Monday, 16 December 2013

मेरा गाँव और भूत का बसेरा

                     भूत बाल्यकाल से आकर्षित करता रहा है। देखने की जिजीविषा  उतनी  ही उत्कट होती थी  जितना की आज-कल दिल्ली के लोगो को दिल्ली में सरकार को देखने के लिए है।कुछ पत्रिकाओ में गल्प कथाये प्रकाशित होती थी,वैसे अभी भी होती है।जिसका विशेष रूचि के साथ अनवरत अध्यन होता था। कहानियो की अंतहीन श्रंखला वो देखने और सुनने की अभिलाषा संभवतः इन तथाकथिक बौधिक पुस्तको  में लगता तो ..?...तो पता नहीं क्या ?  भूत का अस्तित्व नहीं होता ,क्या विद्यालय की  किताबो में मन लगाने से भूतो की महिमा कम हो जाती ? शायद मन लगाने से कुछ विशेष उपाधी  मिल जाता   और उसी उपाधी को आधार बना कर  भूतो की तार्किक ब्याख्या करने  का प्रयास करता। पढ़ने वाले भी उसे किसी बुद्धिजीवी का लेख मान  उसपर कोई टिप्पणी  कर देते या कुछ नए विश्लेषण कर हमारे  भी दिल की उत्सुकता  को शांत करने में सहयोग देते। खैर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं तो उसकी चर्चा क्यों  ? चलिए  बात मै  भूतो की कर रहा था।भूत के विषय में जो भी सीमित जानकारी था उसके ग्रहण का ज्यादा  स्रोत उपनिषद के अवधारणा की  तरह  श्रवण विधि ही था। भूत वो जो बीत गया ,भूत वो जिसकी आत्मा बेवक्त साथ छोड़ गया, भूत वो जो आकस्मात  भगवान को प्यारे हो गए।उस तनय उम्र में यमराज  से  संशय  के वावजूद उनके प्लानिंग पर संदेह उठ ही जाता था जैसे अभी सरकार के प्लानिंग को लेकर मन में सन्देह रहता है।आकस्मिक अवकाश  की तरह यमराज  भी आकस्मिक लोगो को क्यों बुलाते है ? लगता है जैसे राजनीति कब कौन से गड़े  मुद्दे उखाड़ दे वैसे ही पता नहीं यमराज के दूत  भी कब किसको गाड़ दे।
                  उन दिनों  गाँव  में भूतो का काफी सम्मान था। उनके अस्तित्व पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं था। बेसक दिन के उजाले में कोई नजर न आता हो किन्तु रात्रि काल के उसके कारनामे की चर्चा  दिन भर होती थी जैसे आजकल केजरीवाल के द्वारा दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर हो रही है। कभी-कभी स्कूल के  कक्षा में भी व्याकरण के पढाई के दौरान कालो कि व्याख्या के साथ ही सब कुछ भूल कर भूतकाल के भूतों पर ध्यान चला जाता था। फिर मास्टरजी कि गिध्ध  दृष्टि में कैद होने के बाद ही वर्तमान  में आगमन हो पाता  था।  भगवान्  श्रीकृषण ने गीता में कैसे कहा की सभी मुझसे ही इस संसार में आते है और पुनः मुझमे ही समां जाते।किन्तु वो कौन सी आत्मा भटक कर भूत बन जाते है पता नहीं।लेकिन कक्षा में लेख लिखने के दौरान जब इस तथ्य को घोषित करता की देश कि आत्मा  गाँवो  में निवास करती है, तो भूतों का आवास फिर कहाँ होगा इस पर लेश मात्र भी संदेह नहीं था। 
