Sunday, 11 September 2016

कराहता आज ......

मायने बदलते रहते है पल-पल
शायद कल के होने का 
आज में कोई मायने नहीं रहता,
किन्तु फिर भी ,
इतिहास के पन्ने के संकीर्ण झरोखे से
आने वाले कल के होने के मायने में 
व्यस्त हम सब
बस कुचलता जाता है आज।। 
बेचारा जीर्ण-शीर्ण,
बेवश लाचार आज,
कल को सींचने में 
पल-पल बस मुर्झाता जाता है।। 

कल के दबे कुचले
घिनौने से अतीत जिसकी दुर्गन्ध
आज की कारखानों में बनी सभ्यता के इत्र 
दूर नहीं कर पाते,
किन्तु ऊपर निचे ढलानों
बराबरी और गैर बराबरी के तराजू पर तौलते
विरासत के बोझ से दबे बीते कल 
निकलने को आज में आतुर
किन्तु आने वाले कल के मायने में 
आज फिर कुचल दिए जाते।। 

बीते कल पर शोध और सत्यरार्थ कि तलाश 
अँधेरी गर्त पर परी गहन धूलो को 
बार-बार झारने की चाहत ,
किन्तु पल-पल आज पर 
परत -दर -परत जमा होते धूलो को 
हटाने की बैचैनी का 
कहीं कोई निशा दीखता ?
बस सुनाई देती है शोर 
हर एक नुक्कड़ खाने पर 
कल को बदल देने के वादे का ,
और कल को तराशने हेतु 
हर पल चलता रहता है हथौड़ा आज पर 
आज बस  कराहता और कराहता है।  
किन्तु अमृत पान हेतु 
गरल - मंथन कि कथा से 
हमसब  प्रेरित लगते है,
शायद आज में कुछ न रखा है।। 

Wednesday, 31 August 2016

दिल्ली और बारिश

                       
                                 क्या आप दिल्ली में रहते है ? हम तो खैर नहीं है फिलहाल वहा। तो फिर आपको दिल्ली की बारिश रुलाई या आपने रास्तो पर पटे पानी के सैलाब को स्विमिंग रोड समझ उसको पार करते  समय इंग्लिश चैनल पर विजय की खुशफहमी का अहसास किया, अगर नहीं है तो उसे कोसने की जगह नगरपालिका का शुक्रिया अदा करे और इसका आनंद ले । इन रोड पर बहते धार को देखकर भावुक होने से बचे। लगता है अपने लोगो में भावुकता की कमी हो गई है तभी तो मीडिया हमें भावुक होने के बहाने देता और खुद भी भावुक हो जाता है। पहले पत्रकारिता में भावुकता कम तथष्टता ज्यादा होता था किन्तु समय कि मांग ने लगता है कुछ प्रभाव बदल दिया है ।असहिष्णुता का राग अलापते-अलापते ये खुद कही असहिष्णु तो नहीं हुए जा रहे है। ये तो हमारे सांस्कृतिक उद्घोषणा है की हम आलोचना को अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील औजार समझते है। तभी तो कबीर ने कहा -"निंदक नियरे    राखिये " और हम है की सबके सब पीछे ही पर गए। 
                              अब ऐसा भी क्या कह दिया।  बहुत छोटा सो सवाल तो पूछा ,आखिर जब दिल्ली के रोड पानी से तृप्त हो तो भला ये जानने में कोई गुनाह तो नहीं है की आखिर पहुचने के लिए और कौन से साधन लिए गए,रोड पर कार और नाव एक साथ हो इससे सुन्दर दृश्य और क्या होगा? उन्होंने तो अगर देखा जाय तो भरतीय छात्रों के अंदर किसी भी कार्य को पूरा करने की जिजीविषा को सलाम किया। और हम है की उनकी आलोचना समझ बैठे है। लगे हाथ हमने अपने सरकारों को भी कोसना शुरु कर दिया। लेकिन हम भूल रहे है की हमारे यहाँ हर साल रूप बदल-बदल कर ये सैलाब कही न कही आता ही रहता है। कही के सड़क जाम हो जाते तो कही के कही पूरा क्षेत्र ही कट जाता। इन सबसे नीति-नियंता वाकिफ है। अब अगर वो दिल्ली को दुरुस्त कर दे फिर हम दिल्ली के बाहर वाले ही कहना शुरू कर देंगे कि हमारे साथ भेद-भाव किया जा रहा है। आखिर ऐसी परिस्थिति के दिल्ली में उत्तपन्न होने के बाद ही बाकियों का दुख-दर्द समझा जा सकता है। नहीं तो उड़न  खटोला पर बैठ का इन स्थितियों का जायजा लेने जाना पड़ता है। इससे सरकारी खजाना पर बोझ पड़ता वो अलग। दिल्ली का ये सब नजारा सरकारी धन का दुरूपयोग रोकने में मददगार है हम ऐसा क्यों नहीं सोच सकते। ताज्जुब है। हमें भी ख़ुशी होती है जब सबको एक प्रकार से देखा जाता है। और रही दिल्ली की सुंदरता की बात तो यह सिर्फ राजधानी है और हम है कि दिल्ली को "राजरानी" समझने लगे है। दिल्ली सभी को मोहती है स्वभाविक रूप से विश्व के अन्य गणमान्य भी दिल्ली के इस सुदरतम नज़ारे का आनंद लेने आ सकते है। पर्यटन विभाग को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। 
                      ऐसे मीडिया भी तो दिल्ली में बारिश न हो तब समाचार और बारिश हो जाए तो समाचार। वो तो नगरपालिका से लेकर मंत्री तक खुश होंगे की अपना मीडिया देश की आलोचना सुनना नहीं पसंद नहीं करता , नहीं तो जवाव देते या न देते कैमरा तो पीछे-पीछे तो आता ही। हम है की विश्व की महाशक्ति को अपनी तकलीफ सुना-सुना कर करार पर करार करने में लगे है ऐतिहासिक दस्तावेज की किताब मोटी होती जा रही है। अब जब अगर आप ऐसा समझते है की यह आलोचना है तो हमें तो खुश होना चाहिए की दिल्ली की इस समस्या को विश्व के महाशक्ति ने अगर खुद संबोधित किया है तो इस पर भी एक करार कर ही लेगा ताकि दिल्ली को इससे निजात मिल सके। इस पक्ष को देखने में क्या बुराई है।  बाकी जो इन सैलाब में घिरे है वो चैनलो पर ये दिल्ली जैसे निम्न कोटि का सैलाब कितना देखे। 

