Thursday 15 May 2014

अच्छे दिन आने वाले है

काफी जल्दी में लग रहा था।  उसने दीवार के कोने में किल में टंगी कुर्ते को उतरा।  जिसके बाजू और धर के बीच बने फासले जिंदगी में उसके स्थिति को बांया कर रहे थे। बनियान में गर्मी के हिसाब से हवा आने जाने के लिए अपना रास्ता पहले ही बना रखा था। उसकी पत्नी वही बगल में बैठी दिन भर पेट में जलने वाली आग को बुझाने के लिए डब्बे में जाने क्या कौन सी जलधारा ढूंढ़  रही थी।घर के छत से आसमान झांक रहा था।
आज सुबह -सुबह कहाँ की तैयारी है ? पत्नी ने पूछा 
अरे कुछ पता भी है तुम्हे बस सवाल ही पूछोगी  और तो दिन दुनिया कि कोई खबर नहीं …। आँखों में कुछ अजीब चमक आ गया  था।
आखिर ऐसा क्या हो गया है ? उसके दिनचर्या में अचानक बदलाव को वो समझ नहीं पा  रही थी।
अरे हमारा गमछा कहाँ है। लगभग खिजते  हुए पूछा
बौरा गए हो क्या ? खांसते हुए पलट कर बोली काँधे पे ही तो रखे हो।
वो लगभग झेप कर बोला ठीक बोलती हो लगता है मैं  भी अब सठिया गया हूँ।
लेकिन बात आखिर किया है अब कुछ बोलोगे भी आखिर इतने सुबह-सुबह जा कहाँ रहे हो।
आज दिन के लिए चावल भी नहीं है ,दिन में किया बनेगा ?बेवसी उसके चेहरे पे झलक रही थी।
सब हो जाएगा अब हर दिन एक जैसा थोरे ही होता है। आँखों में विश्वास की परिछाई उभर आई थी।
किन्तु आखिर ऐसा क्या होने जा रहा है ?बीते कल की बेबसी  बातो में ज्यादा थी।
ऐसा मत सोचो इसबार कुछ तो बदलेगा।  उत्साह उसके बातो में झलक रहा था।
सालो से ऐसे ही सुन रही हूँ। क्या इसबार कोई भानुमति का पिटारा मिल गया है जो सुबह -सुबह चल  दिए हो।
कुछ ऐसा ही सोचो। उसने विश्वास दिलाने के लहजे में कहा।
अरे देख नहीं रहे हो सब उधर ही जा रहे है।
आखिर किधर ?
तुम तो बस इसी चूल्हा में उलझी रहो तो का पता चलेगा।
उसके पत्नी के चेहरे पर अविश्वसनीय भाव उभर आये।
उत्सुकता से  पूछी -क्या इस चूल्हे की उलझन को कोई सुलझा दिया है ?
बिलकुल ठीक समझी ----वही तो लाने जा रहा हूँ।
अच्छे दिन आने वाले है शायद वहां कुछ हमें भी मिल जाय। आवाज में सुन्दर भविष्य की खनक थी।
और  उसके बातों से पत्नी के चेहरे पर बेवसी पूर्ण मुस्कान उभर आये, नासमझ तो नहीं है आखिर इतने सालो से तो उसके साथ है ।  

Sunday 11 May 2014

शो जारी है......