                 उस समय भूतो का निवास  गाँव  के बाहर  डबरे के किसी किनारे पेडो के ऊपर हुआ करता था। शायद भूतो के सोसाईटी में कोठी पीपल का पेड़ हो,इसलिए ज्यादा भूत आशियाने के रूप में पीपल का पेड़ पसंद करते। क्योंकि ज्यादा से ज्यादा  भूत पीपल के ऊपर ही होते है ऐसा कहा जाता था। हमें उस समय तो समझ में नहीं आता कि  भूत का निवास  गाँव  के अंदर क्यों नहीं होता ,वो इंसानो से इतनी नफरत क्यों करते कि इतनी दूर जा बसते है ? जबकि हमारे घर के पीछे का बागान उनके लिए उपयुक्त था ऐसा हमें लगता था ,फिर सोचता कि इंसानी दुनिया से मुक्त होने के बाद वो पुनः कुसंगति में नहीं पड़ना चाहते होंगे।   उन्मुक्त बालपन गाँवो की गोधुली की बेला,उस वक्त बेफिक्र आनंद उत्सव का समय , घर के अन्दर रहने की बंदिश से मुक्त । बाहर चौकड़ी में हुरदंग की  सामाजिक स्वीकार्यता। उधम -चोकड़ी के बाद आराम का पल ,सांसो को अपने वेग को  यथावत लाने के लिए उबड़ -खाबड़ मेड़ो पर बैठ सुस्ताने  की प्रक्रिया। जैसे -जैसे रात की सुगबुगाहट होती सूरज के अनुचर चुपके-चुपके छुपना शुरु कर देते।कुछ-कुछ अहसास  होता सूरज की अनगिनत किरणे  भले गर्मी दिखाए मगर रात का अँधेरा भी कम ताकतवर नहीं है जो  सढ़क-सढ़क के इनपर अपना कब्ज़ा जमा ही लेते है और सूरज देवता ठन्डे हो निंद्रा मग्न हो जाते।अतिबल शाली सूरज  को हनुमान जी के साथ इन अंधेरो से भी डर लगता ही होगा। इन बातो से कुछ खास मतलब तो थी नहीं, ध्येय  भूतो के दर्शन का होता।
                     हमारे  गाँव   में उस समय तक एडिसन का प्रताप नहीं छाया था। लालटेन और डिबरी का साम्राज्य शाम  होते ही दिखने लगता किन्तु ये रौशनी चाहरदीवारी को भेदने में सक्षम नहीं थी,विकास के तमाम दावो के बाद आज भी  वक्त वे वक्त के लिए  भरोसा उस पर  कायम है।गरीबी  कि तरह डिबरी कि चिंगारी बदसूरत जल रही है। शायद कुछ लोगो के लिए ये  विलुप्तप्राय अविष्कार की श्रेणी में भी हो कुछ कह नहीं सकते। घर के सदस्य इन्ही डिबरी के  चिरागों से स्याह घूँघट में लिपटी दिवा रानी के स्वागत की तैयारी में  लगे होते थे उस विशेष काल को हम भूतो  के दर्शन लीला के उपयोगी अनुपयोगी तत्व , संभावित खतरे ,अच्छे और बुड़े ,हानिप्रद या हितकारी,होनी - अनहोनी,उसके आतंक  इत्यादि गाव की देहरी पर होने वाली रामचरितमानस के वाचन की तरह  चर्चा में  मशगुल होते।कल्पनाओं की असीमित दुनिया,समय-समय पर भूत लगने की सुचना ,उसके झांड़ -फुक की जीवंत दृश्य  एक अलग ही सृष्टि  का सृजन करता था। भूत उजाले में  पेंट सर्ट में क्यों नहीं होते इसकी जिज्ञासा अनावश्यक  रूप से भी कभी नहीं हुआ।सफ़ेद साड़ी  ,लम्बे बाल , उलटी पैड ,इन सबने मन मस्तिष्क पर भूत के रेखाचित्र का अनोखा अभेद्य आकृति उकेड़ रखा था,पुरुष भूत कि जानकारी निम्न थी । खैर हमें मतलब भूतो से था न की उसके लिंग से।अच्छा है वरना  भूतो में भी समलैंगिकता को लेकर बहस  शुरू हो जाता। 
