंदी के बाद भी ज्यादातर बच निकले, तो फिर ये रुपये गिर रहे है या जानबूझकर गिराया जा रहा है ...कुछ कहना मुश्किल है। बेशक आप गिरते रुपये को देख ये धारणा बना रहे हो कि सरकार रुपये को संभाल नही पा रही है। लेकिन मुझे लगता है कि अब कुछ नए नीति का सूत्रपात हुआ है कि जब तक आपका रुपये से मोह भंग नही होता तब तक इसका लुढ़कना जारी रहेगा।
                       आपको दुखी और निराश होने की जरूरत नहीं है । कुछ डॉलर पॉकेट में आ जाये फिर देखिए कैसे लुढ़कते रुपये को देख दिल खुश होता है। वैसे भी रुपये को हाथ का मैल ही कहते रहे है और इस मैल को रगड़ रगड़ कर साफ कर ले नही तो भावी योजना में अभी तो सिर्फ रुपया लुढ़क रहा है। हो सकता है कही लुढ़कते- लुढ़कते गायब ही न हो जाय...क्या पता..?

Thursday 30 August 2018

जंगल मे मारीच

कुछ शोर और क्रंदन है,
शहर के कोलाहल में
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में
जंगलो की सरसराहट है।
वो चिंतित और बैचैन है
अपनी "ड्राइंग रूम" में
की अब पलाश की ताप से
शहर क्यो जल रहा है ?
व्यवस्था साँप की तरह फुफकारता तो है
लेकिन प्रकृति के इन दुलारो को
विष-पान किसने कराया है ?
लंबी-लंबी गाड़ियों से रौंदते
इन झोपड़ियों में पहुंच कर
यहाँ के जंगलों में
ये जहर किसने घोला है?
मतलबों के बाजार में
कब कौन खरीदार बन
व्यापार करने लगे, कहना मुश्किल है ।
चेहरे पर नकाब कोई न कोई
हर किसी ने लगा रखा है
फिर व्यवस्था के संग विरोध
या फिर विरोध की व्यवस्था...?
इसलिए तो अब तक
इन जंगलो में मारीच घूमते है
वो हमको और हम उनको छलने मेंलगे रहते है ।।

Monday 27 August 2018

नीलगिरी की गोद मे ...

"नीलगिरी' नाम काफी सुना सा है और इस नाम के कौंधते ही नजरो के सामने दक्षिण की नीलगिरी पहाड़ियों की श्रीखला तैरने लगता है । जहां "ऊंटी" हरी भरी वादियों के बीच अपने खूबसूरती के लिए विख्यात है।

                 किन्तु वर्तमान जिस "नीलगिरी" में मैं यायावरी कर रहा हूं यह  ओड़िसा के बालेश्वर जिले में है।बालासोर ही बालेश्वर है और बालेश्वर ही बालासोर...। इसको भारतीय रेल ने स्टेशन की पट्टिका के हिंदी और अंग्रेजी की वर्तनी में स्पष्ट कर दिया।बालासोर जिला देश के पूर्वी तट बंगाल की खाड़ी पर स्थित है और यहां से लगभग 20 की मि की चांदीपुर स्थित है। जो  भारतीय थलसेना  की एकीकृत परीक्षण रेंज के लिए विख्यात है।इस रेंज से कई परमाणु सक्षम बैलिस्टिक प्रक्षेपस्त्रो का परीक्षण हो चुका है।

           बालासोर से कोई 20 की मि राज्य हाई-वे 5 पर जंगलो के बीच पहाड़ी की तलहटी में नैसर्गिक सौंदर्य के बीच प्राचीन काल से नीलगिरी ने अब तक लगता है ऐसे ही संजोये रखा है। जो किसी भी मायने में किसी प्रषिद्ध पर्यटन स्थल से कम नही है । इसकी जड़ प्रागैतिहासिक काल से जुड़ी हुई हैऔर पांचवी शतब्दी से इसके राज्यगत इतिहास में दर्ज है। अपनी राज्य की वजूद को नीलगिरी ब्रिटिश शासन में भी बचाये रखा। तो फिर आप समझ गए होंगे कि लगभग 564 देशी रियासत में "नीलगिरी" भी ओडिशा के 26 "प्रिंसली स्टेट"  में एक रियासत था। जो कि आजादी के बाद 1949 में भारत गणराज्य में शामिल हुए। आपको इन यादों से जुड़ी उन काल की राजसी निशानी के तौर पर "नीलगिरी राजबाटी" अब भी मौजूद है। जो कि उस शासन में निर्मित जगन्नाथ मंदिर से बिल्कुल बगल में है।धार्मिक दृष्टिकोण से "पंचलिंगेश्वर महादेव" की अपने आप मे एकमात्र इस प्रकार का विख्यात मंदिर है।

             कण-कण में बिखरे महादेव को मंदिर में देखने जाने से उपयुक्त इन पहाड़ियों के भ्रमण हमे लगा। क्योंकि घड़ी की सुई की रफ्तार बता रही थी कि समय पर्याप्त नही है। पहाड़ी के ऊपर कुछ दूर चढ़ते ही पुरातन पर नवीनता की झलक दिख गई। जहां रास्ता बाधित था और डी आर डी ओ ने इससे ऊपर अपने प्रभुत्व को स्थापित कर रखा है। जिसकी नीव पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने रखा था ऐसी सूचना मौजूद एक शिलापट बता रहा है।

                   रोड के दोनों ओर लंबवत "नीलगिरी" यानी यूकेलिप्टस का पेड़ बरबस काश्मीर में रास्ते को आच्छादित करती चिनार के पेड़ की ओर बरबस ध्यान खींच ले जाता है। सौंदर्य की तुलनात्मक विवेचना तो व्यर्थ का प्रलाप है क्यो असीम की सीमा निर्धारण आपकी चक्षु-क्षमता का पर्याय है तो फिर जैसी जिसके निगाहे...। इन जंगलो में भ्रमण सिर्फ आंखों को आकर्षित तो करती है, लेकिन इन पहाड़ियों में बसे गांव और लोग की वर्तमान की हकीकत शासन के कई दावों की तस्दीक नही करता है।  विरोधाभासी जीवन के यथार्थ में दोहित प्रकृति से सुख तलाशते लोगो को जहां एक ओर यहां की रमणीय प्रकृति आकर्षित करती है । वही अब तक प्रकृति को संजो कर रखे लोगो की जीवन यापन का संघर्ष कलम की पैनापन को और तीखा करने के अवसर भी देता है।




                किन्तु मैं इन सबसे पड़े नीलगिरी की इन खूबसूरत वादियों में ज्यादा से ज्यादा भटकना चाहता हूं कि देखे आखिर नीरवता में बिखरी मोती की चमक  इतना आकर्षित कैसे करता  है...?

Wednesday 15 August 2018

कुछ हट के ....।

मैं सोचता हूँ
कुछ ऐसा ही जेहन में उभरता है,
जब उमंग और उत्साह से लबरेज
इस एक दिन ...शायद हाँ
इस एक दिन
देश प्रेम सार्वजनिक होकर उभरता है।
और जब लहराता है तो
कई जोड़ी आंखे उसे निहारते
वही कही आसमान की
अनंत गहराई में खो जाती है शायद ।
शायद हाँ मेरी भी निगाहे
उस विस्तृत अम्बर में कुछ खिंची हुई
रेखाओ को ढूंढती है
विस्तृत नभ में खोता हुआ
जैसे खुद में सिमटता जाता हूं।
इस एक दिन...शायद हाँ
इस एक दिन
बंधन की कुछ डोर जेहन में
जैसे खुद बांधने लगता है ।
वह उमंग और उत्साह
कुछ मलिन हो चेहरे पर उभरता है
एक-एक कर कई बंधन उभरते है
खुले आसमान में लहराते हुए
आज स्वतंत्र और परतंत्र की
कई गांठे मन मन मे
खुलते और बंधते है।
मैं बस इतना सोच पाता हूं
जैसे तिरंगा बेफिक्र
आसमान में लहरा रहा है
वैसे क्या हम कभी
स्वतंत्र हो इसी धरती पर
कभी विचर पाएंगे ??

       आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

Friday 3 August 2018

कुल्लड़ में चाय ....

