Friday, 6 September 2013

रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

जीवन के हर लघु डगर पर
उम्मीदों के बल को भर कर
है कांटे या कली कुसुम का
राहों की उस मज़बूरी पर
कभी ध्यान उसपर न रखता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

सुबह-सुबह  रवि है मुस्काए
या बैरी बादल उसे सताये
शिशिर सुबह की सर्द हवाए
या जेठ मास लू से अलसाए
उस पर मै  न कभी विचरता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

हर दिन में एक सम्पूर्ण छवि है
ब्रह्म नहीं मानव का दिन है
कितने क्षण -पल है गुजरते
उन सबका अस्तित्व अलग है
हर क्षण को जी-जीकर कर ही बढ़ता
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

        मंजिल यही कहाँ है जाना        
प्रारब्ध नहीं बस कर्म निभाना  
हर  कदम की महिमा न्यारी 
जैसे बिनु  दिन  वर्ष बेचारी
कदम जमा  कर आगे बढता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।।

पूर्ण जीवन एक महासमर है
हर दिन का संग्राम अलग है
अमोघ अस्त्र है पास न कोई 
डटें रहना ही ध्येय मन्त्र है 
घायल हो-होकर मै  उठता 
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

परजीवी का भाव नहीं है
याचक सा स्वभाव नहीं है
आम मनुज दीखता हूँ बेवस
पर दानव सा संस्कार नहीं है 
अपनी क्षुधा बुझाने हेतु 
खुद का रक्त ही दोहन करता 
  रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

ज्यों-ज्यों रवि पस्त है होता 
तिमिर द्वार पर दस्तक देता 
जग अँधियारा मन प्रकाशमय 
ह्रदय विजय से हर्षित होता
है संघर्ष पुनः अब कल का 
पर बिता आज ख़ुशी मन कहता  
रोज कहानी नयी मैं गढ़ता ।। 

Thursday, 5 September 2013

बस कह दिया

बातो को कितना अब आसान कर दिया 
हर भाव को दिन के अब  नाम कर दिया। 

रफ़्तार जाती बढती समय अब है कम 
कैसे निभाए हर रोज रिश्तो का मर्म। 

फासले कदम के जब घट रहे है यहाँ  
दिलों के बीच जैसे बढ रही है दूरियां।  

कुछ हम अब चिंतनशील  हो रहे  
परिवार बढ रहे एकल बिम्ब हो रहे। 

भाव पहले जिनका कोई मुल्य न लगाया  
उसको भी बाजार के अब हम नाम कर रहे। 

हर तरह के रिश्ते दिन में सिमट गए
उतर से दिल के अब कार्डों पर छप गए। 

सुख रहा दिलो में प्यार भाव सुख रहा   
कैसे निभाए हर रोज जब सब बिक रहा। 

अब गुरु के बताये मार्ग कैसे हमें दे तार   
रोज है जिनकी जरुरत याद करते एक बार। । 

Monday, 2 September 2013

मन का आपातकाल

सरसराहट ,हलचल ,लहर ,तूफान 
सभी उठते है मन में कई बार 
पर टकराकर न जाने किस तट से
कही  गुम हो जाते  है। 
चाहता हूँ की खेलूं इन लहरों से 
पर रशोई की चिंगारी या बच्चे की किलकारी 
जिससे शायद ढंका है मन का दिवार   
ये लहर भेद नहीं पाते और भटक जाते है। 
कही कोने में अक्सर 
शुन्य का भंवर घुमड़ता है 
निरीह क्रंदन ,बेवस आँखे 
सेवक का जनता से  
विश्वासघात की बाते 
और न जाने क्या -क्या 
उस भंवर में सिमट आता है। 
सब कुछ लीलता है बिलकूल 
चक्रवात की तरह और फिर 
सिमट पड़ता है मन के किसी कोने में निर्जीव
सुनामी के बाद के प्रहार की तरह। 
आपातकाल मन में छा जाता है 
हम उठते है उसके बाद 
तंत्रिकाए -स्नायू तंत्र सभी 
इनसे उबरने के प्रयास में लग जाते है।  
पुनः शब्दों को संजोते है 
खामियों  की स्याही में भिगोंते है 
वाक्यों का विन्यास नए रूप में आता है 
एक बार पुनःकुछ-कुछ पहले जैसा  
मन का आपातकाल चला जाता है। । 

Sunday, 1 September 2013

न्याय-अन्याय


                                                                           चित्र :गूगल साभार 
कितने मोम पिघल गए ,
जो न्याय पाने के लिए जलाये गए 
पिघले हुए खुद में एकाकार हो गए 
क्या गर्म होना, जब बेकार हो गए। 
किसके साथ अन्याय हुआ ?
न्याय ने सिर्फ खुद से न्याय किया। 
उसे रुंह के झकझोड़ने से कोई सिहरन नहीं होता, 
सिसकते चीत्कार से कान मर्म नहीं होता ,
देखकर भी वो देखता नहीं है, 
आँखों में जड़े पथ्थरों से 
क्या कभी, काम भी  होता है ? 
लिखी हुई हर्फो को देखता है, 
आज में नहीं कल में ढूंढ़ता  है। 
उम्र कम है कुकर्म का मिसाल है ,
क्या करे लिखे पर चलना यहाँ आचार है। 
कुछ और ऐसे मिसालो की तलाश है, 
नाबालिग को बालिग करना क्या मामूली बात है।  
इंतजार तब तक न्याय करेगा, 
भला अभी क्यों खुद से अन्याय करेगा। 

Saturday, 31 August 2013

अस्तित्व


कुछ शेष रह जाते यहाँ
यादो की परछाई में
कुछ के निशां भी नहीं होते  
बह जाते है वक्त की पुरवाई में। 
किसकी किस्मत क्या  है
ये तो बस बहाना है,
गुजरे कर्मो को इस लिबास से
ढकने का रिवाज पुराना है। 
खुद में रहकर ही ,
खुद के लिए जो  गुजर जाते है ,
उन मजारो पर देखो जाकर
वहाँ घास-फूसों का आशियाना है। 
अपने आप को छोड़कर जो
औरों के लिए दर्द  लेते है 
अपनी पलकों के नींद किसी और को देते है
जिनका हाथ किसी गैर का सहारा है 
कंधो पे भार खुद का नहीं 
अरमानों का बोझ कई का संभाला है 
जो आवाज है कई 
हकलाती जुवानों का 
जिनके कानों में गूंजती है टीस 
किसी के कराहने का। 
उनके अस्तित्व ढूंढे नहीं जाते
वो सोते है गहरी नींद में
और लोग रोज उन्हें जगाने वहाँ आते 
झुके हाथों से नमन उन्हें करते है 
तुम हो साथ मेरे बस ऐसा कहते है। । 
इन बातों को शब्दों में गढ़ना कितना आसान  है ,
लगता नहीं कोई इससे अंजान है , 
हम उनसे अलग नहीं कोई 
किन्तु सोच शायद, कभी कर्म में बदल जायेगे 
कोई अस्तित्व हम भी गढ़ जायेंगे। ।