Saturday, 24 June 2017

मैं.....

जब 'मैं' , 'मैं' नहीं होता हूँ ।
तो फिर क्या ?
तो क्या मेरे अस्तित्व का विस्तृत आकाश
अनंत तक अंतहीन होता है ?
या अनंत में विलीन होता है ?
या मेरे वजूद के संगीत की सप्तक
किसी के कानों में मूर्त एकाकार होता है।
'मैं' मुक्त, साकार.. क्या निराकार भी होता है?
शायद हाँ  या ना दोनों ।
मेरे, 'मैं' के नहीं होने से,
कैसे
अनगिनत जुगनुओं सी मद्धिम
झिलमिलाती प्रकाशपुंज
अनवरत मुझ में समाहित और प्रवाहित होता है ।
ऐसा हमेशा होता तो नहीं
हाँ पर कभी कभी होता है ।
जहाँ 'मैं', स्वयं के 'मैं' से
मुक्त होकर सबो में या सभी को स्वयं में
समाहित कर विलीन हो जाता हूँ ,
और उन तस्वीरों में बिखरे
रंगों को तलाशता हूँ
जो प्रकृति प्रद्दत तीव्रता की तरंग को
अपना समझ एक दूसरे को
निगलने को आतुर दीखते है ।
मुझे औरो का , 'मैं' , न जाने क्यों
मुझे मुझ सा, खुद के, 'मैं', से
युक्त सा दीखता है ।
पर ऐसा हमेशा नहीं होता
शायद खुली आँखों से
कभी कभी हम स्वप्न्न में विचरते है ।
तब शायद मेरा 'मैं', मुझसे
त्यक्त होकर विचरता है।
यह विचरण कितना आनंद विभोर करता है
किन्तु यह स्वप्न भी स्वप्न जैसा जाने क्यों होता ?
सच में मैं
खुद के 'मैं' से, मुक्त होना चाहता हूँ
इस दिवा स्वप्न्न के स्वप्न्न में विचरण भी
अहा...कैसा आनंद!
उस आनंदवन की तलाश है ।।

Friday, 23 June 2017

पारिवारिक कलह:: एक लघु दृष्टि

                        इस बदलते समय और समाज में परिवारिक कलह जैसे बहुत ही सामान्य सी घटना हो गई है। आये दिन इसके विकृत रूप का परिणाम कई शीर्षकों में अखबारों के किसी पन्ने में दर्ज होता रहता है। महानगरीय जीवनशैली में जैसे इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा ही दे रहा है। जहाँ एक दूसरे की दिल की बात को सुनने  और समझने के लिए किसी के भी पास वक्त नहीं है। एक ऐसे सुख की तलाश में सभी बेतहासा भाग रहे है जहाँ शुष्क और रेतीले सा अंत तक यह छोड़ फैला हुआ है।
                         किसी परिवार में सामान्यतः  एक कसक और  द्वन्द किसी भी बात को लेकर शुरू हो जाता है और उस संघर्ष में कई बार इंसान का पशुत्व का चेहरा उभर आता है। जो कभी कभी इस चेहरे पर हावी हो जाता है। इस द्वन्द की छटपटाहट में कैसे आपका आचरण पाशविक हो जाता है इस बिंदु पर पहुचने के लिए कई बार आप को एकांत के ठन्डे सागर में गोता लगाना  पड़ता है। जहाँ समय के साथ स्वयं के "मैं" सा कई धब्बे दिल और मन पर उभर आते है।अनन्य प्रकार के आरोहो अवरोधो के झोखे में कई गन्दगी की परत आपके मन को मैला कर देती है। जब आप दर्पण में खुद को देखते है चेहरे का प्रतिबिम्ब तो उभर आता है मगर उपके पीछे छिपे कालिख की हलकी परत भी देखने में हम समर्थ नहीं हो पाते है। कई बार हम खुद को स्वयं में ही सर्वज्ञ मान आस पड़ोस को कोई अहमियत नहीं देते। अपने दिल में चलने वाला उफान इतना होता है की और भी इसी मनोव्यथा से भी गुजर सकता है इसकी हमको रत्ती भर भी परवाह नहीं रहता है। नतीजतन जो घर आपको स्वर्गिक सुख का अनुभूति देता है वही आपको नरक की सी यातना का पर्याय लगने लगता है। फिर हम ऊपर वाले को कोसने लगाते है।हमारे मुह से दर्शन और फिलॉसफी की उक्तियां से क्षिद्रनिविशि बन अपने हमसंगिओ की गलतिया ढूढने बैठ जाते है। इस बात का हमें थोड़ा भी भान  नहीं होता की इस नारकीय अवस्था के मूल में  स्वयं का भी आचरण ही किसी न किसी रूप में जिम्मेदार है। 
                  पारिवारिक कलह कई परिवार को उसके वजूद से मिटा देता है। जहाँ कई छोटी छोटी बाते आगे चलकर नासूर का रूप ले लेता है। इस अवस्था का अगर आरम्भ देखा जाए तो कही भी उसी मूल भाव से शुरू होता है जहाँ हम एक दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगते है। यह अविश्वास पहले तो परिछाई का रूप ले मजाक के तौर पर एक दूसरे के जीवन में दखल देता है। किंतु कब यह मजाक मलिन रूप धर हमारे मष्तिष्क में कब गहन अंधकार का सृजन कर देता है इसका हमको जरा भी आभास नहीं होता है। परस्पर अविश्वास की वो परिछाई अब दिन पर दिन अनेक रूपो में  जीवन के किसी न किसी पहलु को अपने आगोश में ढकती रहती है। इसके परिछाई के पड़ने से हमारे हाव भाव के बदल जाने की प्रक्रिया को अन्य अगर हमें चेताता भी है तो अगले को ही बदल जाने को हमारा मन देखने लगता है।
                आपसी विश्वास की जड़ झूठ के छीटे से हमेशा कमजोर होता है। झूठ और किसी बात को खुद में छिपकर रखना में बहुत अंतर है। झूठ आप के मन मष्तिष्क को खुद को सच न समझ पाने की प्रवृति बढ़ता है। यह जानते हुए भी की कहा गया झूठ किसी न किसी रूप में निकलकर कभी न कभी सामने आ ही जाता है। तब उस छोटे से झूठ से कोई फर्क तो नहीं पड़ता किन्तु यह भावना का उभार अविष्वास की उस खाई की ओऱ ले जाता जो भरने की जगह और चौड़ा होता जाता है।
                     जीवन में किसी बात की अहमियत सिर्फ मुह से बोल देने भर से नहीं होता। अहमियत को हमेशा महसूस करना उसकी उपयोगिता की आदर करना उस भाव को समझना उससे कही ज्यादा होता है। कान में पड़े शब्द कानो से गूंज कर कर हवा में विलीन हो जाते है, किन्तु दिल पर बने भाव और गहरा होकर दिल को सहलाता रहता है। इसलिए किसी की  मधुर शब्दो के प्रति उल्लसित होने से ज्यादा जरुरी है की उसको  भावो को पढ़ने की चेष्टा करे। निर्मूल बातो को बार बार दुहराने से एक खतरा अगले को उस कार्य के प्रति प्रेरित हो जाने का भी होता है, क्योंकि उसे अब तक के किये अपने सकारात्मक कार्य के प्रति खुद में वितृष्णा का भाव भरने लगता है। किसी भी दम्पति को इसलिए एक दूसरे के ऊपर आवेश में ही सिर्फ व्यर्थ के आरोप लगाने से खुद में कई बार विचार करना चाहिए। सबसे बेहतर है कि जब दो पक्ष ही तैश की अवस्था में हो तो एक को अपने ऊपर काबू रखने के गंभीर प्रयास करना चाहिए।अन्यथा कलह की कालिख से पूरा परिवार अन्धकार ग्रस्त और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो सकते है।
                  जब आप इस स्थिति में हो की यह तय है कि कलह के रोज रोज घर में उत्पन्न होने के कोई न कोई कारन आ ही जाते है तो आप अपना प्राथमिकता में बदलाव ले आये। बेसक आपकी प्राथमिकता आपका पति या आपकी पत्नी हो सकती है। अगर दोनों एक दूसरे की प्राथमिकता में है तो पहली बात तो अनबन की कही कोई गुंजाइश नहीं है । जब अनबन होने लगे तो आप इस बात को महसूस करे की दोनों ने अपने अपने ढंग से अपने प्राथमिकता को दूषित किया है। अतः यह बेहतर है कि अब आप इस प्राथमिकता को बदल कर अपने प्राथमिकता में बच्चे को ले आये ताकि आप दोनों का फोकस बच्चे पर हो।
                इस आपसी कलह का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बच्चे के मन मष्तिष्क पर पड़ता है। कितनी भी विकृत परिस्थिति हो आप का प्रयास यह अवश्य होना चाहिए की बच्चे के सामने आप इसका चर्चा न करे। अन्यथा आप दोनों के प्रति बच्चे के मन में एक विलगाव पैदा होगा। क्रोध में कहे गए अकारण शब्द बच्चो के मष्तिष्क पर सदा बैठ जाएगा जिसे आप गभीर प्रयास के बाद भी नहीं मिटा ।
                      इस बात के आंकलन साफ़ बताते है कि किसी परिवार की आर्थिक स्थिति पारिवारिक कलह का कभी भी गंभीर  कारण नहीं रहा है। आज के बदलते समीकरणों में बदलती प्राथमिकताओं के साथ एक दूसरे के मनो भाव को सही ढंग से नहीं पढ़ पाने और समझने की वजह ज्यादा ही आपसी संबंधों को प्रभावित करता है। एक दूसरे को मजाक मजाक में निचा दिखने की प्रवृति, दोनों परिवारों के अहमियत का भाव, दोनों की उपयोगिता के निर्धारण में वाद विवाद, आर्थिक पक्ष में दृष्टिकोण में टकराहट, भविष्य की योजना पर विवाद इत्यादि कई कारण है जो एक दूसरे के रिश्ते के बंधन को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन प्रभावित करता है। जिसको अगर समय रहते दोनों पक्ष अनुभव नहीं कर पाते तो रिश्ते की कड़वाहट किसी भी रूप में परिणत हो जाता है। जिसका परिवार को दंश झेलना पड़ता है।
                   पति पत्नी किसी भी परिवार के धुरी होते है। दोनों की उपयोगिता परिवार के लिए अपरिहार्य है। कोई ज्यादा नहीं है और कोई कम नहीं है। इसलिए एक दूसरे की भावना को समझते हुए एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। बड़ी बातें तो दोनों पक्षो को स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है, जरुरत इस बात की होती है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के छोटी सी छोटी बात को सुने और समझे। जिससे दोनों के मन में एक दूसरे की भाव को पढ़ने और सम्मान करने के आदि हो सके। जिससे की आपका परिवार सही अर्थों में खुशहाल रहे।

Wednesday, 31 May 2017

फरफराते पन्ने....