Saturday, 27 August 2016

दाना मांझी के बहाने



हम संवेदनशील होने का दम्भ भरते ,
पर जाने वो कब का दम तोड़ चूका है।
कभी -कभी हम दाना मांझी के बहाने
हर ओर से चीत्कार कर,
उस संवेदनशीलता की छाती पर चढ़ बैढ़ते।
इस आशा में की कही ,
इन शब्दो का प्रहार जो कुछ दिन तक मुँह बाएँ,
टीवी की ड्राइंग रूम से ,नुक्कड़ खाने तक
कुत्ते की रोती कर्कश आवाजो में भौकेगा।
शायद संवेदनशीलता जाग जाए।।
किन्तु वो तो कब का जा चूका ,
जब से दुनिया बाजार
और इंसान सिर्फ खरीदार बन के रह गया,
ये ना किसी मांझी की चिंता है
न किसी के दाना की ,
बस सरोकार इस संवेदन के बहाने
बाजारों का सांस चलते रहने की ,
बेसक उसकी कीमत
इंसानी सांस ही क्यों न हो ,
इंसान तो जाने के लिए ही आया है
बाजार का जिन्दा रहना ज्यादा जरुरी है
क्योंकि जब तक हम है
हमें बाजार की जरुरत के बारे में
घुटी में मिलाकर बताया गया है।
ऐसे कितने जिन्दा और मुर्दा लाश 
हम सबके कंधे पर रोज ही घूमता है। 
और हम सब इस इसे न देख 
बस ढूंढते की अगला मांझी
कब इस गठरी को अपने कंधे पर ले निकले 
और फिर हम संवेदना को तलाशे । ।

Wednesday, 17 August 2016

जरा हट के...