बात ईसा पूर्व की है...लगभग 2700 वर्ष...। चीन के सम्राट के हाथ मे गर्म पानी का प्याला था और मचलती हवाओ ने कुछ पत्तो को अपने संग लाया और उसे सम्राट के प्याले में डुबो दिया। पर सूखे पत्ते की गुस्ताखियां देख जब तक सम्राट अपने चेहरे का रंग बदलता गर्म पानी ने अपना रंगत बदल दिया और वाष्प ने अपने संग विशेष खुसबू से सम्राट को आनंदित कर दिया। एक चुस्की पीते ही वह समझ गया कि वह भविष्य के लिए एक और पेय पहचान लिया है और फिर चीन से पूरी दुनिया में फैल गया।
             भारत मे जैसे हर चीजे अंग्रेजो की देन मानी जाती है वैसे ही यह पेय भी उन्ही का देन माना जाता है....उससे पूर्व असमी जो पत्तियों को खौला कर पेय बनाते थे उसे क्या कहा जाय पता नही....?जब तक आप किसी भी चीज का व्यवसायिक दोहन नही करते है तो मुफ्त तो मुफ्त होता है। तो अंग्रेजो ने इसका व्यवसायिक दोहन कर इसके साथ अपना नाम जोड़ लिया ।
           उस समय इसे जो भी कहते पता नही....लेकिन आजकल इसे "चाय" कहते है। बाकी तो आप सभी  इससे परिचित है। इसमें खास कुछ नही है.....बस आज सुबह-सुबह कुल्लड़ में चाय चाय मिल गई..।। अब कुल्लड़ धीरे-धीरे विलुप्त ही होता जा रहा है। एक बार तत्कालीन रेल मंत्री ने 2004 में ट्रेन में मिट्टी के कुल्लड़ चलाया भी लेकिन कुछ सालों बाद मंत्रीजी का राजनैतिक जीवन मिट्टी में मिल गया और आगे चलकर रेल ने भी इस मिट्टी के प्याले से किनारा कर लिया। खैर.....।।
           आज सुबह-सुबह कुल्लड़ देख चाय नही जैसे कुल्लड़ ने अपनी ओर खींच लिया। प्याले में चाय भरते ही चाय ने अपनी तासीर बदली और मिट्टी की सौंधी खुसबू चाय के साथ मिलकर उसके स्वाद को एक अलग ही रंग दे दिया हैं।जो आपको किसी और कप में नही मिल सकता।
           जब धरती ही स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्षरत दिख रही हो तो कुल्लड़ का क्या कहना..?अतः सुबह-सुबह जब सिंधु घाटी सभ्यता से  यात्रा कर पहुची कुल्लड़ फिर आपके हाथ लग जाये और जो सभ्यता के मध्याह्न से प्रचलित पेय से लबालब भरा हुआ हो तो आप चाय के हर चुस्की के साथ सभ्यताओ के बदलते जायके को महसूस करने की कोशिश कर सकते है।इस एक प्याले में जब जीवन के मूलभूत पंच तत्व -थल(कुल्लड़) ,जल (चाय)  पावक( इसकी गर्माहट ), गगन  के तले ,समीरा(चाय का वाष्प) जब एक-एक चुस्की के साथ आप के अंदर समाहित होता है।तो आप महसूस कर सकते है कि  एक प्याला कुल्लड़  से भरा चाय आपको कितने ऊर्जा  से ओतप्रोत कर देता है। 
       जगह और स्थान कोई भी हो मिट्टी में बिखरे आनंद को ढूंढे ...नाहक क्षणों को मिट्टी में न मिलाये।सभ्यता के आदिम रूप जहां बिखरे है वही सभ्यता के भविष्य का रूप है..ये आप समझ ले।तो फिर एक प्याला चाय कुल्लड़ में मिल जाये तो भूत और भविष्य एक साथ एकाकार हो जाते है और ये सर्वोत्तम आनंद का क्षण है....एक कप कुल्लड़ में चाय... है कि नही??
              अंत मे हरिवंश राय बच्चन की "प्याला" शीर्षक कविता की दो पंक्तियां-
            मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
            क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
    

Friday 8 June 2018

क्या जल रहा है...?

नीरो ...हाँ मैन सुना है....
कही इतिहास दोहरा तो नही रहा...।काल और सीमा से परे जाकर..।
जब हमने उससे द्वेष और ईर्ष्या किया तब ...जब प्रेम से भरी उसके प्रति दीवानगी देखी तब...। हाँ ...कुछ ऐसा ही है ...वो घृणा से उत्त्पन्न असृप्यता के उद्द्बोध से  उन अनगिनत सारो से एकरूप हो एक उत्कट प्रेम में आराध्य है...।ऐसा पहले हुआ क्या...?
   हाँ फिर अब नीरो तो नीरो है....।
तो क्या नीरो अब भी वही है...? क्या वाकई उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम एक रक्तिम गंध फैल गई है..? सांसो में क्या नीरो के बांसुरी से निकली राग कही एकरक्त पिपासा की उत्तकंठा जगाती है...? जल क्या रहा है...? वो रिस गए रेसे जो वाकई इतने कमजोर हो चले कि छिद्र से बस घाव और मवाद रिसते दिखते या फिर सदियो की वो समरसता की तरल भाव जिसको भरते रहने का भार बस तराजू की एक तुला सा किसी एक को...क्या यह जलकर वाष्पीकृत हो रहा है...?
   हाँ... लगता है ...नीरो बासुरी यही कही बजा रहा है...। कैसे धुन पर बिलबिलाए -बौखलाए जो इक्कठे नाच रहे...कौन है ये...?नीरो की धुन में ऐसी क्या खास ...सुनकर एक साथ सिमट गये...।
    जल क्या रहा है....रोम तो सदियो गुजर गए...फिर जलने कि दुर्गन्ध ...नही..नही..मैं तो कहूंगा सुंगंध है...यही कही यज्ञ का हवन कुंड है और लगता है कई मान्यताये एक -एक कर जल रहे हैं..।
     जब ऐसे ही शुभ मुहूर्त का यज्ञ काल चल रहा है तो नीरो बासुरी न बजाए तो क्या करे...?
   कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान क्या श्रीकृष्ण ने बासुरी का परित्याग कर दिया था...??

Monday 2 April 2018

रात की रुमानियत


-------------------------------------

जैसे जैसे रात भींग रही है। एक ख़ामोशी की पतली चादर पसारती जा रही है। टिमटिमाते तारे जैसे  उसे देखकर अपनी आँखे खोलता और बंद करता है। बीच बीच में सड़कों पर दौड़ती गाडी की रौशनी जैसे पुरे क्षमता से इन अंधरो को ललकारती है और इनके गुजरते ही फिर वही साया मुस्कुराते हुए बिखर जाती है। 

     दिन का कोहराम  कभी दिन को देखने का मौका नहीं देता। लेकिन रात की पसरी हुई काली साया बड़ी स्थिरता से , ठहर कर, रुक कर, मंद मंद मुस्कुरा कर जैसे स्वयं की ओर आकर्षित करती है। यह भूलकर की खुली आँखों से अँधेरे में कुछ नहीं दिखता ,आप अँधेरी रात को देखे । इसके आंचल में दूर तलक बिखरे रूमानी सौंदर्य की अनकही छवि आपको अपने मोहपाश में जकड लेगी।

         दिन के उजालो में भागते भागते हम थक कर इतने बिखर जाते है कि कभी रात अंधियारे में बिखरे मासूमियत का एहसास ही नहीं कर पाते। खुली आँखे भी अँधेरे में पसरी सौन्दर्य पर मोहित होती है क्योंकि उसकी तिलिस्मी आभा अंधियारे के साथ और निखरती है । लेकिन इस अंधियारे में छिपे तिलिस्म और रूमानी खूबसूरती का आनंद  तभी ले सकते है जब आप रात की गोद में बैठ कर कभी उसे निहार भी लिया करे।
       

Tuesday 27 March 2018

वक्त ......बस यूँ ही ....


जिंदगी की व्यस्तता वक्त को कोसती हुई चलती है। और वक्त ...वो क्या ....वो तो अपनी रफ़्तार में है। कोई फर्क उसे नहीं पड़ता...सतत...बिना रुके....अनवरत अपनी उसी रफ़्तार में जिसमे प्रकृति ने उसका सृजन करते समय उसे तय कर दिया। बिना किसी क्षोभ  ...किसी द्वेष ...कोई राग .....कोई अनुराग ..सभी से निर्लिप्त भाव से होकर बस अपनी गति पर सतत कायम है। मतलब बिलकुल स्पष्ट है....वक्त हमारे अनुकूल स्वयं की लय में कोई बदलाव तो लाने से रहा फिर .....फिर हमें स्वयं को वक्त कर ताल के साथ ही कदम ताल करना होगा।
     जब आप इन्ही व्यस्त वक्त में खुद को थोड़ा परिवर्तित कर....उसी वक्त से...अपने लिए कुछ वक्त चुरा लेते और उसके साथ लयबद्ध हो जाते है तो आप  उन लहरो और थपेड़ो में छुपी हुई जीवन के मधुरतम तरंग से कंपित हो खुद में उस ऊर्जा का सृजन करते जो ऊर्जा अनवरत इस समुन्दर की लहरें तट से बार बार टकराने के बाद भी अपने तट की ओर उन्मुख होना नहीं छोड़ती है...अपनी नियति की पुनः टकराकर इसी समुन्दर में विलीन हो जाना है। उसी उत्साह उसी जोश से भरकर अपने में असीम ऊर्जा का संचार कर फिर से दुगुने जोश के साथ निकल पड़ती है।
          इसी थपेड़े को झेलते हुए फिर से उस उत्साह का संचार कर हमें तट की ओर उन्मुख होना ही पड़ता है । यह जानते हुए भी की जिस ओर जीवन की लहर हमें ले जाने को आतुर है उस तट पर टकराकर इसे विलीन ही होना है। फिर भी यही जीवन नियति है और इसके लिए इसी नियत वक्त में से आपको कुछ वक्त चुराना होगा क्योंकि प्रकृति की यही नियति है।
      वक्त अपने से विच्छेद होकर कोई वक्त नहीं देता।