              भय का आवरण क्या सामाजिक चेतना से हट गया है? नव समाज के लोकतान्त्रिक पुरोधा और सामाजिक शास्त्र के नीति नियंता इस बदलाव को देख पा रहे है ? और यदि देख पा रहे है तो क्या जानबूझकर शुतुरमुर्ग की नियति पर चल रहे है..? दोनों ही स्थिति, वर्तमान की गंभीरता को दर्शाता है। गाँव की गलियो से निकलने वाले कच्चे रास्ते विकास की जिस गति से कंक्रीटों में बदलते जा रहे है ये संक्रमण कही मन मष्तिष्क को वैसे ही कंक्रीट तो नहीं बना रहा है? विकास की हर दहलीज लांघता आज का समाज को इतनी फुर्सत नहीं की इस बदलाव को समझने की चेष्टा करे।मनोविज्ञान की कसौटी पर मानवीय प्रवृति के बदलाव का आंकलन को विज्ञानं के कसौटी पर परखने का प्रयास हो या विज्ञानं के रास्ते इन संचेतना की बदलाव को दर्शन से समझने का प्रयास हो।वर्तमान का सच सामाजिक मानवीय व्यवहार के भावों को जोड़ने वाले तंतुओ के क्षीण होते शक्ति को दर्शाता है। जहाँ भीड़ में तब्दील होते व्यवहार किसी के प्रति किसी भी हद तक दुराग्रही हो सकता है, जो किसी भी स्तर तक गिर विक्षिप्त भाव को रह रह कर उजागर कर देता है। बात सिर्फ दिल्ली की क्यों ?  कही भी नजर दौड़ाइए इस हिंसक प्रवृति की मानसिकताएं आप चारो ओर देख सकते है।
  कट ऑफ मार्कसो की लांघती दीवारों की पीढ़ी ज्ञान की उस वास्तविक चुनौतियों को चुनौती दे रहा है, जहाँ मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के दर्शन को स्वीकार करता है।  उसके ज्ञान और विवेक में अंतर इस चुनौतीपूर्ण व्यवस्था में खुद के जद्दोजहद में मिट सा गया लगता है  । जहाँ प्रश्न किये जाने की गुंजाइश और टिप्पणी को त्वरित प्रतिक्रिया के साथ सब कुछ समय से पूर्व निपटाने का प्रयास हो रहा है। समय की अवधारणा के बदलते मायने तेज बदलती दुनिया में  सह-अस्तित्व के वैचारिक धरातल को किस तरह से बदल रहा ऐसे घटनाएं बस बानगी मात्र ही है।संवाद की एकांगी अवस्था है जहाँ सब कहने का ही प्रयास कर रहे है, सुनने की क्षमता शायद लॉप होता ज रहा है।
       कहते है मृत्यु से बढ़कर कोई सत्य नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर जीवन है। जिसके ऊपर मानव सृष्टि के उद्भव से लेकर आज तक सिर्फ और सिर्फ इस सफर के पड़ाव में मानव व्यवहार पर दर्शनों के असीमित व्यख्या है। किंतु यह  सत्य कितनी आसानी से भीड़ बन हवाओ में विचरण कर रहा है जहा जिंदगी की कीमत क्या है? शूल सा प्रश्न चुभता है और उसके लिए कही ताकने झाँकने की जरुरत नहीं है। बड़ी आसानी से हम अपने सुविधानुसार विवेचना कर आगे तेजी से कदम बढ़ाते जा रहे है। ये त्वरित चाल सिर्फ उन्ही कदमो में है जो या तो खुद को काफी आगे निकल जाने का मुगालता पाल रखे है या जिनको लगता है हम काफी पीछे छूट गए तो किसी बंदिशों से विद्रोही तेवर है। समष्टि की अवधारणा जब बंटे हुए अस्तर सी अनेक परतों में दबी कुचली सी हो और हर कोई अपने ही अस्तर को दुरुस्त करने के लिए अपने सुई और धागे का इस्तेमाल कर रहा हो, यक़ीन मानिये वो बेहद ही बदरंग होगी। हम अपने विशष्ट शैली में अवधारणा के मानदंड पर उसका विबेचना करते रहे मूल जड़ तक जाने की हमारी चेतना न हमें गवाही देता और न वर्तमान का गर्म हवा मौका। हमारा विवेक इस कदर विकेन्द्रित होता जा रहा सत्य की पुष्टि के मायने , विचार और धारा पर सवार होकर सबके सामने उभरता है ।
      बेहतर है कि इन छोटी छोटी घटनाओं को वर्तमान ढाँचे के आईने में न देखे। किसी घटनाओं के तत्कालीन कारण को सिर्फ कानून व्यवस्था और राज्य की भागीदारी की आलोचना कर आगे बढ़ते जाने की प्रवृति काफी भयानक और विकृत हो सकता है। रोग की जड़ में जाने का न कोई प्रयास है न कोई जरुरत । क्योंकि आज में जीने की हम आदि हो गए है। अंदर से सब इतने डरे सहमे है कि कल का सच्चाई मुँह बाए सामने खड़ी है और हम है "अल्टरनेटिव रास्ते" की तलाश में खानापूर्ति कर वक्त जाया करने में लगे है।
     वर्तमान का सच काफी कड़वा और घिनौना है और हम नाक और कान बंद कर आगे बढ़ने की असफल चेष्टा कर रहे। सामाजिक मान्यताओं के पुस्तक के पन्ने ऐसे हरकतों से तड़प कर फरफरा रहे है और एक एक कर बिखर रहे है। हम पन्नो को सहेजने की जगह सिर्फ जिल्द बदलने में लगे है।
      

Sunday, 28 May 2017

बैगपाइपर

                एक राजा था । काफी वर्षो से राज्य कर रहा था।उसे जो राज्य की विरासत मिली थी उसने काफी मेहनत से उसे सवारने का प्रयास किया। उसका राज्य पहले की अपेक्षा काफी मजबूत भी हो गया।लोग मेहनत कर अपना रोजी रोटी भी चला रहे थे।पहले तो कुछ पडोसी राज्यो ने परेशान भी किया किन्तु जब लगा की इससे टकराना ठीक  नहीं तो अमन चैन से ही आगे बढ़ाना उचित समझा।किन्तु बीच बीच में ऐसा कुछ हरकत कर जाता की राजा और प्रजा दोनों बेचैन हो जाते। इसी में कुछ लोग जो राजा के विरोधी थे।अब राजा के खिलाफ प्रलाप जनता के बीच करने लगे। रोज रोज अब जनता के बीच जाकर राजा के विरुद्ध कोई न कोई आरोप लगा देते। जनता जो की अपने में व्यस्त रहता पहले तो अनसुना रहा,लेकिन हर रोज कुछ न कुछ सुनकर अब उसके मन में भी संदेह उठने लगा। राजा के गुप्तचर उसको इस बात की सुचना समय समय पर देते रहते किन्तु वह अपने काम में व्यस्त रहता और कुछः नहीं कहता। अब जो यह देखते तो उनके मन में भी शंका उठने लगा। हर रोज राजा के खिलाफ कोई न कोई प्रवंचना होता और राजा है कि कुछ कहता नहीं। राजदरबार और उसके मातहत को भी राजा के इस व्यवहार पर शंका होने लगा। अब कुछ लोग सोचने भी लगे कही कुछ गड़बड़ तो नहीं। आखिर राजा कुछ कहता क्यों नहीं।
              दिन बीतने लगे।धीरे धीरे प्रजा भी राजा के व्यवहार पर शंका करने लगे। अब अगर दूसरे राज्य द्वारा कुछ कर दिया जाता तो विरोधी इसके लिए अब राजा की निष्ठां पर प्रश्न उठाने लगे। जनता भी धीरे धीरे अब दैनिक कार्य कलापो से ऊपर उठ राष्ट्रभक्ति स्वाभिमान ,संस्कृति के मूल्याङ्कन में विचार विमर्श शुरू कर दिया। विरोधी ने राजा के अब तक के कार्य का मूल्यांकन करना शुरू किया। अब जनता के मन में भी शंका के कीड़े पनप चुके थे। सो उन्होंने विरोधीयो के किये जा रहे मूल्यांकन को सही मानने लगे। इसका आधार किया है और किसकी तुलना में मूल्याङ्कन है इससे अब किसी को कोई मतलब नहीं था। मन में अब जो ज्वार उठ रहे थे उसमे वास्तविकता कम और भाव ज्यादा थे। धीरे धीरे प्रजा और खिलाफ होने लगा। विरोधी के बात पर अब प्रजा यकिन  करने लगा। लोगो ने एक तरह से बिना राजपठ के उसे राजा मानने लगे।
         अब राजा को ये पता चला की जनता में उसके प्रति अविश्वास हो गया तो उसने अपने सभी दरबारियों को बुलाकर मंत्रणा करना शुरू किया। इस तरह से जब प्रजा विरोध में हो तो कितने दिन तक राज पाठ सुरक्षित रहेगा। यह सोचकर उसने यह निर्णय लिया की क्यों न विरोधी नेता को राज्य सौप दिया जाय और देखे ये राज्य की खुशहाली के लिए किया करता है। यह कहकर उसने अपने पूरे मंत्री परिषद् के साथ इस्तीफा देकर विरोधी नेता को राज्य सौपने की घोषणा कर दी।
           इस फैसले के साथ ही पूरे राज्य में ख़ुशी मि लहर फ़ैल गई। चारो ओऱ ढोल नगर बजने लगे आतिशबाजियों से पूरा राज्य गूँजने लगा। लोगो को लगा की अब मसीह आ गया और जिस स्थिति में है उससे बहुत बेहतर उनकी स्थिति हो जायेगी। विरोधी नेता ने राज्य ग्रहण के साथ ही शब्दों के सुनहरें भविष्य रच दिया।लोगो ने कहना शुरू किया कि जो इतना अच्छा बोलता और सोचता है तो कितना अच्छा काम करेगा।  उसने अपने सबसे काबिल लोगो को अपने मंत्री परिषद् में रखा ।बेसक जनता न पसंद करते हो।किन्तु अब राज्य तो उनके पास था। लोगो के आँखों में वादों के लंबे पेहरिस्त तैरने लगे। तत्परता ऐसी की लगने लगा सब कल ही पूरा हो जाएगा।
             अब राजा बनते ही उसे कुर्सी में छिपे कांटे चुभने लगे। सो वो समझ यहाँ से बाहर रहने में ही भलाई है। यह सोचकर उसने पडोसी और अन्य  देशो का भ्रमण शुरू कर दिया। जनता को भरोसा दिया की जब रिश्ते पड़ोसी के साथ मधुर होंगे तो तनाव नहीं होगा और तनाव नहीं होगा तो हम विकास पर ध्यान देंगे। फिर अपना राज्य खूब विकास करेगा। जनता ने उसकी इस सोच का दिल खोल के स्वागत किया और मगन हो सुन्दर भविष्य के सपने संजोने लगे। किन्तु कुछ दिन बीतने पर जनता को अपनी हालात में कोई सुधार नहीं नजर आया। जनता सवाल करती उससे पहले राजा कोई नया दांव खेल देता और जनता फिर ताली बजाने लगती। बीच बीच में कुछ काम जो पिछले राजा ने अधूरे छोड़ रखे थे उसके पूरा होते ही मुस्कुराकर खूब जनता का अभिवादन लेता था। किंतु जैसे ही जनता अब मूल्यांकन करती फिर से कुछ ऐसा कर देता की समर्थक ताली पीटते किन्तु जनता के हाल जस के तस थे। करते करते कुछ वर्ष बीत गए किन्तु जनता की हालत जस तस बल्कि और ख़राब होने लगी। जनता अपनी मन की बात कहना चाहता है लेकिन राजा झरोखे से अपनी मन की बात सुनाकर गायब हो जाता।
           किन्तु जनता सब कुछ के बाद अब भी खुश और मोहित है। उसे कर्म के फल का कोई मलाल नहीं है उसे पता है उसका राजा रात रात भर जगता है।खूब सोचता है और बाते करता है।सभी को अपनी मन की बात भी बताता है। किन्तु कुछ लोग अब पहले वाले राजा को ढूंढने में लगे है। लेकिन अब भी एक लंबी लाइन है जो "बैगपाइपर" के पीछे है। राजा एक नई धुन बजा देता और भीड़ पीछे पीछे होकर मदमस्त हो खूब ढोल नगारे पीटने लगता। दुखी और व्यथित लोगो के अब आवाज उसमे ग़ुम हो जाते।
         पहले वाला राजा अब भी उसी राज्य में है। जो कभी काम के बोझ से मुस्कुरा तक नहीं पाता था । अब कभी कभी जनता को देख मुस्कुरा देता है। जनता अब समझ नहीं पा रहा है कि यह राजा की नाकामयाबी देख कर मुस्कुरा रहा है या जनता की स्थिति देख कर...???