                    अपलक निहारते ,उन चौकड़ी के बीच गाँव   की अंतिम सरहद जहा से शाम के बाद उस लक्छ्मन रेखा को लांघना अनेक अनजाने संभावित खतरे को अमंत्रीत  कर सकता था।  अतः हिदायत सख्त थी किसी भी परिस्थिति में बिना बड़े बुजुर्ग की संगति के उधर का रुख नहीं करे।अब हम कोई छुई-मुई तो थे नहीं की हमें चेतावनी की बात छू पाते  और घर में सिकुड़ जाते बालपन का मन जिसके लिए मना  करो उसको करने की उत्सुकता ज्यादा होती है, मगर  इन चेतावनी ने  सही कहे तो जाने- अनजाने डर ही भूतो से विशेष लगाव का कारण बना । तुलसीदास जी ने तो कह दिया भय बिन होहु ना प्रीति । खैर  अभी भी लगता है की ज्यदातर आदेश भय के ऊपर ही ग्रहण किया जाता है।जहा इसकी आशंका नहीं हो वह लोग किसी बात को मानने के बजाय  उसे बदहजमी समझ  कर आदेशो का कई कर देते है।
                     गाँव का सरहद शाम के बाद भारत पाकिस्तान के सरहद से भी ज्यादा संवेदनशील हो जाता था। उस समय तक घर के चाहरदीवारी के भीतर शौचालय को प्रवेश नहीं दिया गया था। सभी लोगो सूर्यास्त के साथ साथ ही बाधो -जंगलो में नित्य क्रिया  कर आते थे की रात अँधेरे में कही उधर का रुख न करना पड़े।आजकल खैर ये सुविधा लगभग  सभी को उपलब्ध है। हम भारतीय रेल के समय सारणी की तरह विलम्ब से घर का रुख करते।  परिवार के और सदस्य रोज की दिनचर्या में मशगुल हो किन्तु ध्यान अवश्य  रहता था की हम उस लक्छमन रेखा की उलंघन करने का दुसाहस तो नहीं कर रहे।किन्तु जैसे पुलिस के मुस्तैद रहने के बावजूद भी आतंकी घुस आते है वैसे ही तमाम मुस्तैदी के बावजूद हम भी भूतो के मुहल्लो के सरहद तक जा पहुचते। 
                    काफी दिनों से से हमारा कार्यक्रम पूरा नहीं हो पा रहा था। बिलकुल बीस सूत्री  कार्यक्रम कि तरह। किन्तु हम कोई सरकार तो थे नहीं कि कोई नया कार्यक्रम बनाते। भूतों  को देखने के कार्यक्रम पर हमारा ध्येय अडिग था जैसे अण्णा  जन लोकपाल से लेकर अब लोकपाल पर अडिग है । जिस तरह सी बी आई जांच में छेड़ -छाड़ की  बात लिक होने पर मंत्री महोदय को बाहर जाना पड़ा , हमारे इस कार्यक्रम कि बात लिक हो जाने के कारण कुछ मित्रो ने अपने घर के दबाव में इससे बाहर रहना ही उचित समझा। किन्तु हमकुछ साथी भूतो के दर्शन से मिलने वाले भविष्य के पुण्य लाभ से अपना लोभ संवर नहीं कर सके। लक्ष्य मछली कि आँख कि तरह साफ़ था। आज अमावस्या थी इसकी जानकारी स्वतः हो गई ,कोई विशेष  पुस्तक का अध्यन नहीं करना पड़ा। एकादशी ,संक्रांति ये दैनिक जानकारी कि चीज थी उस समय,, खैर अब ये सब पता नहीं चलता। क्योंकि अब थोड़े से आधुनिक हो गए है। सभी अपने -अपने घर से तैयार हो के निकले थे। मुझे भी पता था कि आज बाबूजी कोई विशेष काम से गाँव से बाहर है ,उनके आने तक हम अपने इस अभियान में सफल हो ही जायेंगे। माँ को विश्वास में लेना हमेशा  कि तरह बहुत ही आसान काम था सो हो गया। शाम के बाद लोगो कि आवाजाही गाँव में कम हो जाती  थी  तथा जिनसे थोडा बहुत खतरे का डर था उनके ऊपर हमने अपना खुफया पुलिस  लगा ही रखा था। जनतांत्रिक व्यवस्था कि जड़ काफी पुरातन कालीन है अपने देश में बाकी तो शहर  के विस्तार में कुछ सिमट गए,शहर में तो लोग सिर्फ वोट देते है , लेकिन  गाँव में राजनीति हवा में घुलती है सो हमें उसका पता था,किनको कैसे वश में करना है ।  
