आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
Wednesday, 28 August 2013
Monday, 26 August 2013
मै सिर्फ मै हूँ
सफ़र कितना कर लिया
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा
कितने अणुओं -परमाणुओं के
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका
तरल हो कब तक था उबला
जैसे किसी संताप से निकला
फिर भी चलता रहा अब तक
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक।
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे
सींचा है पञ्च तत्व पग में
मन का पाया विस्तार अनंत
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित
सत तत्व का सब अक्स धुल रहा जैसे
रह गया बस राख का रज जैसे
थी मुझमे असीम आकांक्षा
और था सामर्थ्य भी
अनंत व्योम को खुद में समाहित
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे
महाउद्देश्य से भटक गया ,
"हम" है अब भी कितना दूर मुझसे
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में रह गया। ।
शून्य से निकला ,भंवर में बिखरा
कितने अणुओं -परमाणुओं के
आकर्षण और विकर्षण से ठिठका
तरल हो कब तक था उबला
जैसे किसी संताप से निकला
फिर भी चलता रहा अब तक
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
जाने किस महाहेतु से।
शून्य के द्वार से ,
महा प्रलय के प्रहार तक।
है सभी का कुछ न कुछ मुझमे
सींचा है पञ्च तत्व पग में
मन का पाया विस्तार अनंत
न किंचित दूर छिटके कोई भी कण
अबाधित ,कुछ प्रायोजित
एकात्म के ही महाहेतु से।
किन्तू अब इस पड़ाव पर
निरुदेश्य सा बेचैन,दिग्भ्रमित
सत तत्व का सब अक्स धुल रहा जैसे
रह गया बस राख का रज जैसे
थी मुझमे असीम आकांक्षा
और था सामर्थ्य भी
अनंत व्योम को खुद में समाहित
या हो जाऊ उसमे विलीन।
प्रकाश पुंज अब छिटकता जैसे
महाउद्देश्य से भटक गया ,
"हम" है अब भी कितना दूर मुझसे
"मै" सिर्फ "मै" हूँ ,में रह गया। ।
Sunday, 25 August 2013
पुनरावृती ...?
समंदर के किनारे ,
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
जो आया है खुशी में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर मोह जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई इबारत की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
रेत पर बनती आकृतिया ,
कैसे लहरों के संग विलीन होकर
सागर में समां जाती है।
वो उकेरता है फिर भी,
कुछ रंग भरने की चाहत समेट नहीं पाता ,
है अन्जान नहीं की ,
लहरे फिर से आनी है ,इसको समां जाना है।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
जो आया है खुशी में उसके ,
और जो चला गया ,
दुःख में अहसास कर,
बरबस चेहरे पर निकल छा जाते।
ये आंसू है खारे ,सभी जानते है ,
पर मोह जिसे नित मानते है।
बरगद का जड़ जैसा मन,
कितना भी तोड़ो मोह से जुड़ जाते ।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
कमबख्त दिनों-दिन तक उलझे रहे ,
न बुझने पाए रसोई की ताप।
ठन्डे हो जाने पर भी ,
इन उष्ण लपटों की चाहत से ,
खुद को बचा पाते नहीं।
सब सामने है ,सब कुछ दीखता है,
रोज वही लहरों का उठाना,
और एक नई इबारत की कोशिश और टूटना।
कितना अजीब है पर
हम इसको ही दोहराते है। ।
स्वर्ग-नरक
Friday, 23 August 2013
जीवन में कविता है और कविता में जीवन।।
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