Sunday, 14 May 2017

मातृ दिवस पर कुछ पंक्तियां....।।

कुछ लिखू
पर क्या लिखूं
अक्षरों की दुनिया से जाना
एक दिन तुम्हारे लिए भी है।
पर तुम मेरे लिए
सदैव से वैसे ही हो ,
अक्षरों और शब्दों से परे हो
तुम अर्थ और तात्पर्य से बड़े हो ,
क्षण,पल,अवधि की सीमा
एक दिन में कैसे समायेगा ?
मेरे निर्माण, पोषण और वर्तमान का भाव
बस एक दिन में कैसे आएगा ?
मैं एक दिन में कैसे कहूँ-क्या कह?
मैं हु तब भी तुम हो
मैं नहीं हूँ तब भी तुम हो ।
मेरी सृष्टि की रचैयित तुम
तुम ही पालनकर्ता
मेरी जीवन की धुरी तुम
तुम ही मेरे परिक्रमा की कक्षा हो ।
शब्दो की क्षमता नहीं
मेरे भाव को समेट सके
व्योम की सीमाहीन अनंत सी
कैसे तुम्हे समझ सके।
जीवन के प्यास में
अमृत की धार हो
बस और क्या कहे
संपूर्ण जीवन की सार हो।
क्या कहूँ मै ?
बहुत कुछ है पर पता नहीं
क्या कहूँ मैं ?

Saturday, 15 April 2017

संतोष ...।

            झमाझम बारिश हो रही थी। पता नहीं क्यों बादल भी पुरे क्रोध से गरज रहा था। पल भर में मंदिर का परिसर जैसे खाली हो गया। कई को अंदर इसी बहाने कुछ और वक्त मिल गया।पूजा का थाल लिए लोग या तो अंदर की ओर भाग गए या कुछ ने प्रागण में बने छत के नीचे ठिकाना ढूंढा तो किसी ने अपने छाते पर भरोसा किया। महिलाएं हवा से अपनी पल्लू संभाली तो किसी ने  पूजा की थाल को इन पल्लू से ढक लिया । आखिर भगवान् को भोग लगाना है। पंडित जी अब थोड़ा इन्तजार करने लगे, क्योंकि भक्तजन तीतर बितर हो गए।
        इन सबके बीच वो लड़का अब भी मंदिर के बाहर यूँ ही खुले आसमान के नीचे खड़ा है। बारिश से पूरा बदन भींग रहा है। बदन के कपडे शरीर से लिपट अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है। पेट या पीठ पता नहीं चल रहा। एक दो ने भागते भागते उसे छत के नीचे छुपने के लिए कहा भी। लेकिन जैसे अनसुना कर वो बारिस का ही इन्तजार कर रहा था। कुछ झिरकते हुए उससे बचते निकल गए।
       उसका चेहरा किसी ताप से झुलस सा गया हो ऐसा ही दिख रहा । पानी की बूंद सर से गुजर पेट को छूते छूते जमीन में विलीन हो रहा । इस बारिश के बूंदों को पेट से लिपटते ही चेहरे से समशीतोष्ण वाष्प निकल रहा  है। ओंठो से टकराते पानी की बूंदों को जैसे गटक ही जाना चाहता है। वो अब भी वही खड़ा है।
        बारिस की बुँदे अब थमना शुरू हो गया।
 मंदिर अंदर से पंडित जी ने लगभाग चिल्लाते हुए आवाज लगाया -सभी भक्तजन अंदर आ जाए....। भगवान् के भोग का समय हो गया।
लोग निकलकर मंदिर के अंदर प्रवेश करने लगे। किसी के हाथ प्रसाद के थाल, किसी ने मिठाई का पैकेट तो कोई फल का थैला लटकाए अंदर बढ़ने लगे।
       वो अब भी वही खडा हो उन प्रसादो को गौर से देख रहा था ,एकटक निगाहे उसी पर टिकी हुई है ।बीच बीच में ओंठो पर लटके बूंदों को अब भी गटकने की कोशिश कर रहा है ।
          "शायद भगवान उससे ज्यादा भूखे है".....उसके चेहरे पर पता नहीं क्यों संतोष की हलकी परिछाई उभर आई है।

Thursday, 6 April 2017

उलझे ख्वाव ....

किसी दिन अँधेरे में
चाँद की लहरों पर होकर सवार
समुन्दर की तलहटी पर
उम्मीदों की मोती चुगना ।।

किसी रात गर्म धुप से तपकर
आशाओं के फसल को
विश्वास के हसुआ से
काटने का प्रयत्न तो करना ।।

बिलकुल मुश्किल नहीं है
रोज ही तो होता है और
दफ़न हो जाते जिन्दा यूँ ही कई ख्वाव
अपने अरमानो के चिता तले ।।

दिन के उजालो में
जब अंधेरे की रौशनी छिटक जाती है
और हम देख कर भी
देख नहीं पाते या देखना नहीं चाहते ।।

लफ्फाजी के गुबार में
अपनी आकांक्षाओं का अर्थ तलाशते रहते है और
बुझते रहते हर रोज ही कई  अरमानो के दिये
दिन के उजाले में किसे दीखता है ये ?

रिस चुके आँखों में रेगिस्तान का बंजर
कहाँ दीखता किसी को
और कभी मापने की कोशिश तो करे
पुस  की रात में जठराग्नि की ताप को।।