                         गर्म अमावस्या कि रात ,हवा के तेज झोंको से निकलने वाली सरसराहट कि आवाज उदेश्य में सफल होने के रोमांच के साथ-साथ अंदर का डर  चेहरे पर पौष कि रात का सर्द परत सा उभर रहा था। हम हर कोई अपने अंदर के डर को सहेज कर रखने के प्रयास करते तथा दूसरे के चेहरे कि हवाइयों पर मुस्कुराने कि कोशिश करते,जैसे चुनावी हार के बाद नेता जनता के सामने मुस्कुराते । गाँव से बाहर आकर जो अंतिम रास्ता नहीं पगडण्डी कहेंगे उससे आगे बढ़ने कि हिम्मत दिल्ली में बी जे पी जैसे सरकार बानाने कि नहीं कि वैसे ही हम भी नहीं कर पाये। वैसे वो पगडंडी बेचारी अभी भी अपने -आपको रास्ते में तब्दील होने कि बाँट जोह रही है। उसी पगडण्डी के किनारे खेत के मेड़ पर हमने दिल्ली के जंतर-मंतर में धरने कि तरह बैठ गये। डर  एकता के लिए कितना जरुरी है पहली बार मुझे ज्ञात हुआ। किसी ने कोई विरोध नहीं किया और सबने वहीँ रुकने का निश्चय किया। भूतो के प्रकोपों का हमें बिलकुल समसामियक जानकारी थी। जैसे ही हम बैठे कि एक के मुह से तेज चींख निकला  और एक ने बिना समय गवाएं उसके मुँह को दबा दिया। उसकी चीखे अंदर घुट कर दम तोड़ दिया। वो मेड़ो के अरहर के कटे जड़ो से अनजान लग रहा था। क्योंकि खेतो के अलावा उसके मेड़ो पर भी अरहर बो देते है जो कि फागुन के बाद काट लिया जाता है। वो  गाँव में रहते हुए भी इन तथ्यो से अनजान था बिलकुल वैसे जैसे  राहुल गांधी राजनीति में रहते हुए राजनीति से अंजान  लगते है। इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा और बाकी हम समझ बैठे कि भूत महराज ने उसे प्रथम दर्शन दिया और वो खुशी से चीखा है। हमने हमेशा कि तरह यहाँ भी पीछे रहने के कारण अपने भाग्य को कोसा। किन्तु वास्तविक तथ्य को जानकार उसके दुःख से भी एक संतोष का ही अनुभव किया ,साथ-ही साथ उसके अल्प ज्ञान के लिये उसके  कुपित दृष्टि भी आरोपित किया ,पता नहीं क्यों?
                                 दम साधे हम बैठ गए। शांति ऐसे जैसे किसी कि शोक सभा में बैठे हो। जुगनू का प्रकाश भी अँधेरे में हौसला देने में सक्षम है पहली बार उसको महसूस किया। झींगुर कि खनकती आवाज और   उसके  मधुर संगीत के  आनंद पर अंदर बैठा डर बार -बार चोट कर रहा था। एक घंटे का समय हमने जैसे-तैसे काटा बीच -बीच में दूर पीपल के हवा के संग निकलती चिंगारी को देख भूत के उद्भव का अनुमान लगाने के साथ ही हनुमान चालीसा उलटी-सुलटी चौपाई  भी बुदबुदाने लगते ,तेज आवाज में किसी को सुन जाने कि शंका समाहित थी। आँख स्वतः बंद हो जाते उसमे हनुमान जी के लिए श्रद्धाभाव था या भूतो का डर भाव ये निश्चित नहीं कह सकते। आँखे खोलने में भी  ताकत लगता है इसका  भी एहसास उस समय हुआ जब सभी एक दुसरो को हाथ-से हाथ दबा कर इसका निश्चय किया कि कब आँखे खोले। आँखे खोलने के बाद उसी रूप में सब कुछ कही भूत जैसी कोई आकृति के दर्शन नहीं ,मन में बिठाई आकृत कभी-कभी किसी को दिख पड़ता और घिघयाते हुए कहता