Monday, 26 October 2015

......दरार ...

दरारें दिखती है    
दरकती और दहकती सी 
सब कुछ खामोश है ,
बस जैसे ऊपर वाष्प आच्छादित हो 
और नीचे पानी में उबाल है। 
मौन अंदर ही अंदर चीखता है 
काश कोई दिल की आवाज सुने 
किस कदर प्यासे है 
जैसे की धरती अब बंजर हो चली हो। 
आक्रोश और नफरत 
भरे बाजार बिक रहे है 
प्रेम के सौदाई ने नए मुकाम गढ़े 
और नफरत को प्रेम से दिल में बसाया है। 
हकीकत है कि चिंता के लिए 
सभी चिंतित होते है 
रहनुमाओ की फ़ौज तलाश रही है 
इन चिन्ताओ को अपने रहनुमा के लिये। 
अपने ढर्रे पे  तो जिंदगी  लौट ही आती है
कभी रुकी तो नहीं 
बस कुछ के सितारे विलीन हो जाते 
और कितनो के सितारे इसमें चमक जाते है।

Friday, 25 September 2015

अक्षर ,शब्द और हमारे मायने....

शब्द जैसे मात्र अक्षरो का समूह
अपने अर्थ की तलाश में ,
एक दूसरे से टकराते और लिपटते।
वाक्य बस शब्दों का मेल,
आगे और पीछे खोजते अपने लिए
इक उपयुक्त स्थान ,
अपने होने का निहतार्थ और पुर्णता के लिए।
किन्तु एक मात्रा ,अक्षर ,शब्द या वाक्य
सब तो अपने आप मे परिपूर्ण है,
और फिर भी बदल जाते भाव संग सार भी ,
जब समुच्चय में उपयुक्त न स्थान है।
ये तो बस कठपुतली मात्र  है,
किसी सोच और संकल्पना की
जो उभारते है बनके मात्र साधन,
किन्तु खुद झेलते है दंश 
अनर्थ के अपमान का,
त्रिस्कृत  और धिक्कार शब्दों सा । 
पूर्णता भी स्थान और संग में
अपना चेहरा बदलता  है,
अक्षर और शब्दों का विन्यास
शायद ऐसा ही कुछ कहता है।
हमारे अर्थ भी किसी के साथ होने 
या न होने के मायने तय करते है। 
एक उपयुक्त स्थान,
मानक न कोई आगे या पीछे का 
निहित जीवन ध्येय तब ही पूर्ण होते है ।

Saturday, 19 September 2015

बस सच सामने आना चाहिए.....


                   हमें खेलने की आदत है।  पता नहीं कब से सब खेलते आये है।  धर्म  से,जाति  से, क्षेत्र से, जज्बातों और न जाने कितने नए -नए खेल सामने आते रहते है और ये कहानी रोज यूँ  ही चलती जाती है।  कुछ करने के हजार बहाने है और न करने के हजार फलसफे। अब हम जैसे तो दर्शक बन बस अपनी क्षुद्र बुद्धि के अनुसार उसपर बस तालिया ही बजाते निकल जाते। इस आशा में की इस बार शायद हमारे लिए कुछ खास होगा। किन्तु क्रमिक चक्रिक परिवर्तन हमें वही लेकर खड़ा कर देता है,जहाँ से कुछ नया का भान कर हम प्रस्थान करते है ।  कुछ नया होने  का उत्साह आखिर हम किन बिन्दुओ का विश्लेषण कर के करते ये तो बस विश्लेषण का ही विषय है। लेकिन इसी बहाने कुछ नया हो जाय तो क्या छिद्रान्वेषी की भूमिका निभाए या सराहना करे  दिमाग यहाँ किंकर्त्यवबिमूढ़ हो जाता है। 
                   जिस राज को राज रखने के प्रयास कब से जारी था। उसे अब पर्दा के अंदर बेपर्द किया गया है।  आने  वाले कल में ये कितने का राज खोलेंगे ,देश और समाज के उच्चतम मानदंडो को ढ़ोते हुए कदमो को ये राज पिटारे से निकल कर कही लकवा न मार दे।  वैशाखी के सहारे इतिहास के विरासत को ढोते-ढोते थक चुके इन कदमो पर इसका प्रभाव पड़ा तो आने वाली कितनी पीढ़ी इससे प्रभावित होगी कहना मुश्किल है। खैर कुछ नया करने के लिए बिलकुल ५६ '' का चौड़ा सीना हो ये भी नहीं जरुरी है। किन्तु इन कदमो से बहुत सी छातियो में धड़कने सांय -सांय कर धड़कना शुरू कर दिया होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सब-कुछ करने के पहले शतरंज के विसात के आदि अगली चाल से पहले कौन इतिहास के झरोखे से झांकेगा ये तो अब आने वाला कल ही बताएगा। 
                      परन्तु हमें तो बस आम जान की तरह अपने नायक के विषय में जो हकीकत है उतने से ही मतलब है। स्वभाबिक तौर पर अगर राष्ट्रनायक के विषय में कुछ दशको में गुजरे अतीत एक सच के रूप में सामने न आकर किस्से-कहानियों के रूप में वर्णन हो तो उस देश की प्राचीनतम इतिहास तो हमेशा  संदेह के घेरे में रहेगा। अतः जो भी हो बस सच सामने आना चाहिए। 

Friday, 18 September 2015

अनगढ़े पात्र

चौतरफा शोर और कोलाहल 
भीड़ भरे राहे,
रौंदते कदम व  सरपट  चक्के
अनजान से मंजिल तक,
अनगिनत ये मूक दर्शक
कतार बंद बैठे  
जाने किस इन्तजार में। 
खामोश लब याचना भरे कातर दृष्टि
उसकी ख़ामोशी उस कोलाहल में भी 
जाने कितना कुछ कहती है,
शब्दों में कुछ पनपता नहीं 
पर निगाहे चीत्कार करती है। 
खनकती है टकराकर 
जब कटोरी की दुनिया से सिक्के  
अकुलाहट भरे लब 
सूखी टहनियाँ सी
फ़रफ़राती है।  
इस रंगमंच पे गढ़े है 
ये कैसे अनगढ़े पात्र भी 
इनको देख, गढ़ने वाले भी 
शिलाओं में मुँह छिपाते है।
इन्हे देख पुनर्जन्म पे 
हम यकीं शायद करते है ,
क्योकिं प्रारब्ध का गढ़ भाव 
सब बस आगे-ही-आगे 
बढ़ते जाते है।   

Tuesday, 8 September 2015

नन्हा फरिस्ता

खामोशी चीखती है लहरों से  टकरा कर  
औंधे मुँह लेटा जैसे माँ के गोद  में 
न सुबकता न ही रोता कंकालो की बस्ती से दूर
लगता है गहरी नींद में सोता  ।

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जिंदगी खुद से शर्मसार है
मौत उसको मुँह चिढ़ाती
चिटक रही सूखे टहनियों सी
दम्भी सभ्यता के वट वृक्ष की  ।

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नन्हा फरिस्ता लहरो से खेलकर 
मुस्कुरा के चल दिया 
पाषाण ह्रदय शिलाओं को भी 
आंसुओ से तर गया। 

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कितने नींद से जागे अब 
उसे सोता सोचकर  
कई राहें अब खुल गई नई 
उन बंद आँखों को देखकर। 
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