Thursday 8 March 2018

ढहते बूत

विचार उत्क्रमित हो रहा है....मूर्तियां विध्वंसित..। जय और पराजय के उद्वेग के आरोह और अवरोह में  क्षणिक मतैक्य के वशीभूत हो बेचारे निर्जीव शिलाओं को ढाह रहे या ईर्ष्या के बृहद अदृश्य बुत को रच कर उसमे  जान फूंक रहे है। जिसको भविष्य में ढाहने में शायद सक्षम भी न हो पाए।  इस चिंगारी से अब कौन कौन  आक्रांत होगा कहना मुश्किल है। मूढ़ के बल शिला से टकराकर जाने किस ऊर्जा में परिवर्तित हो। क्रिया और प्रतिक्रिया बराबर और विपरीत होती है , तथ्य प्रत्यक्ष है। हम गत की  ग्लानि से बहुत जल्द आहात होने को अभ्यस्त रहे है। इन आहत होते दिलो में जाने कैसे निर्जीव बुत  ने अपने पैरों से आहट कर दिया। विचारो का प्रवाह अगर इन शिलाओं के बुत से ही होते तो वर्तमान को इस अवसर से गुजरने को शायद ही मिलता। फिर भी लगता तो ऐसा ही है कि जैसे इन ध्वंस होती मूर्तियों से संभावनाओं  के कई गुबार भी बहुतो के लिए फुट सकते है। फिर इसे तलाशने में  कोई भला खुद को पीछे क्यों रहे...?  इस पर किसे कोफ़्त होना चाहिए ....इन बेजान पत्थर की मूर्तियों को या हाड़मांसधारी जड़वत होती इंसानी प्रवृति को ? समय चक्र खुद को दोहराता रहता है। टूटते इन शिलाओं की मूर्ति अगर भविष्य में इंसानी आस्थाओं और विचार को ही तोड़ने लगे तो संभव है कि आज का वर्तमान कल के मिटटी के ढेर तले न दब जाय। जहाँ खुदाई करने पर भी आक्रोश के खंडहर ही नजर आये। इसलिए बेहद जरुरी है कि मूर्त और अमूर्त विचारो का प्रवाह इन निर्जीव बूतों के सदृश्य न मान सजीव मानवीय मूल्यों को ही पनपने दे जहाँ ये मूर्तिया सिर्फ भुत के अवशेष रहे और भविष्य प्रवाहमान। की मूर्ति अगर भविष्य में इंसानी आस्थाओं और विचार को ही तोड़ने लगे तो संभव है कि आज का वर्तमान कल के मिटटी के ढेर तले न दब जाय। जहाँ खुदाई करने पर भी आक्रोश के खंडहर ही नजर आये। इसलिए बेहद जरुरी है कि मूर्त और अमूर्त विचारो का प्रवाह इन निर्जीव बूतों के सदृश्य न मान सजीव मानवीय मूल्यों को ही पनपने दे जहाँ ये मूर्तिया सिर्फ भुत के अवशेष रहे और भविष्य प्रवाहमान।

Monday 5 March 2018

लोकतंत्र और सरकार


           ऐसा करना क्या ठीक रहेगा ? जनता हमारे बारे में क्या धरना बनाएगी?
            क्यों ...ऐसा क्यों सोच रहे हो? यही तो तुमलोगो में कमी है। हमेशा सकारात्मक सोचो। जैसा सोचोगे वैसा ही होगा। 
             लेकिन हमें तो जनता ने वोट नहीं दिया न ...।
           तो क्या यहाँ कोई वोट से सरकार बनता है। सीट चाहिए सीट....। और जो जीत आये है वो हमारे साथ आ रहे है तो इसमें हम क्या करे? देखो दो राज्यो में हमने जनता का दिल जीता और एक में जीते हुए उम्मीदवार का दिल जीत लिया...इसमें क्या गलत है। 
              किन्तु ये तो लोकतंत्र का मजाक उड़ाना हुआ न...।
देखो तुम ज्यादा सोच रहे हो ....लोक और तंत्र दो अलग अलग बाते है। तुम्हे पता है दोनों को क्यों एक साथ मिला कर लोकतंत्र क्यों बना है? ताकि जब लोक है तो तंत्र की फीलिंग न हो और जब तंत्र काम करने लगे तो लोक की फीलिंग न हो। इसलिए जब अभी हमारा तंत्र काम कर रहा है तो लोक की फीलिंग का ज्यादा ध्यान नहीं देना है। 
               देखो उनको उनके साथ कितने लोक है लेकिन उनका तंत्र ठीक काम नहीं कर रहा है। तभी तो सरकार बनाने से चूक रहे है।अब ये तो भावनाओ का ख्याल भी रखना पड़ता है नहीं तो बेचारी जनता दुबारा चुनाव की चक्की में पिसेगी या नहीं। हम जनता के हित के सुभेक्षु है...तभी तो ये सब कर रहे है।
       हाँ ...सो तो है....।
               तो फिर इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देना है कि जनता ने किसे वोट दिया है। बल्कि इस पर ध्यान रखना है कि सरकार कैसे बनाया जाय। बिलकुल अर्जुन जैसे चिड़िया की आँख को लक्ष्य करता है वैसे ही हम कुर्सी पर नजर रखते है।
 तुम नए कार्यकर्त्ता के साथ यही समस्या है। तुमलोग अपना फोकस साफ़ नहीं रखते । अरे भाई अब जनता को इतना फुर्सत है कि वो आके देखे किसे किसे वोट दिया है और कौन सरकार बना रहा है। इस बेचारे जनता पर इतना बोझ डालना ठीक नहीं। जब सार्वजानिक जीवन में आये हो तो कुछ तो जनता का तुम ख्याल रखो। बेचारी जनता ऐसे ही कितने उलझनों में घिरी रहती है..। और एक तुम हो की उसपर सरकार तक बनाने की बोझ डालना चाहते । बेचारे ने वोट दे दिया ये क्या कम है...। 
                और ध्यान रखो जब जनता की सेवा के लिए आये हो तो हमेशा सकारात्मक सोचो। ये देखो जो इतने दिनों तक सरकार में रहने के बाद अपनी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाया वो जनता की आर्थिक स्थिति क्या खाक सुधरेगा। इसलिए हम पहले इस राज्य में जो भी जीत कर आये है उनकी स्थिति में सुधार लाएंगे और उनकी स्थिति जब सुधरेगी तो राज्य की स्थिति सुधरेगी और फिर देश....। है कि नहीं....।
               देखो...तुम्हे तो पता ही है पढ़ा होगा अभी अपना लोकतंत्र पूरा "मैच्युर" नहीं हुआ है। हम तो ऐसा लोकतंत्र बनाना चाहते है जहाँ "लोक" ऐसा बना दो जो "तंत्र" के बारे न सोचें या फिर "तंत्र" ऐसा कर दो जो "लोक" को सोचने ही न दे...समझे न..।
           वो अपने नेता के दूरदर्शीपन को देख थोड़ा आश्चर्यचकित और कुछ कुछ दिग्भ्रमित लग रहा है। आखिर राजनीति के क्षेत्र में इसी चुनाव में जो पाँव रखा है।

Tuesday 6 February 2018

सर्व पकोड़ा रोजगार अभियान

            चाय की चुस्कियों में चार साल निकल गए....। लेकिन चाय की चुस्कियों से ही कही क्षुदा मिटती है क्या .....? सबने एसिडिटी का शिकायत करना शुरू किया । लेकिन ये तो अड़े हुए है....चाय से काम चल जाएगा । किंतु एक तो राजस्थान में वैसे ही गर्मी ज्यादा होता है सो ज्यादा की चर्चा से एसिडिटी का होना स्व्भविक था सो तीन बेचारे बीमार होकर मैदान से बाहर हो गए।
                    सामने 2019 है ....चाय के साथ साथ अब पकोड़े भी परोसने को तैयार है। युवा भारत में पकोड़े के विभिन्न ब्रांड अम्बेडरो से रु बरु कराया जायेगा। बेरोजगारी की काट सिलकांन वैली से खोजते हुए कहा स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया के रास्ते होते हुए...गांव के चौराहे पर आकर रुक गया। पकोड़े के ठेले जहाँ देश में लोकतान्त्रिक समाजवाद के अवधारणा से पूर्व से ही लगता आ रहा है। क्योंकि भले ही नेहरू जी आधुनिक भारत के मंदिर कितने भी बना दिए ...लेकिन स्वप्न्न द्रष्टा को पता था कि उस मंदिर के बाहर भक्त गण अपने पूजा के दौरान भी इन चाय और पकोड़े के ठेले के प्रति समर्पित रहेंगे।
                 कुछ बुनियादी भाव और धारणाओं के प्रति हमारा नकारात्मक सोच ही हमें आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। आखिर पकोड़े के प्रति उलाहना का भाव ये दिखा रहा है कि इसके पर कैपिटा इनकम को जानने को लेकर हमारे अर्थशास्त्री कोई प्रयास न कर सिर्फ लकीर पिट कर चलते रहे है।
                    अब जाकर कोई युग द्रष्टा ने इसके महत्व को रेखांकित किया है तो भी हम उपहास करने में लगे हुए है। सोचिये ये पकोड़े की ठेले गली गली घर घर होंगे और सुबह सुबह ही चारो ओर से मिर्ची के पकोड़े, बेसन के पकोड़े, प्याज के पकोड़े नाना प्रकार की खुसबू से आपका सुबह खुशनुमा होगा। नए नए नौजवान विभिन्न पोशाकों में अपने क्षमतानुसार इन ठेलों पर ऑन लाइन पकोड़े के आर्डर लेते मिलेंगे। सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों को सरकार ढूंढते रहेंगे लेकिन किसी भी नौजवान को पकोड़े तलने से फुर्सत नहीं होगी। बेरोजगारी कब की पोलियो उन्मूलन की तरह उन्मूल हो जायेगा। सोचिये किया दृश्य होंगे। सरकार के सोच में सहायक बनिए और एक युगान्तकारी रोजगार उन्मूलन की घटना का गवाह...सर्व पकोड़ा रोजगार अभियान के लिए सभी सहयोग दे।

Tuesday 2 January 2018

नव वर्ष मंगलमय हो......