Friday, 31 March 2017

लक्ष्य

         प्रभु मन में क्लेश छाया हुआ है। अंतर्मन पर जैसे निराशा का घोर बादल पसर गया है। कही से कोई आशा की किरण नहीं दिख रहा। लगता है जैसे भविष्य के गर्भ में सिर्फ अंधकार का साम्राज्य है। मन में वितृषा छा गया है। प्रभु आप ही अब कुछ मार्ग दर्शन करे।वह सामने बैठ हताशा भरे स्वर में बुदबुदा रहा जबकि प्रभु ध्यानमुद्रा में लीन लग रहे थे।पता नहीं  ये शब्द उनके कर्ण को भेद पाये भी या नहीं। फिर भी उसने अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर आरोपित कर दिया। प्रभु के मुख पर वही शांति विराजमान ,योग मुद्रा में जैसे आठो चक्र जागृत, पद्मासन में धर कमर से मस्तिष्क तक बिलकुल लम्बवत ,हाथे बिलकुल घुटनो पर अपनी अवस्था में टिका हुआ। उसने दृष्टि एक टक अब तक प्रभु के ऊपर टिका रखा था। आशा की किरण बस यही अब दिख रहा । कब प्रभु के मुखरबिन्दु से शब्द प्रस्फुटित हो और उसमें उसमे बिखरे मोती को वो लपेट ले जो इस कठिन परिस्थिति से उसे बाहर निकाल सके।यह समय उसके ऊपर कुछ ऐसा ही है जैसे घनघोर बारिश हो और दूर दूर तक रेगिस्तान का मंजर कैसे बचें। संकटो के बादल में घिरने पर चमकते बिजली भी कुछ राह दिखा ही देती है और प्रभु तो स्वंम प्रकाशपुंज है। प्रभु के ऊपर दृष्टि टिकी टिकी कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।
             क्या बात है वत्स , कंपन से भरी गंभीर गूंजती आवाज जैसे उसके कानों से टकराया उसकी तन्द्रा टूट गई। पता नहीं वो कहा खोया हुआ था। चौंककर आँखे खोला दोनों हाथ करबद्ध मुद्रा में शीश खुद ब खुद चरणों में झुक गया और कहा-गुरुदेव प्रणाम। प्रभु ने दोनों हाथ सर पर फेरते हुए कहा- चिरंजीवी भव। कहो वत्स कैसे आज  इस मार्ग पर पर आना हुआ। प्रभु गलती क्षमा करे कई बार आपके दर्शन को जी चाहा लेकिन आ नहीं पाया।इन दिनों असमंजस की राहो से गुजर रहा हूँ। जीवन में लगता है निरुद्देश्य के मार्ग से चलकर उद्देश्य की मंजिल ढूंढ रहा हूँ। निर्थकता और सार्थकता के बीच खिंची रेखा को भी जैसे देखने की शक्ति इस चक्षुओं से आलोपित हो गया है। जीवन को जीना चाहता हु लेकिन क्यों जीना चाहता हु इस उद्देश्य से मस्तिष्क भ्रमित हो गया है। प्रभु आपके सहमति स्वरूप मैं इस जीवन को अपनी दृष्टि से देखना चाहता था। आपसे पाये ज्ञान से मैं इस समाज को आलोकित करना चाहता था किंतु अब लगता है खुद ज्ञान और अज्ञान के भाव मध्य मस्तिष्क में दोलन कर रहा है। कब कौन से भाव के मोहपाश मन बध जाता पता ही नहीं चलता।जागृत अवस्था में भी लगता है मन घोर निंद्रा से ऊंघ रहा है। प्रभु मार्गदर्शन करे।
            प्रभु के मुखारबिंद पर चिर परिचित स्वाभाविक मुस्कान की स्मित रेखा उभर आई। दोनों पलक बंद किन्तु प्रभु के कंठ से उद्द्गार प्रस्फुठित हुए- वत्स मै कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर तुम्हारा मन मस्तिष्क इतना उद्धिग्न क्यों है। तुमने योगों के हर क्रिया पर एकाधिकार स्थापित कर रखा है, फिर इस हलचल का कारण मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
               प्रभु आप सर्वज्ञानी है, आप तो चेहरे को देख मन का भाव पढ़ लेते है। अपनी पलकों को खोल एक बार आप मेरे ऊपर दृष्टिपात करे।प्रभु आप सब समझ जाएंगे। उसके स्वर में अब कातरता झलकने लगा।प्रभु की नजर उसपर पड़ी और उसकी दृष्टि नीचे गड गई। वत्स मेरे आँखों में देखो क्यों नजर चुराना चाहते हो। नहीं प्रभु ऐसी कोई बात नहीं लेकिन आप के आँखों में झांकने की मुझमे सामर्थ्य नहीं है। मैं आपके आदेशानुसार कर्तव्य के पथ पर सवार हो मानव समिष्टि के उत्थान हेतु जिन समाज को बदलने की आकांक्षा पाले आपके आदेश  मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। अब उस राह पर दूर दूर तक तम की परिछाई व्याप्त दिख रही है। मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा की आखिर इस अँधेरी मार्ग को कैसे पार करू जहाँ मुझे नव आलोक से प्रकाशित सृष्टि मिल सके।
            तुम कौन से सृष्टि की बात कर रहे हो वत्स। परमपिता परमेश्वर ने तो बस एक ही सृष्टि का निर्माण किया है।सारे जीव इसी सृष्टि के निमित्त मात्र है। तुम कर्म विमुख हो अपने ध्येय से भटक रहे हो। तुम्हारी बातो से निर्बलता का भाव निकल रहा है। आखिर तुम खुद को इतना निर्बल कैसे बना बैठे।
              अपने आप को संयत करते हुए कहा- प्रभु जब सत्य एक ही है तो उसे देखने और व्यख्या के इतने प्रकार कैसे है।आखिर हर कोई सत्य को सम भाव से क्यों नहीं देख पाता है। आखिर  मानव उत्थान के लिए बनी नीतियों में इतनी असमानता कैसे है ? सक्षम और सामर्थ्यवान दिन हिन् के प्रति विद्रोही और विरक्त कैसे हो जाते है? अवसादग्रस्त नेत्रों में छाई निराशा के भंवर को देख देख कर अब मेरा चित अधीर हो रहा है और इन लोगो के क्लांत नेत्र को देख देख व्यथित ह्रदय जैसे इनका सामना नहीं करना चाहता । प्रभु मुझे आज्ञा दे मैं पुनः आपके सानिध्य में साधना में लीन होना चाहता हूँ।
         प्रभू ने उसके सर पर पुत्रवत हाथ फेरते हुए कहा-लेकिन इस साधना से किसका उत्थान होगा। आखिर किस ध्येय बिंदु को तुम छूना चाहते हो। समाज के उत्थान हेतु जिस कार्य को मैंने तुम्हे सौपा है। आखिर वत्स तुम इससे विमुख कैसे हो सकते हो। लगता है मेरी शिक्षा में ही कुछ त्रुटि रह गई। कातरता से भरे स्वर में उसने कहा नहीं प्रभु ऐसा न कहे।मैं आपको तो हमेशा गौरवान्वित करना चाहता हूँ।परंतु प्रभु आपने इस सन्यास धर्म के साथ राजनीति के जिस कर्म क्षेत्र में मुझे भेज दिया, लगता है वो मेरे उपयुक्त नहीं है।प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-क्या वत्स तुम इतने ज्ञानी हो गए की खुद की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर पा रहे हो। इसका तो अर्थ हुआ की मै तुम्हारे क्षमता का आकलन करने योग्य नहीं। प्रभु धृष्टता माफ़ करे आपकी क्षमता पर किंचित शक मुझे महापाप का हकदार बना देगा। मेरा अभिप्राय यह नहीं था। फिर क्या अभिप्राय है पुत्र -प्रभु के स्वर से वात्सल्य रस बिखर गए।
                  प्रभु इतने वर्षों से मानव सेवा हेतु मैंने राजनीति का सहारा लिया।यही वो माध्यम है जिसके द्वारा मानव कल्याण की सार्थक पहल की जा सकती है।किंतु प्रभु इसका भी एक अलग समाज है, जो कल्याण की बाते तो करते है विचारो के धरातल अवश्य ही अलग अलग है किंतु मूल भाव में सब एक से दीखते है। प्रभु इनके मनसा,वाचा और कर्मणा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है।इस कारण इनके साथ तालमेल कैसे करूँ प्रभु ?खुद को दूषित करू या इनसे दूर हो जाऊं। प्रभु क्या करूँ मैं? 
                 वत्स तुम्हे तो मैंने निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है फिर भी तुम अर्जुन की तरह विषादग्रस्त कैसे हो सकते हो। गीता के श्लोक अवश्य तुम्हे कंठस्त होंगे, लेकिन मर्म समझने में लगता है तुम भूल कर बैठे हो।पुत्र मानवहित हेतु ध्येय की प्राप्ति में अगर काजल की कोठरी से निकलने में कालिख से डर कर वापस  लौट जाया जाए तो इसका तो अर्थ हुआ की अज्ञान के अंधकार को विस्तार का मौका देना। किसी न किसी को तो अपने हाथों से कालिख को पोछने होंगे।क्या जयद्रथ और अश्व्थामा का दृष्टान्त वत्स तुम भूल गए। तो क्या भगवान कृष्ण अब भी इन धब्बो से तुम्हारी नजरो में दोषी होंगे। समझो अगर भगवान् कृष्ण ने इस विद्रूपता को अपने हाथों से साफ़ नहीं किया होता तो आज मानव की क्या स्थिति होती। कर्तव्य के राह पर पाप पुण्य हानि लाभ से ऊपर उठ देखो , समग्र मानवहित जिसमे दीखता है उपयुक्त तो वही मार्ग है। यही तो योग है कि इस परिस्थितयो के बाद भी अपने को  लक्ष्य से भटकने नहीं देना है। अगर कालिख लग भी जाए नैतिकता के सर्वोत्तम मानदंड और मानव कल्याण के उत्कर्ष के ताप से स्वतः कालिख धूल कर एक नए ज्ञान गंगा की धारा में परिवर्तित हो जाएगा। तुम प्रयास तो करो। वत्स कोई न कोई तो प्रथम बाण चलाएगा। इस डर से गीता श्रवण के बाद भी  गांडीव अगर अर्जुन रख ही देता तो क्या आज महाभारत वैसा ही होता ? अनुकूल स्थिति में कर्तव्य पथ पर चलना सिर्फ दुहराना है उसमें कैसी नवीनता। समाज में घिर आये ऐसे विचार की सन्यासी का राजनीती से क्या लेना ही इस दुरावस्थिति का कारण है। समाज के  शिक्षित जन इस स्थिति में आम जन के दुरवस्था से विमुख हो सिर्फ खुद के प्रति मोह भाव रख ले तो किसी न किसी को तो पहल करना ही होगा। पुत्र सन्यास आश्रम समाज से विमुखता नहीं बल्कि इसकी सापेक्षता का भाव है।जब तक यह अपनी नीति नियंता समष्टि के हर वर्ग के अनुरूप बनाकर चलता है और सब समग्र रूप से खुशहाल हो हम भजन कीर्तन  कर भागवत ध्यान में लीन रह सकते है।किंतु अगर ऐसा नहीं है तो हमें तो इसका प्रतिकार कर उत्तम ध्येय के मार्ग पर सभी को आंदोलित करना ही होगा। जीवन योग तो पुत्र ऐसा ही कहता है।परम सत्य का ज्ञान तो वर्तमान के साक्षत्कार से ही होता है भविष्य का तो सिर्फ चिंतन और मनन ही क्या जा सकता है।
              सन्यास धर्म समाज से विमुख करता है इस प्रतिकूल विचार के भाव को बदलने हेतु ही तो तुम्हे भेजा।इस अवधारणा से पुत्र मुक्त हो जाओ की सन्यास आश्रम परिवार से विरक्ति है ,बल्कि पूरे समाज को अपना परिवार मान उसके प्रति आसक्ति का भाव ही सन्यास धर्म का मर्म है। अवश्य आलोचनाओं के तीर तुम्हारे हिर्दय को छिन्न विच्छिन्न करेंगे किन्तु जब धेय श्रेष्ठ है तो ऐसे बाधाएं मार्ग च्युत नहीं कर सकता है।सन्यास धर्म खुद को श्रेष्ठ तो बनाना है किंतु यह प्राणी मात्र को श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रसस्त करने हेतु है।जब समाज का कोई भी क्षेत्र कलुषित हो जाए तो उसका उद्धार करना ही सन्यासियों का धर्म भी है और कर्म भी है। आज राजनीति की पतन की जो गति है उसे समय रहते नहीं थामा गया तो पूरे मानव समाज को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अतः वत्स अपने धेय्य से न भटको और इन्ही राहो पर चलकर ही तुम योग और सन्यास की श्रेष्ठता को सिद्ध करोगे। यह हमारा दृढ़ विश्वास है। इतना कहने के साथ ही प्रभु ध्यानमग्न हो गए।
            उसने प्रभु के चरणों में अपना शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम किया। अब उसके चेहरे पर संतोष और दृढ विश्वास की आभा फ़ैल गया। पीछे मुड़कर उन राहो चल दिया जिनसे चलकर आया था। दृष्टि विल्कुल अनंत में टिकी हुई जैसे उसे लक्ष्य स्पष्ट नजर आ रहा हो।