                              मैं वाकई चिंतित हूँ ,मानव को लेकर। मैं ही क्यों मुझे लगता है लगभग हर कोई चिंतित रहता है इस मानव को लेकर। खासकर बुद्धिजीवी वर्ग। चिंता के लिए बुद्धि बहुत ही आवश्यक पक्ष है। अभी तक तो पढ़ते आये थे की "चिंता से चतुराई घटे " किन्तु अब लगता है की चतुराई के साथ चिंता आवश्यक है नहीं तो पता नहीं कौन सी जमात में समझे जाएंगे। मैं उलझन में भी हूँ और असमंजस में भी। आखिर ये कुदरत की कौन सी रचना है जिसके रंगों-रोगन का कार्य आज तक बदसूरत जारी है। धरती पर जीवन के उद्भव से लेकर सिर्फ इंसान ही एक ऐसा जीव है जिसका विकास के क्रम अनवरत जारी है। बाकी सब के सब जीव बनाने वाले के काफी कृपापात्र निकले ,जिस रूप में थे आज तक उसी रूप में चल रहे है। आखिर उनके लिए भी कुछ करने को रहने दिया जाता।  मुझे पता नहीं क्यों ऐसा है जिसे ऊपर वाले की सबसे खूबसूरत रचना हम मानते ,ये कभी -कभी सबसे निकृष्ट प्रतीत होता है। आखिर ऐसा क्यों है बाकि किसी भी जीव के मूल स्वाभाव में कोई परिवर्तन नहीं है और एक इंसान है जिसकी प्रवृति बदलता ही जा रहा है। हम सृष्टि के प्रादुर्भाव से संभवतः बदलते ही जा रहे है।  क्या हमारे साथ बनाने वाले ने नाइंसाफी की कि हमें अधूरा बनाकर छोड़ दिया या और कह दिया बाकी बचा हुआ काम हम खुद ही देख ले और हम अनवरत लगे हुए है। नहीं तो इंसान के इस धरती पर कदम रखने के साथ ही आखिर किस खोज में हम बेतहासा लगे हुए है ?
                           मुझे लगता है की इस धरती पर कोई ऐसा काल नहीं रहा है जब आज के जो समस्याए मुंह बाए खड़ी  है वो नहीं रहा हो।बेसक समय समय पर उसके रूप बदलते रहे हो।  अर्थात समस्याएं हमें प्रारब्ध से मिली हुई है और ये अनवरत रहने की ही सम्भावना है। उसके अनुपात में समय समय पर बेसक फेरबदल चलता रहेगा। तो क्या इंसान इंसान ही रहेगा या और कुछ बन जाएगा।क्या आश्चर्य नहीं है कि सबसे बुद्धिमान जीव खुद को मानने वाला इंसान ,आजतक खुद से ही संघर्षरत है ? पूरी मानव समिष्टि क्या दुख की क्षीर सागर पार करने में कभी कायम होंगे या ये रूप बदल बदल कर हमें उसपर विजय पाते रहने की आत्मप्रवंचना का अवसर ही मिलता रहेगा? कही न कही मुलभुत रचना में ही कोई मूल गलतियां बनाने वाले ने जानबूझकर तो नहीं छोड़ दिया। और हम है की उसकी गलतियों को सुधारने का भ्रम पाले बैठे है और वो बैठा बैठा मुस्कुरा रहा हो। 
                            क्या ये जरा हट के भी सोचने और चिंता करने की कोई गुंजाइस है या कही मैं भी तो नहीं सोचने का भ्रम पाल रखा हूँ।     

Sunday, 7 August 2016

रस्मी बादल


फिर लौट आया है       
वो कारवां बदलो का,
जो रुखसत हो जाता है जाने कैसे
बिन बरसे ही इन राहों से।
नजर टिकती है हर वर्ष कि भांति
कि अबकी शायद  बरस जाये
 धो दे कहल सब अंतस के।
बहुत गरजते है सब इस मौसम में
लहलहाने को मचलता मन
सींच देगा ये अबकी बार धरा ऐसे
उर्वरकता बस लहलहा उठेगी।
शोर है , कोलाहल भी छाई है
ये मास ही है कुछ ऐसा
बोने को बीज आतुर सब
सुगबुगाहट देशभक्ति चीत्कार सी  लगती ।
बरसेंगे मन सबके, सावन के फुहारों से
कुछ कर गुजरने कि
बयार मन को लहलहा देगा।
हर बार ये ऋत कुछ ऐसा ही लगता है ,
रस्मी बादल जो न शायद बरसता है।
मिट्टी में दरारें नमीं पर प्रश्न करते
अगर बरसते बादल तो ये कैसे इतना दरकते।।
फिर लौट आया है
वो कारवां बदलो का
जो रुखसत हो जाता है जाने कैसे
बिन बरसे ही इन राहों से।