वन मैन शो 

वृत्त चित्र 
                        राज साहब कि फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" का  यह संवाद  "द शो मस्ट गो औन " लोकतंत्र के महापर्व को चरितार्थ कर रह है। बिभिन्न शो में फिल्म देखने के आदि  जनता अब पूर्ण  रुप से सामान्यतः पांच वर्ष मे बनने वाली फ़िल्म के क्लीमेक्स मे शो के अलग-अलग अंदाज का मजा लेने मे लगे हुयें  है। पहले हकीकत को पर्दे पर उतारने कि दुहाई फिल्मकार देते थे ,किन्तु अब राजनीती के  मजे  निर्देशकों ने पुरे फ़िल्मी दुनिया को जैसे हकीकत के जमीं पर उतार दिया है।मैटनि शो ,नून शो ,इवनिंग शो से लेकर रात्रि शो का  विषेश  प्रसारन अब अन्तिम चरन मे आ गया है। प्रतिबद्ध रचनाकारों कि अलग-अलग टोली अपनी क्रियात्मक कार्य -कलापों से वास्तविक जमींन के उपर न जाने कितने विभिन्न प्रकार के क्षद्म और आभासी  स्टेज़ बना रखे है।इन फिल्मकारों को गुमान है की जिसके सामने बैठ कर दर्शक हकीकत के  सिसकते स्वर सरगम  के उपर भी सुरीली बांसुरी सा लुफ्त लेंगे। जहाँ जनता दर्शक भर बन कर "टैग लाइन" वाले संवादों पर तालिया बजाते है और मुख्य किरदार उन तालियों के आवांज को अपनी सस्तुति समझ कर स्वतः अपना  पीठ ठोंकने में लगे हुये है। जिन संवादों के ऊपर सेंसर बोर्ड अब तक बैन लगाते आये  है उन सैंसर बोर्ड को अब फिल्मकार कि दलील भविष्य मे बैन लगाते वक्त  अवश्य सुनना पड़ेगा। क्योंकि इस शो में संवाद अदायगी के दौरान  कोइ भी रि-टेक नहि लिया  जा रहा है।आपत्ति और अनापत्ति के बीच फ़िर उससे भी दोहरी मारक क्षमता वाले संवादों का  प्रयोग बदसूरत ज़ारी है। 

प्रायोजित फ़िल्म 
                    अब जनतंत्र मे लोक चुनाव एक समान्य प्रक्रिया  भर नही  रह गया है। अलग-अलग राजनीतिक दल "राम गोपाल वर्मा की फैक्ट्री " जैसे प्रोडक्शन हाउस बन गए है। जहाँ अब सब कुछ वास्तविकता से कोसों दुर शिल्पकारों की  रचना के अनुरुप बस अभिनय करते प्रतीत हो रहे है। कई बार लो बजट की भी फ़िल्म सुपर-डुपर हिट  हो जाती है ,वैसे हि अलग-अलग जगह से लो बजट के  कईं नये राजनीतीक रचनाकार अपना  उत्पाद भी ज़नता के सामने परोसने मे लगे है। आखिर जनता तो जनार्दन है जाने क्या पसन्द आ जाये। किसकी किस्मत का पिटारा बॉक्स ओफ़िस पर खुल जाये ये कौन जानता है ? प्रकाश झा को अवश्य हि इस सत्य का  भान हुआ होंगा की राजनीति पर फ़िल्म बनाने से बेहतर तो फिल्मो जैसी राजनीति है। जहाँ एक बार दाव  लग गया तो पाँच साल के लिये बॉक्स ऑफिस पर हिट। जैसे बाहु-बली चुनाव मे मदद करते-करते खुद ज़नता की मदद करने सब कुछ त्याग कर आ सकते है तो "पंच लाईन " के रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता का उपयोग जनता की सेवा मे क्यों नहि कर सकते ?

फिल्म कि सफलता … बस 
                                  आखिर इस शो मे ऐसा कौन सा तत्व नहीं है जो इसे जनता के बीच लोकप्रिय न  बनाये। नायक ,खलनायक ,नायिका ,सह-कलाकार ,जूनियर आर्टिस्ट ,संगीतकार,गीतकार ,सँवाद लेखक से लेकर मंच सज्जा और न जाने क्या -क्या सब इस शो को सफल बनाने मे लगे हुये है।विदूषकों कि टोलियां अपने मसखरेपन पूरी वयवस्था के बदलते मायने को अपने अंदाज मे समझाने मे लगे है। किन्तु जनता किसके शो से सबसे ज्यादा खुश है ये तो आने वाला समय ही  बताएगा ,जब बोक्स ऑफिस के पिटारे को १६ मई को खोला जाएगा।
                              