जैसे कोई उसे चोरी करते पकड़ा हो और उसके देखने कि क्षमता पर सवाल उठा देते जैसे केजरीवाल सरकारी लोकपाल कि क्षमता पर सवाल उठाते है। हौसला हमारा धीरे -धीरे कम होता जा रहा था किन्तु कोई कहने को तैयार नहीं था ,सभी शीला दीक्षित कि तरह हार का इन्तजार कर रहे थे। पुरे बदन और कपडे धूल से संधि कर चुके थे ,अपने परिवेश के अभिन्न अंग होने के बावजूद वर्ण व्यवस्था कि तरह उससे दुरी बनाये रखने को बाध्य किया जाता था। खैर उतने ज्ञानी हो चुके थे कि भविष्य को ध्यान देकर कि कल माँ कौन-कौन से प्रश्नो के तीर बाबूजी के सामने छोड़ेंगी हमने अपना ध्यान पूरी तरह से भूत के ऊपर केंद्रित कर रखा था। उस समय सभी के कान सतर्क हो गए जैसे पहले चुनाव-परिणाम के बाद पार्टिओ के दल-बदल को लेकर हो जाते थे। एक स्याह परछाई सभी को लगभग दिखाई पड़ रहा था किसी को किसी के देखने इस   क्षमता  पर संदेह वैसे ही नहीं था जैसे कि अपने क्रिकेट टीम को अपने देश में जितने पर नहीं होता है। वो परछाई अब धीरे-धीरे नजदीक मेड़ो को तरफ आ रहा था ,जिस पीपल पर हमने नजर टिक रखा था अब नजर उधर से पलट गई , ओबामा अफगानिस्तान से नजर हटाते बिल्कुल वैसे ही। गर्भ में छिपे भ्रूण में जैसे बेटे कि चाहत होती है हमारे मन में भी वो भूत कि तरह ही पल रहा था और पल-पल निखरने लगा। परछाई ज्यादा काली होने लगी और आकृति ने आकार लेना शुरू कर दिया। अभी तक का ज्ञान धोखा दे रहा था श्वेत-धवल आकृति के जगह ये काली सी आकृति ,मन ने इसके लिए रात के अन्धकार को कोसा। अब हमने उस आकृति के पैरो पर अन्धेरे को चीरते हुए नजर जमाया और एक फुसफुसाया अरे इसके पाँव तो सीधे है। अब वो आकृति बिलकुल दस गज पर उससे पहले हम कुछ समझते तीन शेल वाले  टॉर्च का तेज प्रकाश आँखों के ऊपर छा गया। तेज प्रकाश आँखों को वैसे ही धोखा देती है ज्यादा ऑक्सीजन मछली को। कुछ देख पाते-समझ पाते उससे पहले जोरदार चांटा घुमा,धोनी कि हेलिकॉप्टर शॉट कि तरह। गेंदवाज की  तरह हमारे पास समझने को कुछ नहीं था। चांटे का दर्द कुछ पहली बड़ी धड़कन को थामने में कारगर रहा। दिल में तस्सल्ली हुई भूत आखिर नहीं है,लेकिन दूसरे शॉट की आशंका भाप हाथ खुद-ब-खुद गाल के बाउंड्री पर जा पंहुचा । बाबूजी आज जल्दी लौट आये जो कि अंदेशा न था। इतनी रात में यहाँ क्या हो रहा है -एक तेज आवाज गूंजी ? मैं कुछ समझ पाता और मित्रो से मदद की आश में नजर उठाता ,मै अंपने-आपको अकेला पाया ,बाकी तब तक भागने में सफल हो गए मेरे मित्र के भागने कि गति  बिलकुल ऑस्ट्रेलिया के चौदह वर्षीय धावक कि तरह तेज था या उससे भी ज्यादा इसे कहना मुश्किल है। भविष्य की आशंका को दिल में धारण कर एक हाथ से गाल को  संभाले कानून के प्राकृतिक सिद्धांत का उल्लंघन से द्रवित दूसरे गाल के विषय में सोचता हुआ उनके पीछे-पीछे घर कि ओर चल दिया। और भूतों के दर्शन का इस बार का हमारा प्रयास असफल हो गया।कल सुबह के होनी अनहोनी के लिए मन ही मन भगवान् पर आश्रित हो गया।                                     