          सब कुछ यथावत रहते हुए भी , खुश होने के कारण तलाश करते रहे। बेशक आप इस बात से वाकिफ है कि कैलेंडर पर सिर्फ वर्ष नए अंकित होंगे , लेकिन वो स्याही और पेपर यथावत जो चलते आ रहे है वही रहेंगे। फिर भी एकरसता के मंझधार में फसने से बेहतर है कि इन लम्हो को ज्वार की भांति दिलो में उठने दे और कुछ नहीं तो वर्ष की पहली किरण में  मंद बयार के साथ पसरी हुई ज़मीन पर ओंस के बूंदों पर झिलमिलाती किरणे प्रिज्म सदृश्य कई रंग बिखेर रहा हो उसको देख आनंदित होने की कोशिश करे। कही दूर मध्यम और ऊँची तान में कोई चिड़िया चहक रही हो तो दो मिनट रूक कर उसे मन के राग के साथ आंदोलित होने दे। उससे छिटकने वाली राग को बाढ्य नहीं अंतर्मन के संसार में गूँजने दे।
                        सिमटती दुनिया के एकरुपिय निखार में बहुत कुछ समतल हो गया है जहाँ ख़ुशी और अवसाद के बीच में स्पष्ट फर्क करने में भी अब कठनाई है।
हर वक्त याथर्थ के धरातल को ही टटोलना जरुरी नहीं है, कुछ पल ऐसे ही दिनों के बहाने कल्पना के सृजनलोक में विचरण कीजिये। 
नव वर्ष मंगलमय हो.......

Wednesday 8 November 2017

अनुराग-विराग

        उसकी उलझने मन में उठते भावो को सुलझाने की नहीं थी।
        वो तो और उलझना चाहती थी इस हद तक की  उन उलझनों की गाँठ साँसों के आरोह अवरोह के अंतरजाल के संग अंत तक इसके टूटने पर भी न छूटे। वह तृष्णा और वितृष्णा के मध्य उठने वाले लहर पर सवार होकर न जाने दिल की कितनी गहराइयो में डूबती और उतरती रहती थी। अथाह समंदर की इन गहराइयो में उसे अपने मन में छिपे मोती की तलाश कभी कभी रेगिस्तान में जल की बूंदों की मृगतृष्णा की भांति एक अनंत यात्रा थी। जिसमे ठहराव तो था लेकिन अंत नहीं, जिश्म बोझिल तो होता मगर मन की उमंग पूर्ववत की भांति हिलोडे लेते रहती। उसने तो सीधी पगडण्डी की कभी कल्पना भी नहीं की। यह तो उसका मन जनता था कि यह पगडण्डी इतनी वक्र रेखाओं का समागम है  जहा उसके राह अदृश्य से ही नजर आते थे। 
        किंतु वह यह भी जानती थी की यह अदृश्य तरंग जो बार बार उसे एक मोह पाश में जकड रखा उसको न जाने कितने हाथियों के बल के साथ उसे आकर्षित करती है। वह बिलकुल अपने से परे हो गई है ...खुद का मन खुद से परे होकर अजनबी हो जाना । खुद को ढूंढे या फिर..?
मन और काया पर यह अदृश्य एकाधिकार आखिर कैसे किसी ने कर लिया ।
          आखिर इतना निर्बल कैसे महसूस कर रही है? शुष्कता के निर्झर मन में ये सोता कहा से फूटा है? शब्दो का कोई भी समागम उसके कानों को स्वर लहरी सा क्यों कर्ण प्रिय हो रहा है।
        जितना ही इन उलझनों में खोती जाती उसका मन उतना ही आसमान की उन असीम में विचरने लगता जहा श्वेत धवल प्रकास सा निश्छल प्रेम न जाने कई रंगों में बिखरा हुआ है।  फिर वह इन्ही रंगों में उलझ कर रह जाती। 
       उसका मन इन भावों से ऐसे तैर रहा है जैसे कमल के पत्ते पर जल की बुँदे। बिलकुल इधर से उधर छलकते हुए। वह स्थिर होना चाहती पर चाह कर भी हो नहीं पाती। निश्छल मन में भावो के बुँदे यूँ ही तैरते रहते है।जितना भी चाहो स्थिर करना कठिन होता है। इन भावो को स्थिर करने के लिए क्या निश्छल मन  को समझदारी के खुरदुरेपन से कुरेद दिया जाय।          इन उलझनों के झूले में बैठ उसका मन न जाने कितनी ऊँचाई पर जाके हौले हौले उसी जगह मायूस हो स्थिर हो जाती जहा से मन पंख फैलता।
        कभी कभी खुद से अपरचित हो स्वयं की तलाश में जाने कहाँ तक यूँ ही अनवरत विचरण करती रही। द्वन्द के अनुराग और विराग ...? स्वयं से अनुराग या स्वयं से विराग..? अनुत्तरित प्रश्न के इन मकड़ जाल पर लिपट कर और भी न जाने कितने जाल उलझाती जाती..। जैसे 
         वो इन उलझनों से बाहर नहीं आना चाहती ...जाने क्यों?