                             जनता भी अब मसहूस करने लगी है ,परिवर्तन की सब बाते बस दंगल के पेंच है स्थिति तो जस का तस ही बना  रहता  है ,चलो इस से मनोरंजन कर कुछ तो मन बहलाया जाय। हकीकत से कोसो दूर ये कलाकार अब बस सभी को सब्जबाग हि दिखा  रहे है। जैसे दावे और प्रतिदावे न होकर क़ादर खान के संवाद वाले नौटंकी चल रहा हो । कुछ आस्था के भग्नावेश पर नौलक्खा इमारत गढने कि तागिद कर रहे  तो ,कुछ ने सपने कैसे देखने  है इन सपनो को देख़ने कि सपनें दिखा  रहे है।कुलबुलाहट के बीच पनपने वाली जिंदगी इन सब नजारो को देख कर बस मन मसोस कर रह जाती और वास्तविकता से इतर अब सिर्फ़ मन बहलाने का बहाना ही इन प्रायोजित कार्यक्रमो में  देख कर किसी नये स्र्किप्ट लेखक का इन्तजार करने लगती है।अब जनता वोटर न होकर बस दर्शक दीर्घा से दर्शक बन  सब देखने को मजबूर है, उसे इस बॉक्स ऑफिस मे टिकट गिराने की बेवसी को समझना शायद कुछ कठीन है । वोट की कीमत कितनी है समझाने मे करोड़ लगाने ,उस वोटर को पोलिंग बूथ तक लाने मे बेहिसाब खर्च करने वाले के लिये जमीनी सच्चाई को समझने मे और उसके उपदान के लिये उसका एक भाग भी यदि  मनोयोग से जनता के कल्याण को लगाने को इच्छुक  दीखते तो संभवतः इस शो को बॉक्स ऑफिस मिले सफलता की संगीत कि गूंज  आमजन के दिल मे बजता और इससे अजीज ज़नता कहता " शो अवश्य जारी रहे "।  (सभी चित्र गूगल साभार ) 