Tuesday, 14 March 2017

मेघ की बेचैनी

          इस यक्ष को अब मेघ से ईर्ष्या हो गई थी । मेघ को अब दूत बनाने के ख्याल से ही वह शंदेह के बादलो में घिर जाता था।
              वह प्रेयसी का सौंदर्य वर्णन नहीं करना चाहता था।उसे डर था उन तालों में खेलती नवयौवना के झांघो पर दृष्टि  फिसलने से कही वो मोहित न हो  जाए। आखिर कुछ भी है , है तो वह इंद्र का दास ही। उसकी लोलुपता और गौतम के श्राप को कौन नहीं जानता।
         नहीं इस विरह में भी सन्देश तुझे, नहीं , रहने दो। ये नैनाभिसार हरीतिमा जो कण कण में समाई है। दूर कही भी नजर दौराउँ इन्ही खिलती कली में मेरी भी प्रियतमा हरिश्रृंगार कर इन कल कल करती नदियों में अटखेलियां कर रही होंगी। क्या पता मेरा संदेशा देने से पहले ही कही तुम इन कटि प्रदेश की घाटी में खो जाओ। 
उस उफनती धार को तो फिर भी थाम लोगे किन्तु उन उफनती उभार में जाकर कही तुम भटक गए तो मैं कहाँ तुन्हें ढूंढता फिरूंगा , माना कि इंद्रा के दरबार में अप्सराओं के बीच पल पल मादक नैनो से तुम्हारी नजर टकराती होगी। किन्तु मेरे मृगनैनी के तीर से टकराकर व्हाँ तुम्हारा ह्रदय विच्छिन्न नहीं हो जाएगा, मुझे शंका है। यह संदेशा तुम छोड़ ही दो।
        संदेशा मेघ को देना था, प्रियतम अपने प्रियतमा के विरह में पल व्ययतीत कर रहा था।
         मंजर बदल गए थे। काल बदल गए थे।काल पल पल के धार में बहती आज से होकर गुजर रही थी। 
अब यक्ष नहीं थे, न प्रियतम का निर्वासन था। फिर भी......
           बेचैन लग रहा था। मन हवा के झोंके से भी सशंकित हो जाता, कही कोई अपना तो नहीं टकरा गया। आँखों में मिलन की चाहत से ज्यादा शंका की परिछाई निखर रही थी। प्रेम के कोरे कागज पर दिल में छपी हस्ताक्षर कही कोई पढ़ न ले। दिल में उमंगें कम वैचैनी का राग ज्यादा छिड़ा हुआ था। आखिर पहली बार आज सोना खुद तपने अग्नि के पास जा रहा है। सोना तो तपने के बाद निखारता है किंतु अग्नि तो खुद अपना निखार है। उस प्रेम की अग्नि का निखार उसके दिल पर छा गया था, उसके ताप से उसका रोम रोम पिघल कर बस उसमे समा जाना चाहता था या यूँ कहे उसमे मिल जाना चाहता था। प्रेम की तपिश का कोई पूर्वानुमान उसे नहीं था। उसने सिर्फ यक्ष की ह्रदय व्यथा को मेघदूत में पढा था। उसे जिया नहीं था।
         नजरे बिलकुल सतर्क जैसे  डाका डालने की तैयारी में हो और चौकीदार आसपास घूम रहा हो। फिर भी इश्क के जंग में आज आमना सामना हो ही जाय इस भाव को भर कदम बढ़ते जा रहे थे। वह दूर इतनी की गले की तान उसके कर्ण में रस न घोल पाये खड़ी थी। आँखों में कसक दिल में धड़क रही गती के साथ तैरता डूबता था।
       अब तो इस दुरी पर आकर ठिठक कर रुक जाने के कितने पूर्वाभ्यास हो चुके है उसे खुद भी याद नहीं । आज उसने कदम न ठिठकने देने की जैसे ठान रखा है। किन्तु पता नहीं क्यों अब इतने पास देखकर कदम में कौन सी बेड़िया जकर जाती है।
       वो  आज भी वही खड़ी है, जहाँ रोज रहती है। इसी विशाल छत के नीचे दोनों अलग अलग विभाग में काम करते।  बिलकुल बिंदास लगती है जैसी यहाँ की लड़कियां होती है। उसका अल्हड़पन उसकी पटपटाते होंठ साँसों की धड़कन से उभरते सिमटते उभार और सहेलियों संग हंसी की फुलझड़ी छोड़ती किन्तु जैसे ही उसकी नजरी मिलाप होती उन आँखों में शर्म की हरियाली निखर जाती, बिंदास और अल्हड़पन अंदाजों पर छुई मुई का प्रभाव छा जाता , वो बस ठिठक सी जाती। वह सोचता शायद यहाँ की नहीं है।
     न जाने कितने दिनों से यह सिलसिला चल रहा है। अब तो दोनों के दोस्तों ने भी छेड़ना बंद कर दिया था। बदलते परिवेश के खुले दुनिया में जहाँ वो दोनो भी बस इस आमना सामना से अलग बिलकुल खुले खुले है। जब  आइसक्रीम सी जम कर रूप लेते प्यार थोड़ी सी उष्णता पर पिघल कहाँ विलीन हो जाते पता ही नहीं चलता।दोनों के हृदयधारा प्रेम की ग्लेशियर सा जम गया था। दोनों जितने पास पास है उससे पास नहीं हो सकते। लगभग यही हर रोज होता है। 
      अब समय के साथ एहसास और गहरा होता गया है, किन्तु दोनों के बीच इश्क की गुफ्तगूँ में लब अब भी नहीं पटपटाये , आँखों की पुतलियां  जैसे शब्द गढ़ एक दूसरे के दिल में सीधे भेज देते, कुछ पल के ये ठहराव में दोनों के बीच कितने हाले दिल बयां हो जाता वो नजर टकराने के बाद गालो पर उभर आती चमक सभी से कह देती।
        दोनों इश्क के समंदर में डूब रहे थे। दिल ही दिल इकरार हो गया था। बहुत सारी गुफ्तगूँ पास आये बिना भी हो चुकी थी। अपने अपने परिवेशों की छाप के इतर जैसे ही आमना सामना होता एक अलग समां बन जाती। खुले माहौल की छाप उसके दूर होने से ही उभरती , उसको देख जाने कैसे उसके चेहरे पर छाई लालिमा संकोच के दायरे में सिमट कत्थई हो जाती। बगल से गुजर जाने पर ह्रदय हुंकार भरता अंदर की आवाज बंद होठो से टकराकर अंदर ही गूंज जाती। पर पता नहीं कैसे यह आवाज उसकी ह्रदय में भी गूंज जाती । नजर से जमीन कोे सहलाते  शर्म के भार से दबे पैर ठहर ठहर का बढ़ती और दोनों फिर पूर्ववत सा गुजर जाते।
     लेकिन शायद अब प्रेम में मिलन हो गया था। हर रोज ये और गाढ़ा हो कर दोनों के चेहरे पर निखरने लगा था।
इस मिलन के कोई साक्ष्य न थे फिर भी अब सभी ने दोनों को एक ही मान लिया। संदेशवाहक वस्तुओं का आदान प्रदान में सिर्फ वस्तु आते जाते ।उसमे छिपे सन्देश को बस दोनों के नजर ही पढ़ने में सक्षम थे।
         आज वह ज्यादा बैचैन है कई दिन गुजर गए अब। अचानक से कही ओझल हो गई। दफ्तर और सहेलियां कुछ भी बताने में अपनी असक्षमता जाहिर कर दी। टूटते पत्ते से अब एक एक पल के यादे आँखों से झर रहे थे। विरह गान के सारे मंजर जैसे उसके पास खड़े हो उसके दिल के सुर से मिल गएथे। मिलन तो कभी हुआ नहीं किन्तु विछुरण सदियों के भार का दर्द उसके दिल में उलेड़ दिया था।
        वो कहाँ चले गई उसे कोई पता नहीं था, वही नदी के किनारे उचाट मन से पत्थरो को कुरेद रहा था। आसमान उसकी इस ख़ामोशी को निहार रहा था। सूरज उसके गम से दुखी  कही छिप गया।
         मेघ से नहीं रहा गया। छोटे बड़े काले गोरे सभी आसमान में उभर आये। नजर उसने मेघ की ऒर फेरा, दिल में मेघदूत के यक्ष के विरह गाथा जैसे उसी की ह्रदय वेदना के स्मृति हो। आँखे काले काले गंभीर बादलो में कुछ ढूंढने लगी।रह रह कर बदलते बादलो की छवि में जैसे वो उभर आती और बढ़ते हाथ जैसे गालो को छूना चाहता हवा के झोंके में विलीन हो जाती। बस हाथ आसमान में उठे रह जाते।
        किन्तु फिर भी उसने मेघ को अपना संदेसा नहीं बताया। प्रियतमा के शौन्दर्य का वर्णन कर वह मेघ के मन में अनुराग नहीं जगाना चाहता था। उसके अंग अंग बस उसके नजर में कैद थे किसी को भी उसकी झलक दिखा अपने पलकों से आजाद नहीं करना चाहता था।
          उमड़ते घुमड़ते मेघ दूत का रूप धरने को बैचैन दिख रहा है लेकिन वो अब भी उस झोंके के इन्तजार में बैठा था जो संभवतः उसके प्रेयषी का संदेश ले के आ रहा हो।
      किन्तु पता नहीं क्यों मेघ इन संदेश को उसके प्रियतमा तक पहुचाने के लिए खुद बेचैन दिख रहा था। जबकि उसकी  बंद पलके अपनी दिल की गहराई में ही उसको तलाश रही है......शायद.....यही कहीं हो ....।।।

Sunday, 12 March 2017

होली मुबारक.....