Monday 9 October 2017

आज के निहितार्थ का द्वन्द

                  हम चिंतित नहीं होते,  ये कुछ अक्षरों के ज्ञान का सगल है कि बहुत अनुत्पादक होने के बाद भी हम कुछ ऐसा सोचने को विवश होते है जिसका सरोकार जितना हमसे होता है उतना ही समाज से। बहुउदेशिय सरोकार की धार जब एकल सम्मुख बहने लगे और सहयोगी धार का रुख मुड़ जाए या आप ये समझिए की एकांगी राह की और उन्मुख होने लगे तो स्वयं का अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा ही देती है । अपने मुख्य धारा की बहाव को भी उसी मात्रा में प्रभावित करती है। उसके शुष्क होते भाव अगर बैचैनी की छाया से ग्रसित नहीं कर रहा है तो भविष्य के अंधकार को भांपने में हम सक्षम नहीं हो पा रहे है।
       वर्तमान हमेशा से भूत और भविष्य के अन्तर्विरोधों से द्वन्द करता आया है। सभ्यता का विकास जिस काल चक्र की धुरी पर अग्रसर है वह उसका आदि और अंत वैचारिक सभ्यता के उदय के साथ से ही विवादस्पद भविष्य की रुपरेखा तय करता आया है।  या फिर इस मतैक्य के साथ एक सीधी रेखा के समुख्ख गमनशील विचार आखिर कैसे वस्तुनिष्ठ होकर भावनाओ की अहमियत दरकिनार कर श्याम गुफा की अग्रसर होता जा रहा है।
      यह भी अहम है कि आखिर भविष्य जब भावरहित हो संबंधों के बीच बंधनों को ढूंढने का प्रयास करे तो एक घर की छत से लटक रहे पंखे दीवारों की सोभा बढ़ाते कलात्मक रौशनी के बल्व या ड्राइंग रूम की सोभा बढ़ाते खूबसूरत कुर्सी और गद्देदार सोफे का संबंध उस घर से जितना सरोकार रखता है । इंसानी सरोकार भी उतने में सिमट कर कही रह न जाए। 
         कितना विरोधभास है कि सभ्यता के चरम की ओर गमनशील समाज जब विज्ञानं के सतत विकास के साथ सुख सुविधाओं के नए आयाम को ढूंढ रहा है । वही दूसरी और इंसान इंसानी चेतना के नित्य विकृत होते जा रहे चेहरे से आए दिन रु आबरू होता आ रहा है। इस सिमटते दुनिया में जब भाव और विचार जिसकी कोई वैज्ञानिक आयाम में इकाई नहीं है बढ़ती दुरियो का निर्धारण आखिर कैसे किया जाय? वर्तमान की अटखेलियां कई कर्कश ध्वनियों का उत्सर्जन कर रही है उस शोर को ख़ारिज कर आखिर हम कौन सा राह तय करना चाहते है? या फिर आत्मकेंद्रित भाव जहाँ स्व का निर्धारण भी असमंजस की स्थिति पैदा कर रहा है वहां समुच्चय बोध का निर्धारण भी आखिर किस प्रकार से किया जाय ? पारस्परिक सहयोग और प्रेम का जितना सरोकार वैश्विक स्तर पर किये जाने का प्रयास हो रहा है, उतने ही स्तरों पर एकांगी चेष्टा की धार यह प्रदर्शित कर रहा है कि बुनियादी स्तर पर भावो का विरूपण ऐसा हो गया है कि सामूहिक रूप से भविष्य का क्रन्दन कौन सुनेगा इसका सरोकार अब मतलब की बात नहीं है।
    फिर बिडम्बना तो ये भी है कि हम इकाइयों में जन्म से बटना शुरू हो जाते है। परिवार की इकाई, समाज की इकाई, नगर की इकाई, जिले की इकाई, राज्य की इकाई और फिर देश होते हुए विश्व की इकाई। इन मध्य में पड़ने वाले वैश्विक स्तर पर छितराये जाती, धर्म, सेक्ट इत्यादि को आप छोड़ भी दे तो। अर्थात विकास के क्रम में बटते इकाई जब बाटते बाटते इस स्तर पर आ जाए जहाँ अस्तित्व की तलाश का प्रयास होने लगे फिर भविष्य पर नजर लगाना जरूरी हो जाता है।
     वर्तमान के वैज्ञानिक रोबोट में भी भाव और संवेदना के संचार में अध्ययनरत है और इंसान में जैसे ये गुण शुष्क होता जा रहा है। भाव भंगिमाओं के नए नए आवरण चढ़ा जब हम एक दूसरे से ही अजनबी सा व्यवहार करने लग रहे है।समझ की अवधारणा बदलती जा रही हो फिर समझना तो दुःसकर होगा ही। फिर ये भी समझना होगा की आखिर हम समझना क्या चाहते है? क्या मत मतान्तर के नाम पर स्वजन निर्मूल का भाव धरा जाय या सर्वश्रेष्ठ की नस्ल की स्थापना के लिए अन्य का निर्बाध आघात किया जाय अपनी समकालीन श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए प्रतिरोधी भाव धर भूतकाल की भांति पलभर में एक समूह और स्थान को संज्ञा शून्य कर दिया जाय?
    वर्तमान इन रोगों से ग्रस्त है चाहे वो किसी भी इकाई और स्तर पर हो। मानवीय मष्तिष्क के इन संवेदनात्मक तंतुओ का जिस प्रकार से क्रमिक क्षय हो रहा है। वहां आने वाली पीढ़ी उसको ढूंढने का सिर्फ प्रयास ही करता रहेगा बाकी समाज,धर्म,देश-राष्ट्र कही अपने होने के निहतार्थ पर स्वयं से प्रश्न करता हुआ किसी जीवाश्म की तरह परिवतिर्त हो सिसकियाँ बहा रही होगी। 

Tuesday 15 August 2017

शुभकामनये ..........

हम एक अभिसप्त समय के मूक दर्शक बनते जा रहे है। बहुत सारे सवाल जब शूल की भांति मन के हर नस में अपनी पीड़ा उड़ेलना चाहता है, हम दार्शनिकता का भाव भर विचार शृंखला से टकराना छोड़ कही कोने में दुबकने  ज्यादा आकर्षित होने लगते है । किंतु दम तो हर कोने में घुट रहा है, अंतर इतना ही है कि उस विषैली फुफकार जो लीलने के लिए तैयार बैठा है, कब उसके साँसों में घुल कर स्वयं को विषाक्त करता जा रहा है, इस क्षमता को पड़खने की मष्तिष्क की तंतू कब की विकलांग हो गई है, शायद हम में से बहुतो को आभास भी नहीं हो पा रहा है।
        घटनाओं का दौर प्रारब्ध की सुनियोजित कर्म क्रिया का प्रतिफल मान स्वीकार करने की भाव में सब बंधे से लग रहे है। नहीं तो कान्हा के धरती पर कई कान्हा यूँ ही कालिया नाग का ग्रास बन कर विलुप्त हो जाए और फिर भी विचारो की टकराहट बौद्धिक विकास के चरम पर परिलक्षित करने में विवेकवान और विवेकहीन के अंतर को पाट दे तो वर्तमान के अंधेरे को शायद इस चका चौंध भरी प्रकाश में देखना संभव भी नहीं है।
      युगों को पाटते जब वर्तमान का कलयुग और आधुनिक काल के स्वतंत्रता के इकहत्तरवे वर्ष में जब आदिम युग की संभावनाओं और उसका प्रहसन ऐसे ही चल रहा हो जहा जीवन और मृत्यु के बीच बात और विचार के अंतर को समझने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है तो , किस विचारो के उन्नत पक्ष पर हम गौरवान्वित हो शंका से भरे कई सशंकित प्रश्न यूँ ही हवा में तैर रही है।
        सच भ्रामक होता जा रहा है और हकीकत को देखने की क्षमता का क्रमश ह्रास, फिर आगे क्या...?
शायद हम आगे भी यूँ ही विभिन्न भाव भंगिमा के साथ सच को और दृढ होकर अस्वीकार करने की क्षमता को शायद विकसित करने का प्रयास करेंगे ......क्योंकि बहुत कुछ होने के बावजूद भी पता नहीं क्यों लगता है कि शायद कुछ हुआ नहीं...। सभी अब भी अपने अपने प्रारब्ध से ही खेल रहे है।
      किन्तु विशेष अवसरों पे सुभकामनाओं की कामना शायद कुछ बदलाव लाये।
     ।।स्वतंत्रतादिवस की आप सभी को हार्दिक सुभकामना।।

Saturday 8 July 2017

स्व आलाप .....

किसी खामोश और तन्हा शाम
जब सूर्य की किरणें
समंदर के लहरो से खेलते खेलते
उस में खो जाएँगी ।
दूर दूर तक फैली
उदास सी रेत की चादर
पल पल सिसकते हुए
ओंस सी भीग जायेगी ।

फिर भी एक मधुर स्मित सी रेखा
जो अधर पे उभर जाए
अमावस की काली रात को भेदने के लिए
बस उतना ही काफी है।
कभी कभी इन चेहरों को
मष्तिष्क में उलझी नसों के परिछाई से
आजाद रहने की मोहलत तो दो।

शब्दे एहसास का भाव भर है
हकीकत की इबारत नहीं ।
सब मुस्कुराते से मुखौटे से लगते ही है
क्यों न तुम भी
एक मुस्कुराता मुखौटा ही लगा लो ।
हकीकत से टकराने की अब
न ही इच्छा है न सामर्थ्य ।।

आज नहीं तो कल
हम यूँ ही उलझेंगे जैसे
तुम अंतरात्मा की आवाज होगी
और मैं दुनिया का शोर ।
चिल्लम पों मचाएंगे एक साथ
जो प्रतिध्वनि धीरे धीरे फैलेगी चहुँ ओर
हर के लिए उसमे
अपने जीवन का संगीत दिखेगा ।
क्योंकि सुर मिलकर
आजकल एकाकार कब होते ।
कर्कश की कर्कशता में हम घुल गए
यही तो सर्वोत्तम आलाप है।।




Saturday 24 June 2017

मैं.....

जब 'मैं' , 'मैं' नहीं होता हूँ ।
तो फिर क्या ?
तो क्या मेरे अस्तित्व का विस्तृत आकाश
अनंत तक अंतहीन होता है ?
या अनंत में विलीन होता है ?
या मेरे वजूद के संगीत की सप्तक
किसी के कानों में मूर्त एकाकार होता है।
'मैं' मुक्त, साकार.. क्या निराकार भी होता है?
शायद हाँ  या ना दोनों ।
मेरे, 'मैं' के नहीं होने से,
कैसे
अनगिनत जुगनुओं सी मद्धिम
झिलमिलाती प्रकाशपुंज
अनवरत मुझ में समाहित और प्रवाहित होता है ।
ऐसा हमेशा होता तो नहीं
हाँ पर कभी कभी होता है ।
जहाँ 'मैं', स्वयं के 'मैं' से
मुक्त होकर सबो में या सभी को स्वयं में
समाहित कर विलीन हो जाता हूँ ,
और उन तस्वीरों में बिखरे
रंगों को तलाशता हूँ
जो प्रकृति प्रद्दत तीव्रता की तरंग को
अपना समझ एक दूसरे को
निगलने को आतुर दीखते है ।
मुझे औरो का , 'मैं' , न जाने क्यों
मुझे मुझ सा, खुद के, 'मैं', से
युक्त सा दीखता है ।
पर ऐसा हमेशा नहीं होता
शायद खुली आँखों से
कभी कभी हम स्वप्न्न में विचरते है ।
तब शायद मेरा 'मैं', मुझसे
त्यक्त होकर विचरता है।
यह विचरण कितना आनंद विभोर करता है
किन्तु यह स्वप्न भी स्वप्न जैसा जाने क्यों होता ?
सच में मैं
खुद के 'मैं' से, मुक्त होना चाहता हूँ
इस दिवा स्वप्न्न के स्वप्न्न में विचरण भी
अहा...कैसा आनंद!
उस आनंदवन की तलाश है ।।