Saturday, 14 December 2013

अपने-अपने पैमाने

                               हमने अपने-अपने तराजू बना रखे है। पैमाना भी सबका अपना -अपना है। मानव इतिहास को छोड़ अपने देश के  ही इतिहास कि बात करे तो बाकई हम अद्भुत दौर में है। ग्लोबल विश्व कि अवधारणा अब डी -ग्लोबलाइज की तरफ है या नहीं ये तो कहना मेरे लिए जरा  मुश्किल है किन्तु लगता है शासन व्यवस्था का विकेंद्रीकरण में अब ज्यादा समय नहीं है।  अब  कुछ लोगो के  समूह द्वारा  अपने अपने केंद्र में सभी को स्थापित कर अपने-अपने शासन को सुचारु रूप से चलाएंगे ,ऐसा सराहणीय  प्रयास जारी है में है। हर किसी को अधिकार चाहिए। लेकिन कौन किससे  मांग रहा है या कौन किसको देने कि स्थिति में है ये पूरा परिदृश्य साफ़ नहीं हो पा रहा है 
                               जनता को स्वक्छ शासन चाहिए था। सभी ने उनसे अपना वोट माँगा। दिलदार जनता दिल खोल के अपने वोटो का दान भी किया। किन्तु अभी भी कुछ लोगो को संदेह था कि वाकई में कौन ज्यादा स्वक्छ है ,सभी के अपने-अपने पैमाने जो है। दुर्भागयवश वोटो के दान दिए हुए जनता को अब अपने लिए सरकार कि मांग करनी पर रही है। सभी दिलदार हो गए सभी देने के लिए तैयार किन्तु शासन अपने हाथ में लेने को तैयार नहीं। वाकई भारतीय राजनीति का स्वर्ण युग। जनता कि सेवा के लिए सभी भावो से निर्लिप्त बुध्त्व कि ओर अग्रसर। अब देखना बाकी है कि मिल बाट  कर सेवा कर जनता को कुछ देते है या पुनः उनसे मांगने निकल पड़ते। 
                                  अभी तक अल्पसंख्यको से तो बस धर्म या जाती विशेष में ही बटें लोगो कि जानकारी थी। किन्तु अब एक नया वर्ग उभर कर आ गया। बस साथ -साथ रहने कि ही बातें तो कर रहे ?पता नहीं ये अनुच्छेद ३७७ क्या कहता है। सरकार के  मुखिया का दिल भी  द्रवित हुआ जा रहा है आखिर दकियानुसी लोगो के पैमाने पर इन्हे क्यों तौले । पता नहीं कानून बंनाने वाले इस धारणा  पर कैसे पहुचे होंगे कि ऐसे वर्ग अपनी पैठ बनाएगा जो इतने सालो पहले ही इसे अपराध घोषित कर दिया। प्रेम हर धारणा  को तोड़ सकता है ऐसी धारणा  क्यों नहीं कायम कर पाये। अवश्य पैमाने कि गडबडी है।ऐसे समय में जब मानव समुदाय में प्रेम बढ़ाने  की जरुरत है लोग प्रेम करने वाले को दूर करने में लगे है। 
                                   शायद लगभग  ३२  प्रतिशत से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय माप-दंड के अनुसार गरीबी देश में छाई है ,अपने राष्ट्रीय पैमाने पर ये आंकड़ा लगभग २९.८ प्रतिशत अपने खुद के बनाये रेखा से निचे है। इनका भी अपना वर्ग विशेष समूह है। इनको समय -समय पर सम्बोधित भी किया जाता है। कई बार रेखा को बढ़ाया जाता है तो कई बार उसे घटाया जाता है। आखिर सरकार भी क्या करे जब भी गरीबो क कम दिखने का प्रयास करती है ,गरीबो से प्यार करने वाले दल उनका आकड़ा कम नहीं होने देते। आखिर उनका भी अपना पैमाना है। 
                                ऐसे भी अब विशेष कोई समस्या इस देश में है नहीं। हर जगह उनको दूर करने का प्रयास हो ही रहा है ,किन्तु मिडिया मानने  को तैयार नहीं है और वो भी अपने बनाये पैमाने में उसे उछालते रहती है। आखिर उनका भी कोई वर्ग विशेष है। उनके भी अधिकार है।जनता जो सोई है आखिर उसे जगायेगा कौन ? 
                              फेहरिस्त लम्बी है आप भी अपने पैमाने पर उसे जांच ले  ताकी अपने अधिकार नाप सके। 