Tuesday 6 May 2014

शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली.......१०० वीं पोस्ट

                                               ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
                                                दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSस्तु ते। । 
"शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली मंदिर"
             अकस्मात कभी कुछ संयोग ऐसा बन जाता है कि अपनी हृदय मे आह्लादित ख़ुशी दैवीय कृपा के रुप मे प्रतीत होता है। ऐसा ही ख़ुशी महसूस  हुई जब "शक्तिपीठ भद्रकाली " के दर्शन क सौभाग्य प्राप्त हुआ। काफी वर्ष झारखण्ड में व्यतित करने के बाद भी इस शक्तिपीठ के विषय मे अनभिज्ञ था। कहते है जब माता बुलाती है तो कोइ न कोइ सन्योग निकल हि आता है। वैसा हु कुछ इस दर्शन के दौरान हुआ।  लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विद्यानंद झा की पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" जो कि उक्त शक्तिपीठ के ही है उपर है,जो झारखण्ड राज्य के चतरा ज़िला अन्तर्गत "ईटखोरी " प्रखंड मे अवस्थित है। पुस्तक के लोकार्पण समारोह मे शामिल होने वावत निमंत्रण  पत्र प्राप्त हुआ। समारोह की तिथी ४ मई रविवार को सुनिश्चित कि गई थी। श्री विद्यानन्द  झा बिहार प्राशासनिक सेवा से सेवानिवृत अधिकारी है। अपने प्रशासनिक सेवा के दौरान कई वर्ष उस क्षेत्र मे विभिन्न दायित्व का  निर्वहन उन्होने किया था।  
 तीन -चार दिन पूर्व निमंत्रण पत्र मिला था। किन्तु गर्मी के बढ़ते प्रकोप के काऱण निश्चित निर्णय नहीं  कर पा रहा था।अकस्मात मौसम ने रंग बदलना शुरु किया जैसे उक्त कर्यक्रम मे शामिल होने के लिये देवी माँ  कि क्रिपा वृष्टि हो रही है। पहले तो सोचा स्वयं चला जाय किन्तु श्रीमतीजी ओर और पुत्र के द्वारा उग्र विरोध प्रदर्शन उस क्षणिक विचार के उपर पूर्ण विराम लगा  दिया। अवकाश का दिन होने के कारण मेरे पास और कोइ आधार नहीं था जिसके बहाने मै क़ोई   दलील पेस कर पाता।इसी दौरान एक सहकर्मी मित्र ने भी उक्त कार्यक्रम मे शामिल होने के लिये मिले निमंत्रण के विषय मे बताया ,चलो एक से अच्छे दो परिवार। भक्ति और पर्यटन के अपने अपने ख़ुशी से श्रीमतीजी और पुत्र दोनो रोमांचित हो गये  जैसे  हि  मैने उद्घोषणा किया  कि कल प्रातः हमलोग  "शक्तिपीठ भद्रकाली "  लिए प्रस्थान करेंगे।
माँ भद्रकाली
                             सुबह-सुबह रविवार के दिन तय कि हुई गाड़ी द्वार पर खडी हो गई। निर्धारित समय पर हमलोग सभी तैयार थे किन्तु मित्र सपरिवार आने मे कुछ विलम्व हो गये। जगह के विषय में ज्यादा जानकारी नही होने के कारण मनोज गाड़ी चालक, जो क़ी उपयुक्त व्यक्ती था उसने बताया कि  ईटखोरी बोकारो से लगभग २०० कि मी की दुरी पर है और अनुमानतः तीन से चार घंटे लगेंगे। बोकारो से सीधे राष्ट्रिय राजमार्ग -२३ पकड़ कर  रामगढ़  कैंट   के रास्ते हम बढ़ चले। बीच में लगभग ४० की मी की दुरी पर रास्ते मे रजरप्पा मुख्य सड़क से लगभग १० की मी अंदर दामोदर और भैड़वी नदि के मुहाने  एक प्रमुख विख्यात शक्तिपीठ  माँ छिन्नमष्तिका है जिसे हमने मन ही मन  प्रणाम किया।                      रामगढ़ कैंट झारखण्ड का  एक प्रमुख जिला शहर है साथ हि साथ यहॉँ सिख तथा पँजाब रेजिमेंट के काऱण इसकी  अपनी महत्ता है। जिसकी दुरी बोकारो से लग्भग ७० की मी है।  रामगढ़ से लगभग पांच कि मी पहले हि हमने  राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ से होते हुए हजारीबाग कि ओर चल पड़े। पुरे रास्ते रमणीक माहोर दृशय देख दिल खुश हो गया। प्रकृति की खुबसुरती  का आनंद कुछ रुक उठने क मन कर रह था किन्तु पहले हि विलम्ब होने के काऱण ये इच्छा को दबा दिया ।   हजारीबाग से लगभग २० की मी राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ पर चलने के बाद बीच से इटखोरी जाने वाले रोड मे मूड़ गये। जहाँ एक छोटा बोर्ड रोड के किनारे इटखोरी मोङ दर्शाते हुये लग हुआ है।   जहाँ से लगभग ३० की मी और दुरी शेष था। 

                     लगभग ११:३० बजे हम मंदिर के मुख्य प्रांगण मे पहुच चुके थे। वही एक सभा मंडप था जिसके अन्दर पुस्तक लोकार्पण का समारोह आयोजित किय गया था। सबसे पहले हमने माँ कि पूजा अर्चना कि।  अष्टधातु गोमेद से बनी माँ कि मूर्ति से अलौकिक आभा को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर किया जा सकता है। माँ का ये मंदिर "भदुली " नदी के  किनारे स्थित है इसलिए "भदुली भद्रकाली" के रुप मे से भी  ये प्रषिद्ध है।मंदिर परिसर काफी मनोहर और आकर्षक है। प्रागै ऐतिहासिक काल से शक्ति स्वरूप भगवती का प्रसिद्ध पुजा स्थल है। ईटखोरी का नामकरण बुद्ध काल से सम्बद्ध है और किवदंती है की यहाँ गौतम बुद्ध अटूट साधना किये थे। जैन साहित्य के १० वे तीर्थंकर शीतला स्वामी का जन्म स्तन भदुली को ही कहा जाता है।   पंडित विद्यानन्द  झा ने अपनी पुस्तक मे इस मन्दिर के पौराणिकता के साथ-साथ इसके एतिहासिक पहलूँ पर भी  प्रकाश डाला  है।  आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह स्थान प्रागैतिहासिक है एवम महा काव्य काल ,पूराण काल से संबन्धीत है। ऐतिहासिकता के दृष्टिकोण से इस मन्दिर का निर्माण पाल वंश के राजा महेन्द्र पाल प्रथम (९८८ से १०३८ ई )के शासन के दौरान किय गया। यह स्थल हिन्दू ,जैन और बौद्ध धर्म के प्राचीन काल से समन्वय स्थल है। 