Friday 23 June 2017

पारिवारिक कलह:: एक लघु दृष्टि

                        इस बदलते समय और समाज में परिवारिक कलह जैसे बहुत ही सामान्य सी घटना हो गई है। आये दिन इसके विकृत रूप का परिणाम कई शीर्षकों में अखबारों के किसी पन्ने में दर्ज होता रहता है। महानगरीय जीवनशैली में जैसे इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा ही दे रहा है। जहाँ एक दूसरे की दिल की बात को सुनने  और समझने के लिए किसी के भी पास वक्त नहीं है। एक ऐसे सुख की तलाश में सभी बेतहासा भाग रहे है जहाँ शुष्क और रेतीले सा अंत तक यह छोड़ फैला हुआ है।
                         किसी परिवार में सामान्यतः  एक कसक और  द्वन्द किसी भी बात को लेकर शुरू हो जाता है और उस संघर्ष में कई बार इंसान का पशुत्व का चेहरा उभर आता है। जो कभी कभी इस चेहरे पर हावी हो जाता है। इस द्वन्द की छटपटाहट में कैसे आपका आचरण पाशविक हो जाता है इस बिंदु पर पहुचने के लिए कई बार आप को एकांत के ठन्डे सागर में गोता लगाना  पड़ता है। जहाँ समय के साथ स्वयं के "मैं" सा कई धब्बे दिल और मन पर उभर आते है।अनन्य प्रकार के आरोहो अवरोधो के झोखे में कई गन्दगी की परत आपके मन को मैला कर देती है। जब आप दर्पण में खुद को देखते है चेहरे का प्रतिबिम्ब तो उभर आता है मगर उपके पीछे छिपे कालिख की हलकी परत भी देखने में हम समर्थ नहीं हो पाते है। कई बार हम खुद को स्वयं में ही सर्वज्ञ मान आस पड़ोस को कोई अहमियत नहीं देते। अपने दिल में चलने वाला उफान इतना होता है की और भी इसी मनोव्यथा से भी गुजर सकता है इसकी हमको रत्ती भर भी परवाह नहीं रहता है। नतीजतन जो घर आपको स्वर्गिक सुख का अनुभूति देता है वही आपको नरक की सी यातना का पर्याय लगने लगता है। फिर हम ऊपर वाले को कोसने लगाते है।हमारे मुह से दर्शन और फिलॉसफी की उक्तियां से क्षिद्रनिविशि बन अपने हमसंगिओ की गलतिया ढूढने बैठ जाते है। इस बात का हमें थोड़ा भी भान  नहीं होता की इस नारकीय अवस्था के मूल में  स्वयं का भी आचरण ही किसी न किसी रूप में जिम्मेदार है। 
                  पारिवारिक कलह कई परिवार को उसके वजूद से मिटा देता है। जहाँ कई छोटी छोटी बाते आगे चलकर नासूर का रूप ले लेता है। इस अवस्था का अगर आरम्भ देखा जाए तो कही भी उसी मूल भाव से शुरू होता है जहाँ हम एक दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगते है। यह अविश्वास पहले तो परिछाई का रूप ले मजाक के तौर पर एक दूसरे के जीवन में दखल देता है। किंतु कब यह मजाक मलिन रूप धर हमारे मष्तिष्क में कब गहन अंधकार का सृजन कर देता है इसका हमको जरा भी आभास नहीं होता है। परस्पर अविश्वास की वो परिछाई अब दिन पर दिन अनेक रूपो में  जीवन के किसी न किसी पहलु को अपने आगोश में ढकती रहती है। इसके परिछाई के पड़ने से हमारे हाव भाव के बदल जाने की प्रक्रिया को अन्य अगर हमें चेताता भी है तो अगले को ही बदल जाने को हमारा मन देखने लगता है।
                आपसी विश्वास की जड़ झूठ के छीटे से हमेशा कमजोर होता है। झूठ और किसी बात को खुद में छिपकर रखना में बहुत अंतर है। झूठ आप के मन मष्तिष्क को खुद को सच न समझ पाने की प्रवृति बढ़ता है। यह जानते हुए भी की कहा गया झूठ किसी न किसी रूप में निकलकर कभी न कभी सामने आ ही जाता है। तब उस छोटे से झूठ से कोई फर्क तो नहीं पड़ता किन्तु यह भावना का उभार अविष्वास की उस खाई की ओऱ ले जाता जो भरने की जगह और चौड़ा होता जाता है।
                     जीवन में किसी बात की अहमियत सिर्फ मुह से बोल देने भर से नहीं होता। अहमियत को हमेशा महसूस करना उसकी उपयोगिता की आदर करना उस भाव को समझना उससे कही ज्यादा होता है। कान में पड़े शब्द कानो से गूंज कर कर हवा में विलीन हो जाते है, किन्तु दिल पर बने भाव और गहरा होकर दिल को सहलाता रहता है। इसलिए किसी की  मधुर शब्दो के प्रति उल्लसित होने से ज्यादा जरुरी है की उसको  भावो को पढ़ने की चेष्टा करे। निर्मूल बातो को बार बार दुहराने से एक खतरा अगले को उस कार्य के प्रति प्रेरित हो जाने का भी होता है, क्योंकि उसे अब तक के किये अपने सकारात्मक कार्य के प्रति खुद में वितृष्णा का भाव भरने लगता है। किसी भी दम्पति को इसलिए एक दूसरे के ऊपर आवेश में ही सिर्फ व्यर्थ के आरोप लगाने से खुद में कई बार विचार करना चाहिए। सबसे बेहतर है कि जब दो पक्ष ही तैश की अवस्था में हो तो एक को अपने ऊपर काबू रखने के गंभीर प्रयास करना चाहिए।अन्यथा कलह की कालिख से पूरा परिवार अन्धकार ग्रस्त और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो सकते है।
                  जब आप इस स्थिति में हो की यह तय है कि कलह के रोज रोज घर में उत्पन्न होने के कोई न कोई कारन आ ही जाते है तो आप अपना प्राथमिकता में बदलाव ले आये। बेसक आपकी प्राथमिकता आपका पति या आपकी पत्नी हो सकती है। अगर दोनों एक दूसरे की प्राथमिकता में है तो पहली बात तो अनबन की कही कोई गुंजाइश नहीं है । जब अनबन होने लगे तो आप इस बात को महसूस करे की दोनों ने अपने अपने ढंग से अपने प्राथमिकता को दूषित किया है। अतः यह बेहतर है कि अब आप इस प्राथमिकता को बदल कर अपने प्राथमिकता में बच्चे को ले आये ताकि आप दोनों का फोकस बच्चे पर हो।
                इस आपसी कलह का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बच्चे के मन मष्तिष्क पर पड़ता है। कितनी भी विकृत परिस्थिति हो आप का प्रयास यह अवश्य होना चाहिए की बच्चे के सामने आप इसका चर्चा न करे। अन्यथा आप दोनों के प्रति बच्चे के मन में एक विलगाव पैदा होगा। क्रोध में कहे गए अकारण शब्द बच्चो के मष्तिष्क पर सदा बैठ जाएगा जिसे आप गभीर प्रयास के बाद भी नहीं मिटा ।
                      इस बात के आंकलन साफ़ बताते है कि किसी परिवार की आर्थिक स्थिति पारिवारिक कलह का कभी भी गंभीर  कारण नहीं रहा है। आज के बदलते समीकरणों में बदलती प्राथमिकताओं के साथ एक दूसरे के मनो भाव को सही ढंग से नहीं पढ़ पाने और समझने की वजह ज्यादा ही आपसी संबंधों को प्रभावित करता है। एक दूसरे को मजाक मजाक में निचा दिखने की प्रवृति, दोनों परिवारों के अहमियत का भाव, दोनों की उपयोगिता के निर्धारण में वाद विवाद, आर्थिक पक्ष में दृष्टिकोण में टकराहट, भविष्य की योजना पर विवाद इत्यादि कई कारण है जो एक दूसरे के रिश्ते के बंधन को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन प्रभावित करता है। जिसको अगर समय रहते दोनों पक्ष अनुभव नहीं कर पाते तो रिश्ते की कड़वाहट किसी भी रूप में परिणत हो जाता है। जिसका परिवार को दंश झेलना पड़ता है।
                   पति पत्नी किसी भी परिवार के धुरी होते है। दोनों की उपयोगिता परिवार के लिए अपरिहार्य है। कोई ज्यादा नहीं है और कोई कम नहीं है। इसलिए एक दूसरे की भावना को समझते हुए एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। बड़ी बातें तो दोनों पक्षो को स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है, जरुरत इस बात की होती है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के छोटी सी छोटी बात को सुने और समझे। जिससे दोनों के मन में एक दूसरे की भाव को पढ़ने और सम्मान करने के आदि हो सके। जिससे की आपका परिवार सही अर्थों में खुशहाल रहे।

Wednesday 31 May 2017

फरफराते पन्ने....