होली त्यौहार ही ऐसा है जो निकृष्ट पल के उदासीन माहौल में भी अपनी खनक छेड़ देता है। उदास पलो के भाव इस फागुनी बयार के झोंके में विलीन हो जाते है।  मन  पर छाये सुसुप्ता के भाव में रंगों की महक एक नए उत्साह और उमंग का  संचार कर देता है। फागुन के पलाश की दहक आसपास के मंजर को उत्साह के ताप से भर देती है। मन में जमे उदासी की बर्फ अब इसकी  ऊष्मा में पिघल कर रंगों के बयार के साथ घुल मिल गया है। ।।।।।आखिर होली है।।।।
       अपने पास बिखरे इन समूह में जो अब तक यही रुकने की मायुसी से दबे दिख रहे थे अचानक उसके चेहरे पर छाये मायूसी के परत को यह गुलाल का झोंका अपने साथ उड़ ले गया है। उनके उत्साह ये बिखरते गुलाल में मिल जैसे पुरे आसमान में छा जाना चाहते है। उत्साह और उमांग के ये नज़ारे होली की प्राकृतिक भाव को सबमे भर दिया है।।।।होली ऐसी ही है।।।

ये होली है जोगी... रा.....सा...रा..रा...रा
मस्त ढोलक की थाप और करतल की झंकार और फिर सामूहिक नाद........जोगी रा....रा...सा...रा..रा...
थिरकतें पाँव, लचकते कमर
चेहरे पर भांग की हरियाली,
हवा में गुलालों की लाली
मदमाती निगाहे,
सब पर छाई यौवन की नाशाएँ
क्या बच्चो की किलकारी,
कही गुब्बारे भर मारी
छिटक गए सब पे रंग,
खिल गये सब अंग अंग
बुढो में भर गया जोश,
और मृदंग  पर  दे जोर
सभी का रंग निखर गया और उल्लास में  सभी का स्वर बिखर गया....जोगीरा....रा...सा...रा..रा...।।।।।
            कही ब्रिज में कन्हैया ने होली की राग छेड़ी और राधा बाबली हो रंग गई ऐसी की अब तक निखरी जा रही है। भक्ति के रस पर प्रेम का राग इसी पल में चहुँ ओर कोयल की कूक सी चहकती है।कहते है काशी में भोले गंगा की  रेत को  गुलाल समझ खुद रंग शमशान में अपने डमरू की थाप पर खुद थिरकतें रह गए। ये विश्वनाथ पर भांग नहीं होली का नशा छा गया। जिस उत्सव को मनाने देव भी इन्तजार करे, वो ही  होली है।।।।।
          कसक तो परिवार से दूर होने का होता है वो भी जब होली हो। ना गुजिये की खुशबु न मठ्ठी की गंध और न ही पकवान के संग घुली प्रेमरस का स्वाद।बिलकुल खलता है। आखिर होली जो है।।।
            फिर उम्मीदों का रंग से सरोबार हो, गुलाल के झोंको  से आँख मिचौली अब भावो पर अपना प्रभाव दिखा दिया है और अवसाद के पल इन रंगों के खयालो से ही निखर गया है। तभी तो होली है।।।।।
       आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाये।।।

Friday, 24 February 2017

घरौंदा की खातिर .....

घरौंदा की खातिर
रह रह कर बदलते है, बस चलते है।।
छोड़ कर सब कुछ
उसी की तलाश में
जिसे छोड़ चलते है।।
मैं मतिभ्रम में उलझ कर
इस भ्रम से निकलना चाहता हूँ।
जितना मति से मति लगाता
चकयव्यूह सा उलझता जाता हूं ।।
इन छोटे छोटे सोतों से
जब प्यास बुझती नहीं ,
किसी बड़े दरिया की तलाश में
मृगमरीचिका के पीछे पीछे
बस बढ़ता जाता हूं ।।
एक बड़े से घरौंदे के चाहत में
इन छोटे में कहाँ कभी ठहर पाता हूं ।।
इसी की देहरी पर
अगर खेल ले दोपहर की
छोटी सी परिछाई से
या शाम की धुंधलकी में
इन टिमटिमाते बल्ब की रौशनी से
कुछ अनमने से आवाज में भी
अपनेपन की आहट लगे ।
चाहता तो यह सब
फिर भी पता नहीं क्यों
घरौंदा की खातिर
रह रह कर  बदलते है बस चलते है। ।

Monday, 13 February 2017

आई ऍम विथ------इस पेज को लाइक करे।।।

                      आजकल फेसबुक पर फैन्स क्लब की भरमार है। न जाने बिभिन्न नामो से कितने पेज मिल जाएंगे। ये झुझारू लिखित वक्ता लगते है जो सदैव सरहद पर तैनात सिपाही की तरह विल्कुल मुस्तैदी के साथ अपने विरोधी के पेज पर नजर जमाये रहते है कही ऐसा न हो की पेज पर लॉच मिसाइल कुछ ज्यादा ट्रोल करे। इनके बीच की प्रतिद्वंदता मजेदार है। हम किसी से कम नहीं में तर्ज पर एक दूसरे पर नए नए जुमलो के तीर इनके तरकशों से निकलता रहता है।
              राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोही के सारे फॉर्मूले आपको इन पेजो पर उपलब्ध मिलेगे। कटाक्षो और तंज की ऐसी बारिश इन पेजो पर होती है कि एक निष्पक्ष व्यक्ति के लिए इनके छीटे भी उसे धर्मसंकट में डाल दे की कब वो देशभक्त हो जाये और कब उसका एक लाइक पकिस्तान जाने की उद्घषणा कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता । कुछ लाईके आपको जवां मर्द बना सकता है अगर उसमे उंगली काँपी तो आप किस श्रेणी में रखे जाएंगे यह आप सोच ले। वैसे भी कम्पन कमजोरी की निशानी है। ये पेज देखकर तो अब बस यही लगता आप समय के साथ विचार और धारणाये नहीं बना सकते अब जो है वही है।
        फुर्सत के क्षणों में जब आप इन पेजो से गुजरते है तो वाकई क्षण गंभीर  होता है । कभी देशभक्ति की हिलोडे मन में डोलने लगता है तो अगले क्षण पेज पर लिखे वाकये सोचने पर मजबूर कर देता की शायद कही मेरी उंगली इस ढेंगे पर ठिठक गया तो लोग मुझे कही और मुल्क जाने की फरमान वही से न जारी कर दे। इसी बीच बीच बहुत सारे लिंक्स की आपको जानकारी ये देते है जैसे कोर्ट में वकील अपने पक्ष में गवाह बुलाते है ये लिंक्स अंतर्जाल में घिरा फेसबुकी देश में गवाह लगते है। लेकिन कुछ भी कहे ये फैन्स क्लब वाले बहुत ही सजग और सचेत रहते है। इनकी बुद्धिमता और नित्य नए विचार की मर्मज्ञता काबिले तारीफ होती है। कितना मनन और चिंतन एक दूसरे की काट में करने पड़ते है इसका जबाब तो बस इन्ही के पास है। हम तो शायद बेकार ही आलोचना में लगे है। ये नए युग के धर्म प्रचारक और समाज सुधार के अग्र दूत है। आई ऍम विथ------इस पेज को लाइक करे।।।

Friday, 3 February 2017

बाबन इमली ......भूलते अतीत

           
       कभी कभी आप अचानक इतिहास से टकरा जाते है।यूं ही आज अकस्मात ऐसा संयोग हो गया। हम जहाँ खड़े थे वो जगह विल्कुल उपेक्षित और अपनों के बीच अपरचित सा लग रहा था। इतिहास के दृष्टि से वो  भारत का कोई प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास न होकर आधुनिक भारत के इतिहास से सम्बन्ध रखता है। जो की भारत के स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपर्ण पन्ना हो । ऐसे लगा जैसे किताब जिसके हर पन्नो पर धूल ने अपना कब्ज़ा   जमा रखा  और पन्नो पर अंकित स्याहियां अपने अस्तित्व के लिए  संघर्षरत है । जर्जर पन्ने अपनी या वर्तमान किसकी स्थिति को बयां कर रहा है पता नहीं।  है।यह सिर्फ यहाँ नहीं देश में अलग अलग जगहों में अनेकों है जिसे शायद भुला दिया गया। क्योकि ये सिर्फ शहीद देशभक्त थे जो इतिहासकार के धारा से परे थे और किसी विचारधारा के संभवतः नहीं रहे होंगे। तभी तो इतिहास के गायको ने उनके लिए वो लय और ताल नहीं दिया जिसके वो पात्र है।आज उसी मुहाने खड़ा हूँ जहाँ बस गुमनामी में खो गए इतिहास के उन वीर स्वतंत्रता सेनानियों की गाथा सिर्फ यह दर्शाता है  की कुछ नामो को छोड़ हमने क्रांतिकारियों के प्रति उदासीन सी औपचारिकता निभाते आ रहे  है।

                     यह स्थान उत्तर प्रदेश राज्य अंतर्गत फतेहपुर से कोई लगभग 25 कि मी दूर बिंदकी नामक कस्बे के पास है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पन्नो में यह "बाबन इमली" के नाम से अंकित है। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में फतेहपुर के भी कई वीर सेनानियों ने प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन से लोहा लिया। जिनका नेतृत्व बिंदकी ग्राम के जोधा सिंह अटैया ने किया था। जब ब्रिटिश सेना ने जोधा सिंह अटैया को बंदी बना लिया तो उनके साथ साथ अन्य 51 गुमनाम स्वतंत्रा सेनानियों को एक साथ 28 अप्रैल 1858 को एक इमली के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दिया था तथा कई दिनों तक शवो को उसपर लटकता हुआ छोड़ दिया। यह स्थान तब से बाबन इमली के नाम से प्रषिद्ध है।
                    यह इमली का पेड़ अब भी मौजूद है और उस क्रूर आख्यान को अपने जीर्ण-शीर्ण अवस्था में बयां कर रहा है। जंगलो के बीच ख़ामोशी से घिरा यह स्थान बगल से गुजरते मेनरोड पर भी अपनी उपस्थिति नहीं दर्शा पा रहा। अंदर स्मारक स्वरूप बने कुछ संरचना हमारे शहीदों के प्रति सम्मान और उपेक्षा को एक साथ दर्शाता है। वन विभाग के अंतर्गत वर्तमान का यह ऐतिहासिक स्वतंत्रता संग्राम का धरोहर शायद इसी की तरह अपने अस्तित्व से झूझ रहा है। जो समाज अपने इतिहास के प्रति सजग और संवेदशील न हो तो वो वर्तमान को खोखला करता है और भविष्य उनको दोहराये इसकी सम्भावना सदैब रहता है।
               इस के पास आने से इस सुनसान स्थान पर  खामोशिया चित्कारती हुई लगती है और सम्भवतः वर्तमान  का उपेक्षा सूखती हुई इस पेड़ हमारे शुष्क हृदय को दर्शा रहा हो।ऐसा लगता है जैसे यह इमली का पेड़ उन लटकते शहीद को बोझ से न सूखकर, खुली हवा में सांस लेने वाले आज की उदासीनता के मायूसी से गल रही है।  न जाने कितने ऐसे पेड़ देश में अब भी इसका गवाह बन अस्तित्व ही में न हो।
                   अगर आप अपने स्वतंत्रता संग्राम के इन गुमनाम देशभक्तो से एकाकार हो उस वक्त को आत्मसात करना चाहते हो या इतिहास प्रेमी हो तो आप फतेहपुर की इस ऐतिहासिक "बाबन इमली" को देखने आ सकते है।

Wednesday, 1 February 2017

माँ वीणा वादिनी ......बसंत पंचमी कि शुभकामना



आखर शब्द सब गूंज रहे है
अर्थ नए नित ढूंढ रहे है
सकल धरा पे अकुलाहट है
क्रन्दन से कण-कण व्यथित है ।।

मनुज सकल सब सूर रूप धर
असुर ज्ञान से कातर लतपथ
गरल घुला इस मधुर चमन में
घायल मलिन ज्ञान रश्मि रथ।।