     
पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" का लोकार्पण 
      पंडित विद्यानन्द  झा कि पुस्तक उक्त  शक्तिपीठ के आध्यात्मिकता  , पौराणिकता  और ऐतिहासिकता के विभिन्न बिन्दूओं के बीच परस्पर अनुसंधानात्मक विवेचना है। माँ भद्रकाली का प्रादुर्भाव ,उपासना ,माहात्म्य आदि विभिन्न महत्वपूर्ण बिन्दुओ क वर्णन इस पुस्तक मे है। लोकार्पण समारोह में जिला प्रशासनिक अधिकारियो के आलावा मुख्य अतिथि के रुप मे डा विन्देश्वर पाठक,जो कि किसी परिचय के मोहताज नहीं है और "सुलभ-स्वछता -आंदोलन " से दुनिया उन्हे जानती है , समारोह स्थल पर मौजूद थे। मंच पर और भी कई प्रख्यात लेखक मंचासीन थे। कार्यक्रम का आयोजन पुस्तक के प्रकाशक  "सरोज साहित्य प्रकाशन " दरभंगा (बिहार ) के द्वारा किया गया था। ज्ञात हो की पंडित झा की कई कृतियाँ मैथिली मे भी  है। 
धर्म विहार 
                  
      समारोह  के दौरान कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी  प्रस्तुत किये गये। उसके प्रसाद स्वरूप भोजन कि समुचित व्यवस्था आयोजको द्वार कि गई थी।  सभी प्रसाद ग्रहण के लिये प्रस्थान किये। हमलोगो ने भी प्रसाद ग्रहण किया। समय अपने अंदाज में निकलता जा रहा पुरा मन्दिर परिसर भी  नहि घुमा अंतः उसके बाद मन्दिर परिसर के आलावा चारो ओर फैले गहन जॅंगल मे छाये नीरव शांती को महसुस कर, चुंकि सुरज भी मध्यम पड्ता जा रहा था।  इसलिए समय और इजाजत नहि दे रह था कि उस शांति क और आनन्द ले सके। बच्चे भी अब थकान महसूस कर रहे थे।  अब घर जल्द-से जल्द पहुचने क था ,घङी की सुइ छह पर था। अतः हम  सभी गाडी मे सवार हो मा को प्राणाम कर वापस वापस बोकारो के लिये प्रस्थान कर गये।      
                 माँ भद्रकाली सब पर कृपा करे। जय माँ भद्रकाली। 

Monday 28 April 2014

बदलते पैमाने

रौंद कर सब शब्द 
उससे गुजर गए,
कुछ दिल को भेद
कुछः ऊपर से निकल गए। 
अलग-अलग करना 
अब मुश्किल है, 
जिंदगी जहर बन गया 
नहीं तो जहर जिंदगी मे घुल गये। 
लानत और जिल्लत के बीच
वो खुद को ढूढ़ रहा था,
जलालत की सब बातें जब से
इंसानी सरोकारों में मिल गए।
सबने चिंता दिखाया 
कल के लिये सब बैचेन दिखे,
कुछ को देश निकाला मिला तो 
कुछ को समुन्दर मे डुबों दिये।
बदलेगा क्या 
ये तो वक्त बताएगा, 
किन्तु सब भाव अब 
वोट के कीमत मे सिमट  गये। 
जो जरिया है और   
तरक्की का पैमाना है बना,  
उस लोकतंत्र में चुनाव ने  
सारे पैमाने बदल दिये। ।    

Thursday 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।