Wednesday, 11 December 2013

हर्षित पद रचाऊंगा

जिन छंदो में पीड़ा झलके,
शोक जनित भावार्थ ही छलके
वैसे युग्म समूहो में
मैं शब्दो को न ढालूँगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

सुख-दुःख का मिश्रण जब जीवन
यह यथार्थ नहीं कोई कोई भ्रम
तब क्यों आखर को व्यर्थ कर
बुधत्व भाव बनाऊंगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

समर भूमि के इस प्रांगण में 
कर्म डोर थामे बस मन में 
गीता भाव सदा बस गूंजे 
क्यों अर्जुन क्लेश जगाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

छल ,फरेब ,धोखा की  बाते 
ठोखर खाकर छूटती सांथे 
मेरे पंक्ति में न छाये 
बस हाथ मदद में उठते को सजाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

Sunday, 8 December 2013

"आप" की जीत


                               शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली  होती  है। तात्कालिक परिणाम भविष्य  के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक  है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद  करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती  है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें  फर्क करना मुश्किल  होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन।  किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास  में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण  से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की  प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें  नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये  विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के  विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में  इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे  आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है।  किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत  उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।  

Saturday, 7 December 2013

भ्रम



कितने विश्वास .... 
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना 
अधिकार कर लिया। 
और देखो वो बैठ कर 
मुस्कुराता है..... 
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर 
कभी-कभी........ 
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है, 
कि हमने क्या बनाया था 
आज ये क्या बन गए है। 
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से, 
अब तक जाने जाते है। 
पर ये इंसान  जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में 
खुद को बांटते चले जाते है। 
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब। 
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने  सींचे  है इतने रंग
वो सोचता हरदम  
कब फिसली मेरी कूची 
कि ये हो गया बदरंग। ।