ऐसा वीणा तान तू छेड़ दे
मधुर सरस जो मन को कर दे 
मानवता का अर्थ ही सत्य हो
ज्ञान दिव्य ऐसा तू भर दे ।।

हे माँ वीणा वादिनी फिर से
ऐसा सकल मंगल तू कर दे
मानस चक्षु पे तमस जो छाया
नव किरण से आलोकित कर दे ।।

हे माँ विणा वादिनी वर दे ।।।
हे माँ वीणा वादिनी वर दे ।।।

Wednesday, 25 January 2017

गणतंत्र दिवस कि शुभकामना .....एक विचार

                          विडंबना कहे या प्रारब्ध । जिस राष्ट्र का अतीत पौराणिकता के अलंकार से आवृत हो और इतिहास गौरवशाली गण और समृद्ध तंत्र का गवाह हो, उसके विवेचन पर आज तक मंथन चल रहा हो ,उसके वर्तमान में कुछ पड़ाव का सिंघवलोकन शायद आत्म विवेचन के लिए आवश्यक है। आवश्यक इसलिए भी है कि राष्ट्र अगर खुद में पुनर्जीवित हो जाये तो क्या उसका परिपोषण उसी रूप में हो रहा है या गौरवशाली अतीत को जीना चाहता है तो वर्तमान में ऐसा क्या है जो उसको सार्थकता देता है? जो की उसके नागरिको को यथोचित मानव के रूप में होने का अर्थ प्रदान कर सके । क्या मानव के सर्वागीण विकास के लिए उसे विभिन्न इकायों का दायरा खीचना जरुरी है? और क्या ये दायरा गाँव, शहर,राज्य,देश,महादेश के विभिन्न इकायों में कैसे विश्लेषित करता है, इस अंतर्विरोध का कभी कोई तार्किक परिणीति हो सकता है?
                    आज जब देश के 68वे गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या है और कल के गौरवान्वित समारोह का रोमांच मन में उठ रहा है,जाने क्यों ये विचार मन पर आवृत हो रहे है। विचारो कि श्रृंखला पुरातनता के वैभवशाली आडम्बरो से होता हुआ विभिन्न कालखंडों के ऊँचे नीचे पगडंडियों से वर्तमान पर ठहर जाता है। ठहर जाता यह सोचकर की शायद किसी राष्ट्र के इतिहास में इतने वर्ष बहुत ही निम्न है, किन्तु जितना है उसके अनुरूप वो गतिमान है। शायद वर्तमान पर आक्षेप कहे या जहाँ से यात्रा की शुरुआत उस भूत खंड पर, जो भी हो मन सशंकित भाव से ही बद्द हो जाते है ।क्या पाना था क्या पाया है ,दोष और कारण की अनगिनित मतैक्य हो सकते है। कारक भी इतर से बाहर न होकर हम अंतर्गत ही है।विचार है विचार करने के की एक दिनी भाव एक दिन न होकर सर्वगता के साथ दिल और दिमाग में घर कर सके ।
                  किन्तु इस के इतर भी इस अवसर को जाया न कर इसके प्रति अपनी गर्विक उद्घोषणा में हर कोई इसके सहभागी बने।आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना।।

Sunday, 22 January 2017

तलाश

बाजार अपना ही था
लोग अजनबी से थे
भीड़ कोलाहल से भरी
कान अपने शब्द को तलाशते थे ।
मंजरों से अपनापन साफ झलकता था
भरे भीड़ में अब खुद ही गुम
खुद को तलाशते थे ।
मरीचिका से प्यास बुझाने
जाने कितने दूर चले आये हम
न वो है न हम है
जाने किसे तलाशते हम ।
राहें जस की तस है पड़ी
राहगीर बदल है गए
हमने मंजिलो पर तोहमत है लगाया
कि वो रास्ते बदल दिए ।।

Thursday, 17 November 2016

धन -धर्म- संकट


                     धर्म संकट बड़ी है। विवेकशील होने के दम्भ भरु या तुच्छ मानवीय गुणों से युक्त होने की वेवशी को दिखाऊ। रोजमर्रा कि जरुरत से तीन पांच होने में सामने खड़े मशीन पर निर्जीव होने का तोहमत लगा  उसे कोसे या उस जड़ से आश करने के लिए खुद पर तंज करे समझ नहीं आ रहा। भविष्य के सब्ज बाग़ में कितने फूलो की खुसबू बिखरेगी उस रमणीय कल्पना पर ये भीड़ अब भारी सा लग रहा  है।इतिहास लिखने के स्याही में अपने भी पसीने घुलने की ख़ुशी को अनुभव कर हाथ खुद ब खुद कपाल पर जम आते लवण शील द्रव्य के आहुति हेतु पहुँच जाता है। इस हवन में किसका क्या स्वहा होता है और किस-किस की आहुति यह तो पता नहीं। लेकिन इस  मंथन में हो रही गरलपान खुद में कभी -कभी शिवत्व का अनुभव करा रहा है।साथ ही साथ मन चिंतित भी हो रहा है की राहु केतु  वेष बदल क्रम तोड़ शायद अमृतपान कर निकल न जाए और बाकी सब तांडव देखते रहे। तब तक कैश के दम तोड़ने की उद्घोषणा हो जाता है और फिर आशावादी इतिहास में अपने योगदान के लिये हम अपने आपको तैयार करते। 
                   किन्तु इस घटनाक्रम में बेचारा काला रंग कुछ ज्यादा ही काला हो गया है।कुछ ही काले ऐसे है जिसके प्रति अनुराग स्वतः मन को अनुनादित करता है। इस अनुराग को भी जो भी कारण हो किन्तु इसे विद्रूपता बताया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं की इससे रंग भेद के आंदोलन को बड़ा धक्का लगा है। किसी भी बहाने हो अंतर्मन में इसके प्रति अनुराग को लोग बेसक छिपा कर रखे किन्तु पाने की व्यग्रता और अपनाने के लिए सिद्धान्तों में दर्शन की प्रचुर उपलब्धता से स्वयं को संतुष्ट करने में कौन चुकता है पता नहीं। नहीं तो क्या कारण है कि बिना करवाई के हम करवाई करना ही नहीं चाहते।  किन्तु धौर्य ने अपने धौर्य पर काबू कर रखा है। कुछ इन सब चिंताओं से मुक्त होकर इसी लाइन में लगे -लगे महाप्रस्थान कर गए। अर्थ के लाइन में लगकर अनर्थ के शिकार हुए के बलिदान की गाथा नव उदय इतिहास में अवश्य अंकित होगा। गुलाबी रंग पाने की अभिलाषा वातावरण को गुलाब की खुसबू से सुगन्धित कर रखा है। ऐसे मौके जीवन में कभी कभी आते जहाँ आप साबित कर सकते की आप एकांकी नहीं है और अपने इतर समाज और देश  के बारे में भी  सोचते है।  ऐतिहासिक घटनाओ के उथलपुथल में अपना योगदान देना चाहते है। ऐसा मौका जाने न दे और इस पक्ष या उस पक्ष किसी के भी साथ रहे आपके योगदान को रेखांकित अवश्य किया जाएगा। किन्तु फिर भी इस शारीरिक कवायद में शामिल होकर फिलहाल यह परख ले की इस जदोजहद में खड़े होने की क्षमता है या नहीं। नहीं तो इस मशीन के द्वारा त्याज्य अवशेष का विशेष उपभोग नहीं कर पाएंगे। 
                         किन्तु नहीं कुछ होने से कुछ का होते रहना आशावादी मन को कल्पनाओ के रंग से रंगने में बेहतर होता है। उस पर आप काले रंग की कूँची अन्य रंगों के साथ चला सकते है ,इसमें शायद परेशानी नहीं होगी। साथ ही साथ अर्थ के अनर्थ तथा अनर्थ से अर्थ के तलाश में यात्रा हेतु यायावर रूप धर कब तक बुद्धत्व कि प्राप्ति में मशीन रूपी वट वृक्ष के दर्शन होंगे यह देखना बाकी है।

Thursday, 27 October 2016

"तमसो माँ ज्योतिर्गमयः"

सच तो यही है कि 
हर रोज श्वेत प्रकाश की किरण 
बिखर जाते  है कोने कोने में 
किन्तु भेद नहीं पाती 
मन के अँधेरी गुफाओं को। 
और हमें भान है कि 
हमने पढ़ लिया सामने वाले के 
चेहरे पर उठने वाली हर रेखा को 
जो मन के कम्पन से स्पंदित हो उभर आते है। 

फिर सच तो यह भी है कि 
तम घुप्प अँधेरी चादर के 
चारो ओर बिखरने के बाद भी।  
हलकी सी आहट बिना कुछ देखे ही 
मन में उठने वाली स्पन्दन से 
चेहरे पर उभरे भाव को पढ़ने के लिए 
रौशनी के जगनूओ की भी जरुरत नहीं 
और हमारा मन देख लेता है। 

चारो ओर बिखरे अविश्वास की परिछाई 
जाने कौन से प्रकाश का प्रतिबिम्ब है 
जिसमे देख कर भी एक दूसरे को
समझने की जद्दोजहद जारी है। 
कुछ तो है की मन के कोने    
विश्वास कि  किरणों से दूर है। 
क्यों न मिलकर ऐसा दीप जलाये 
जो दिल में घर अँधेरे को रौशन करे 
और हम कहे -"तमसो माँ ज्योतिर्गमयः" ।।  
                
                दीपावली कि हार्दिक शुभकामना 

Monday, 17 October 2016

डाकिया दाल लाया .......