              भय का आवरण क्या सामाजिक चेतना से हट गया है? नव समाज के लोकतान्त्रिक पुरोधा और सामाजिक शास्त्र के नीति नियंता इस बदलाव को देख पा रहे है ? और यदि देख पा रहे है तो क्या जानबूझकर शुतुरमुर्ग की नियति पर चल रहे है..? दोनों ही स्थिति, वर्तमान की गंभीरता को दर्शाता है। गाँव की गलियो से निकलने वाले कच्चे रास्ते विकास की जिस गति से कंक्रीटों में बदलते जा रहे है ये संक्रमण कही मन मष्तिष्क को वैसे ही कंक्रीट तो नहीं बना रहा है? विकास की हर दहलीज लांघता आज का समाज को इतनी फुर्सत नहीं की इस बदलाव को समझने की चेष्टा करे।मनोविज्ञान की कसौटी पर मानवीय प्रवृति के बदलाव का आंकलन को विज्ञानं के कसौटी पर परखने का प्रयास हो या विज्ञानं के रास्ते इन संचेतना की बदलाव को दर्शन से समझने का प्रयास हो।वर्तमान का सच सामाजिक मानवीय व्यवहार के भावों को जोड़ने वाले तंतुओ के क्षीण होते शक्ति को दर्शाता है। जहाँ भीड़ में तब्दील होते व्यवहार किसी के प्रति किसी भी हद तक दुराग्रही हो सकता है, जो किसी भी स्तर तक गिर विक्षिप्त भाव को रह रह कर उजागर कर देता है। बात सिर्फ दिल्ली की क्यों ?  कही भी नजर दौड़ाइए इस हिंसक प्रवृति की मानसिकताएं आप चारो ओर देख सकते है।
  कट ऑफ मार्कसो की लांघती दीवारों की पीढ़ी ज्ञान की उस वास्तविक चुनौतियों को चुनौती दे रहा है, जहाँ मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के दर्शन को स्वीकार करता है।  उसके ज्ञान और विवेक में अंतर इस चुनौतीपूर्ण व्यवस्था में खुद के जद्दोजहद में मिट सा गया लगता है  । जहाँ प्रश्न किये जाने की गुंजाइश और टिप्पणी को त्वरित प्रतिक्रिया के साथ सब कुछ समय से पूर्व निपटाने का प्रयास हो रहा है। समय की अवधारणा के बदलते मायने तेज बदलती दुनिया में  सह-अस्तित्व के वैचारिक धरातल को किस तरह से बदल रहा ऐसे घटनाएं बस बानगी मात्र ही है।संवाद की एकांगी अवस्था है जहाँ सब कहने का ही प्रयास कर रहे है, सुनने की क्षमता शायद लॉप होता ज रहा है।
       कहते है मृत्यु से बढ़कर कोई सत्य नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर जीवन है। जिसके ऊपर मानव सृष्टि के उद्भव से लेकर आज तक सिर्फ और सिर्फ इस सफर के पड़ाव में मानव व्यवहार पर दर्शनों के असीमित व्यख्या है। किंतु यह  सत्य कितनी आसानी से भीड़ बन हवाओ में विचरण कर रहा है जहा जिंदगी की कीमत क्या है? शूल सा प्रश्न चुभता है और उसके लिए कही ताकने झाँकने की जरुरत नहीं है। बड़ी आसानी से हम अपने सुविधानुसार विवेचना कर आगे तेजी से कदम बढ़ाते जा रहे है। ये त्वरित चाल सिर्फ उन्ही कदमो में है जो या तो खुद को काफी आगे निकल जाने का मुगालता पाल रखे है या जिनको लगता है हम काफी पीछे छूट गए तो किसी बंदिशों से विद्रोही तेवर है। समष्टि की अवधारणा जब बंटे हुए अस्तर सी अनेक परतों में दबी कुचली सी हो और हर कोई अपने ही अस्तर को दुरुस्त करने के लिए अपने सुई और धागे का इस्तेमाल कर रहा हो, यक़ीन मानिये वो बेहद ही बदरंग होगी। हम अपने विशष्ट शैली में अवधारणा के मानदंड पर उसका विबेचना करते रहे मूल जड़ तक जाने की हमारी चेतना न हमें गवाही देता और न वर्तमान का गर्म हवा मौका। हमारा विवेक इस कदर विकेन्द्रित होता जा रहा सत्य की पुष्टि के मायने , विचार और धारा पर सवार होकर सबके सामने उभरता है ।
      बेहतर है कि इन छोटी छोटी घटनाओं को वर्तमान ढाँचे के आईने में न देखे। किसी घटनाओं के तत्कालीन कारण को सिर्फ कानून व्यवस्था और राज्य की भागीदारी की आलोचना कर आगे बढ़ते जाने की प्रवृति काफी भयानक और विकृत हो सकता है। रोग की जड़ में जाने का न कोई प्रयास है न कोई जरुरत । क्योंकि आज में जीने की हम आदि हो गए है। अंदर से सब इतने डरे सहमे है कि कल का सच्चाई मुँह बाए सामने खड़ी है और हम है "अल्टरनेटिव रास्ते" की तलाश में खानापूर्ति कर वक्त जाया करने में लगे है।
     वर्तमान का सच काफी कड़वा और घिनौना है और हम नाक और कान बंद कर आगे बढ़ने की असफल चेष्टा कर रहे। सामाजिक मान्यताओं के पुस्तक के पन्ने ऐसे हरकतों से तड़प कर फरफरा रहे है और एक एक कर बिखर रहे है। हम पन्नो को सहेजने की जगह सिर्फ जिल्द बदलने में लगे है।
      

Sunday 28 May 2017

बैगपाइपर

                एक राजा था । काफी वर्षो से राज्य कर रहा था।उसे जो राज्य की विरासत मिली थी उसने काफी मेहनत से उसे सवारने का प्रयास किया। उसका राज्य पहले की अपेक्षा काफी मजबूत भी हो गया।लोग मेहनत कर अपना रोजी रोटी भी चला रहे थे।पहले तो कुछ पडोसी राज्यो ने परेशान भी किया किन्तु जब लगा की इससे टकराना ठीक  नहीं तो अमन चैन से ही आगे बढ़ाना उचित समझा।किन्तु बीच बीच में ऐसा कुछ हरकत कर जाता की राजा और प्रजा दोनों बेचैन हो जाते। इसी में कुछ लोग जो राजा के विरोधी थे।अब राजा के खिलाफ प्रलाप जनता के बीच करने लगे। रोज रोज अब जनता के बीच जाकर राजा के विरुद्ध कोई न कोई आरोप लगा देते। जनता जो की अपने में व्यस्त रहता पहले तो अनसुना रहा,लेकिन हर रोज कुछ न कुछ सुनकर अब उसके मन में भी संदेह उठने लगा। राजा के गुप्तचर उसको इस बात की सुचना समय समय पर देते रहते किन्तु वह अपने काम में व्यस्त रहता और कुछः नहीं कहता। अब जो यह देखते तो उनके मन में भी शंका उठने लगा। हर रोज राजा के खिलाफ कोई न कोई प्रवंचना होता और राजा है कि कुछ कहता नहीं। राजदरबार और उसके मातहत को भी राजा के इस व्यवहार पर शंका होने लगा। अब कुछ लोग सोचने भी लगे कही कुछ गड़बड़ तो नहीं। आखिर राजा कुछ कहता क्यों नहीं।
              दिन बीतने लगे।धीरे धीरे प्रजा भी राजा के व्यवहार पर शंका करने लगे। अब अगर दूसरे राज्य द्वारा कुछ कर दिया जाता तो विरोधी इसके लिए अब राजा की निष्ठां पर प्रश्न उठाने लगे। जनता भी धीरे धीरे अब दैनिक कार्य कलापो से ऊपर उठ राष्ट्रभक्ति स्वाभिमान ,संस्कृति के मूल्याङ्कन में विचार विमर्श शुरू कर दिया। विरोधी ने राजा के अब तक के कार्य का मूल्यांकन करना शुरू किया। अब जनता के मन में भी शंका के कीड़े पनप चुके थे। सो उन्होंने विरोधीयो के किये जा रहे मूल्यांकन को सही मानने लगे। इसका आधार किया है और किसकी तुलना में मूल्याङ्कन है इससे अब किसी को कोई मतलब नहीं था। मन में अब जो ज्वार उठ रहे थे उसमे वास्तविकता कम और भाव ज्यादा थे। धीरे धीरे प्रजा और खिलाफ होने लगा। विरोधी के बात पर अब प्रजा यकिन  करने लगा। लोगो ने एक तरह से बिना राजपठ के उसे राजा मानने लगे।
         अब राजा को ये पता चला की जनता में उसके प्रति अविश्वास हो गया तो उसने अपने सभी दरबारियों को बुलाकर मंत्रणा करना शुरू किया। इस तरह से जब प्रजा विरोध में हो तो कितने दिन तक राज पाठ सुरक्षित रहेगा। यह सोचकर उसने यह निर्णय लिया की क्यों न विरोधी नेता को राज्य सौप दिया जाय और देखे ये राज्य की खुशहाली के लिए किया करता है। यह कहकर उसने अपने पूरे मंत्री परिषद् के साथ इस्तीफा देकर विरोधी नेता को राज्य सौपने की घोषणा कर दी।
           इस फैसले के साथ ही पूरे राज्य में ख़ुशी मि लहर फ़ैल गई। चारो ओऱ ढोल नगर बजने लगे आतिशबाजियों से पूरा राज्य गूँजने लगा। लोगो को लगा की अब मसीह आ गया और जिस स्थिति में है उससे बहुत बेहतर उनकी स्थिति हो जायेगी। विरोधी नेता ने राज्य ग्रहण के साथ ही शब्दों के सुनहरें भविष्य रच दिया।लोगो ने कहना शुरू किया कि जो इतना अच्छा बोलता और सोचता है तो कितना अच्छा काम करेगा।  उसने अपने सबसे काबिल लोगो को अपने मंत्री परिषद् में रखा ।बेसक जनता न पसंद करते हो।किन्तु अब राज्य तो उनके पास था। लोगो के आँखों में वादों के लंबे पेहरिस्त तैरने लगे। तत्परता ऐसी की लगने लगा सब कल ही पूरा हो जाएगा।
             अब राजा बनते ही उसे कुर्सी में छिपे कांटे चुभने लगे। सो वो समझ यहाँ से बाहर रहने में ही भलाई है। यह सोचकर उसने पडोसी और अन्य  देशो का भ्रमण शुरू कर दिया। जनता को भरोसा दिया की जब रिश्ते पड़ोसी के साथ मधुर होंगे तो तनाव नहीं होगा और तनाव नहीं होगा तो हम विकास पर ध्यान देंगे। फिर अपना राज्य खूब विकास करेगा। जनता ने उसकी इस सोच का दिल खोल के स्वागत किया और मगन हो सुन्दर भविष्य के सपने संजोने लगे। किन्तु कुछ दिन बीतने पर जनता को अपनी हालात में कोई सुधार नहीं नजर आया। जनता सवाल करती उससे पहले राजा कोई नया दांव खेल देता और जनता फिर ताली बजाने लगती। बीच बीच में कुछ काम जो पिछले राजा ने अधूरे छोड़ रखे थे उसके पूरा होते ही मुस्कुराकर खूब जनता का अभिवादन लेता था। किंतु जैसे ही जनता अब मूल्यांकन करती फिर से कुछ ऐसा कर देता की समर्थक ताली पीटते किन्तु जनता के हाल जस के तस थे। करते करते कुछ वर्ष बीत गए किन्तु जनता की हालत जस तस बल्कि और ख़राब होने लगी। जनता अपनी मन की बात कहना चाहता है लेकिन राजा झरोखे से अपनी मन की बात सुनाकर गायब हो जाता।
           किन्तु जनता सब कुछ के बाद अब भी खुश और मोहित है। उसे कर्म के फल का कोई मलाल नहीं है उसे पता है उसका राजा रात रात भर जगता है।खूब सोचता है और बाते करता है।सभी को अपनी मन की बात भी बताता है। किन्तु कुछ लोग अब पहले वाले राजा को ढूंढने में लगे है। लेकिन अब भी एक लंबी लाइन है जो "बैगपाइपर" के पीछे है। राजा एक नई धुन बजा देता और भीड़ पीछे पीछे होकर मदमस्त हो खूब ढोल नगारे पीटने लगता। दुखी और व्यथित लोगो के अब आवाज उसमे ग़ुम हो जाते।
         पहले वाला राजा अब भी उसी राज्य में है। जो कभी काम के बोझ से मुस्कुरा तक नहीं पाता था । अब कभी कभी जनता को देख मुस्कुरा देता है। जनता अब समझ नहीं पा रहा है कि यह राजा की नाकामयाबी देख कर मुस्कुरा रहा है या जनता की स्थिति देख कर...???

Sunday 14 May 2017

मातृ दिवस पर कुछ पंक्तियां....।।

कुछ लिखू
पर क्या लिखूं
अक्षरों की दुनिया से जाना
एक दिन तुम्हारे लिए भी है।
पर तुम मेरे लिए
सदैव से वैसे ही हो ,
अक्षरों और शब्दों से परे हो
तुम अर्थ और तात्पर्य से बड़े हो ,
क्षण,पल,अवधि की सीमा
एक दिन में कैसे समायेगा ?
मेरे निर्माण, पोषण और वर्तमान का भाव
बस एक दिन में कैसे आएगा ?
मैं एक दिन में कैसे कहूँ-क्या कह?
मैं हु तब भी तुम हो
मैं नहीं हूँ तब भी तुम हो ।
मेरी सृष्टि की रचैयित तुम
तुम ही पालनकर्ता
मेरी जीवन की धुरी तुम
तुम ही मेरे परिक्रमा की कक्षा हो ।
शब्दो की क्षमता नहीं
मेरे भाव को समेट सके
व्योम की सीमाहीन अनंत सी
कैसे तुम्हे समझ सके।
जीवन के प्यास में
अमृत की धार हो
बस और क्या कहे
संपूर्ण जीवन की सार हो।
क्या कहूँ मै ?
बहुत कुछ है पर पता नहीं
क्या कहूँ मैं ?

Saturday 15 April 2017

संतोष ...।

            झमाझम बारिश हो रही थी। पता नहीं क्यों बादल भी पुरे क्रोध से गरज रहा था। पल भर में मंदिर का परिसर जैसे खाली हो गया। कई को अंदर इसी बहाने कुछ और वक्त मिल गया।पूजा का थाल लिए लोग या तो अंदर की ओर भाग गए या कुछ ने प्रागण में बने छत के नीचे ठिकाना ढूंढा तो किसी ने अपने छाते पर भरोसा किया। महिलाएं हवा से अपनी पल्लू संभाली तो किसी ने  पूजा की थाल को इन पल्लू से ढक लिया । आखिर भगवान् को भोग लगाना है। पंडित जी अब थोड़ा इन्तजार करने लगे, क्योंकि भक्तजन तीतर बितर हो गए।
        इन सबके बीच वो लड़का अब भी मंदिर के बाहर यूँ ही खुले आसमान के नीचे खड़ा है। बारिश से पूरा बदन भींग रहा है। बदन के कपडे शरीर से लिपट अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है। पेट या पीठ पता नहीं चल रहा। एक दो ने भागते भागते उसे छत के नीचे छुपने के लिए कहा भी। लेकिन जैसे अनसुना कर वो बारिस का ही इन्तजार कर रहा था। कुछ झिरकते हुए उससे बचते निकल गए।
       उसका चेहरा किसी ताप से झुलस सा गया हो ऐसा ही दिख रहा । पानी की बूंद सर से गुजर पेट को छूते छूते जमीन में विलीन हो रहा । इस बारिश के बूंदों को पेट से लिपटते ही चेहरे से समशीतोष्ण वाष्प निकल रहा  है। ओंठो से टकराते पानी की बूंदों को जैसे गटक ही जाना चाहता है। वो अब भी वही खड़ा है।
        बारिस की बुँदे अब थमना शुरू हो गया।
 मंदिर अंदर से पंडित जी ने लगभाग चिल्लाते हुए आवाज लगाया -सभी भक्तजन अंदर आ जाए....। भगवान् के भोग का समय हो गया।
लोग निकलकर मंदिर के अंदर प्रवेश करने लगे। किसी के हाथ प्रसाद के थाल, किसी ने मिठाई का पैकेट तो कोई फल का थैला लटकाए अंदर बढ़ने लगे।
       वो अब भी वही खडा हो उन प्रसादो को गौर से देख रहा था ,एकटक निगाहे उसी पर टिकी हुई है ।बीच बीच में ओंठो पर लटके बूंदों को अब भी गटकने की कोशिश कर रहा है ।
          "शायद भगवान उससे ज्यादा भूखे है".....उसके चेहरे पर पता नहीं क्यों संतोष की हलकी परिछाई उभर आई है।

Thursday 6 April 2017

उलझे ख्वाव ....

किसी दिन अँधेरे में
चाँद की लहरों पर होकर सवार
समुन्दर की तलहटी पर
उम्मीदों की मोती चुगना ।।

किसी रात गर्म धुप से तपकर
आशाओं के फसल को
विश्वास के हसुआ से
काटने का प्रयत्न तो करना ।।

बिलकुल मुश्किल नहीं है
रोज ही तो होता है और
दफ़न हो जाते जिन्दा यूँ ही कई ख्वाव
अपने अरमानो के चिता तले ।।

दिन के उजालो में
जब अंधेरे की रौशनी छिटक जाती है
और हम देख कर भी
देख नहीं पाते या देखना नहीं चाहते ।।

लफ्फाजी के गुबार में
अपनी आकांक्षाओं का अर्थ तलाशते रहते है और
बुझते रहते हर रोज ही कई  अरमानो के दिये
दिन के उजाले में किसे दीखता है ये ?

रिस चुके आँखों में रेगिस्तान का बंजर
कहाँ दीखता किसी को
और कभी मापने की कोशिश तो करे
पुस  की रात में जठराग्नि की ताप को।।