                         
                            प्रसन्न होने के लिए हर समय वाजिब कारण हो ऐसा तो जरुरी नहीं  है। खुशियो के प्रकार का कोई अंत नहीं है। बीतते पल बदलते रूपो में नए नए कलेवर के साथ खुद को आनंददित करने के नए -नए बहाने देते रहते है। बसर्ते आप उसको पहचानने की क्षमता रखे। फिर वो बाते जो बचपन में उसको एक झलक देखकर अंतर्मन को आनद से झंकृत करने की सम्भावना जगाता रहा उस मृतप्राय  अहसास के पुनः पल्लवित होने कि  सम्भावना वाकई सुखद लगता है।  बात आप सभी के लिए भी बराबर ही है। 
                           गुजरे दौर में इस देश समाज में जिस सरकारी कर्मचारी ने अपनी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अहसास सभी को कराया वो डाकिया ही था। कक्षा दसवी तक न जाने इसकी भूमिका ख़ुशी और अवसाद के पलों पर उसका प्रभाव विभिन्न परीक्षाओ में विभिन्न तरह से कितनी बार वर्णित हुआ होगा इसका लेखा जोखा शायद मिले। हिंदी फिल्मो में इसका चित्रण और गीतों का दर्शन संभवतः कितना है कहना मुश्किल है। डाकिये का पराभव समाज के बदलते स्वरूप और भागते समय के साथ कही पीछे छूट सा गया और बिखरते सामजिक परिदृश्य में यह भी कही खो गया।  जब आधार स्तम्भ ही डगमगा गए तो संरचना का टिकना तो मुश्किल ही है।कभी समाज में हर तबके के लोगो के आँखों का तारा डाकिया ,जिसको देखते ही लोगो के मन अनायास ही कितने सपने सजों  लेते और साईकिल जब घर के पास न रूकती तो अपनों के बेरुखीपन को भी डाकिये का करतूत समझ लेते। फिर भी जल्द अगली बार फिर से उसका इन्तजार रहता। आज वही डाक विभाग एक उपेक्षित और असहाय सा गांव और शहर के किसी कोने में अपने वजूद से लड़ता दिखाई पर जाता है। आखिर अब इतना समय किसके पास है की एक खत के लिए सुनी अँखियों से उसकी राह निहारते रहे। जबकि बेसक अब भी दिन में चैबीस घंटे क्यों न हो।  
                           इतिहास से सबक लेने वाले लोग विवेकशील ही माने जाते है और प्याज ने कितने को रुलाया कि उसकी आह से सरकार चल बसी। इससे सबक हो या कुछ और  किन्तु लगता है अब डाकघर और डाकिये के अच्छे दिन आने वाले है। आज ही समाचारपत्र में देखा है कि अब सरकार डाक घर के माध्यम से दाल बेचने वाली है।आखिर जब दाल रोटी भी नसीब  होना दुश्वार होने लगे तो कुछ न कुछ क्रांतिकारी कदम तो उठाना ही पड़ेगा। विश्व की महाशक्ति से होड़ लेने की ख्वाहिश  पालते देश के नागरिक दाल से वंचित रहे। ये देश के कर्ता -धर्ता को आखिर कैसे शोभा देगा। व्याप्त अपवित्रता की जड़ो को पवित्र करने के लिए आखिर पहले ही  गंगा कि अविरल धारा तो डाक घरो के दहलीज तक पहुच ही चूका था। अब दाल कि खदबदाहट भी आपको डाकघर पर सुनाई और दिखाई देगा। चाहे तो आप गंगा जल के साथ ही साथ दाल भी खरीद ले ताकि अगर दाल में कुछ काले की सम्भावना नजर आये तो गंगा जल छिड़क कर उस सम्भावना को ख़ारिज कर सकते है। अब गलती से अगर डाकिया दिख जाए तो जो की सम्भावना कम है आप अपने दाल की एडवांस बुकिंग करवा ले। क्योंकि अगर डाक बाबू के नियत में खोट आ जाये तो कुछ भी संभव है। आने वाले समय में और उम्मीदे पाल सकते है की पर्व त्योहारों पर आप सीधे मनीआर्डर में दाल और अन्य उपलब्ध सामान भेजना चाहे तो भेज  सकते है। साथ ही साथ आज के भी बच्चों को डाकिया और डाकघर की उपयोगिता का पता चल जाएगा। बेसक उनके लिए हो सकता है फिर से डाकिये ऊपर निबंध आ जाए।  ऐसा भी नहीं है की यह करने से सिनेमा या संगीत की रचनाशीलता में कोई कमी आ जाएगा बल्कि उसमे नए आयामों की सम्भावना और बलबती होगा। किन्तु जब तक गीतकार कोई नया गीत नहीं रचते आप बेसक यह गुनगुना सकते है - डाकिया दाल लाया ,डाकिया दाल लाया  ....... । खुश होने के बहाने तलाशिये तनाव तो  हर जगह मुफ्त उपलब्ध है।

Tuesday, 11 October 2016

विजयी कौन .....?

                       बस अब युद्ध अंतिम दौर में है। किसी भी क्षण विजयी दुंदुभि कानो में गूंज सकती है। सभी देवतागण पंक्तिबद्ध हो अपने -अपने हाथो में पुष्प लिए अब भगवान के विजयी वाण के प्रतीक्षा में आतुर दिख रहे है। सभी के मुख पर संतोष की परिछाई दिखाई दे रहा है। अब इस महापापी का अंत निश्चित है। आखिर कब तक महाप्रभु के बाणों से अपनी रक्षा कर पायेगा। काल को अपने कदमो तले दास बनाने वाले को अब सम्भवतः अवश्य ही काल अपने चक्षु से दिख रहा होगा। अहंकार का दर्प अवश्य ही पिघल रहा है। राक्षसों की सेना में भी   मुक्ति की व्याकुलता दिख रही है। वानरों की सेना में असीम उत्साह का संचार एक -एक कर राक्षसों को मुक्ति मार्ग पर प्रस्थान कर रहे है। 
                         महाबली महापराक्रमी रावण रथ पर आरूढ़ आसमान से विभिन्न प्रकार के शस्त्र का प्रहार कर अपने वीरता के  प्रदर्शन में अब भी लगा हुआ है। महाप्रभु राम उसके हर शस्त्र का काट कर उसके साथ कौतुक कर रहे है। किन्तु अब भगवान् के चेहरे पर धारण मंद स्मित रेखा पर खिंचाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। देवतागण भगवान् के मुख पर उभरे इस रेखा को पढ़ कर आनंद और हर्ष से भर गए है। प्रभु राम अपने धनुष की प्रत्यंचा पर वाण धर अब इस कौतुक पर पूर्ण विराम करना चाह रहे है और प्रत्यंचा की तान प्रभु के और समीप खिंचता जा रहा है। प्रत्यंचा की तान से जैसे आसमान में बिजली सी कौंध गई और रण भूमि में दोनों ओर की सेनाओ को लगा जैसे रावण का काल बस उसके नजदीक आ गया। बदलो की टकराहट से पूरा रणक्षेत्र कंपायमान हो गया। दोनों ओर की सेनाये लड़ना भूल जैसे मूक दर्शक हो  महाप्रभु की ओर एकटक देखने लगे। अचानक इस दृश्य को देख देवतागण भी विस्मित से दिखने लगे। हाथो में धारण किये पुष्प इस गर्जन को सुन जैसे प्रभु के ऊपर बरसने को आतुर होने लगे। किन्तु अभिमानी रावण अब भी बेखबर भगवान् के लीलाओ को समझने में अक्षम लग रहा। उसके आँखों पर अभिमान का दर्प राम के देवत्व को देखने में बाधक था। भगवान् की प्रत्यंचा पर धारण वाण बस अपने आपको को भगवान् के तर्जनी और अंगूठे से मुक्त हो इस महापापी को महाप्रस्थान के लिए जैसे आतुर दिख रहा है। इसी क्षण बस राम ने वाण को मुक्त कर दिया। वाण का वेग देख जैसे वायुदेव का  भी सांस थम गया। पुरे रणभूमि में एक स्तब्धता छा गया। जिस क्षण की प्रतीक्षारत  देव ,मानव ,गन्धर्व ,आदि अब तक थे अब वो क्षण बिलकुल नजदीक दिख रहा है। प्रभु के धनुष से निकला वाण द्रुत गति से सीधा जाकर रावण की नाभी में समा गया। आसमान भार मुक्त, किन्तु  महापंडित रावण का भार अब भी पृथ्वी उठाने को तत्पर दिखी। रथ से अलग हो रावण का शरीर अब रण भूमि में चित पड़ गया। 
        यह क्या जोर-जोर की अट्टहास रण भूमि पर पड़े रावण के मुख से आ रहा और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से राम को घूरा।  उसका अट्टहास मृत्यु पूर्व अंतिम उद्घोष था या चुनौती देवतागण भी विचारमग्न ,प्रभु के अधर पर स्वभाविक मंद स्मित मुस्कान। रावण अट्टहास करता करता दर्पपूर्ण स्वर में कहा - राम क्या तुमने मुझे सच में परास्त कर दिया ,
राम -रावण क्या अब भी अभिमान नहीं गया। क्या मृत्यु को इतने पास से भी देखने में सक्षम नहीं हो। अहंकार जब नजरो में छा जाता है तो ऐसा ही होता है। 
रावण -अहंकार मेरे शब्दो में नहीं राम तुममे झलक रहा है। रावण कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता। राम आज तुमने सिर्फ एक रावण का वध किया है। रावण की इस नाभि में बसे अमृत अभी सूखा कहा है। वह तो बस छिटक कर इसी पृथ्वी पर फ़ैल गया है। राम ये तुम नहीं जानते की तुम एक रावण के कारण कई रावण को जन्म दे दिए। रावण आज भी जिन्दा है और कल भी रहेगा। आने वाले युग में इस रावण की गुणों से युक्त कितने क्षद्म मानव होंगे तुम सोच भी नहीं सकते। चलो माना की तुम भगवान् हो और इस धरती पर अवतरण लिए। किन्तु जब मानव ही  रावण के गुणों से युक्त होगा किस मानव के रूप में आओगे। ये  तो मारीच से भी गुनी होंगे कब राम का रूप धर रावण दहन करेंगे और कब रावण का रूप धर सीता हर ले जाएंगे तुम्हारे देवता को भी समझाना मुश्किल हो जाएगा। हर कोई एक दूसरे को रावण कहेगा खुद को राम कहने वाला शायद ही मिले। यह राम तुम्हारी जीत नहीं हार है। जिस पृथ्वी से पाप मिटाने के लिए तुमने एक रावण का वद्ध किया उस रावण से कई रावण निकलेंगे यह तुम्हारी हार है। राम अभी तक तो तुमने पृथ्वी को  रावण मुक्त किया लेकिन आने वाले समय के लिए भार युक्त कर दिया। अब तो वर्षो यह मानव मेरा गुणगान करेंगे। अपने अंहंकारो की तुष्टि हेतु बस मेरे पुतले पर वाण चलाएंगे। राम मेरा शरीर नहीं मरा है वह तो तुम्हारे वाण से क्षत -विक्षित हो  बिखर गया चारो दिशाओ में। राम विचारो यह तुम्हारी विजय है या पराजय। पुनः अट्टहास जोर और जोर से, चारो दिशाए उन अट्टहास से जैसे कांपने लगा। 
         अचानक जैसे  उसकी तन्द्रा खुली खुद को रावण दहन के भीड़ में घिरा पाया। रावण सामने वाले मैदान में धूं -धूं कर जलने लगा। फटाको की आवाज से कान बंद सा हो गया। लेकिन उसके कानो में अभी भी रावण के प्रश्न  और अट्टहास गूंज रहे , भीड़ मदमस्त है और उसकी नजर राम को तलाश रहा है ।    

(आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामना )