Friday, 4 April 2014

अंतहीन प्रश्न चिन्ह ?

न बदलते अश्क
अद्भुत प्रकृत की प्रवृति,
जब अंगवस्त्र की भांति
जिस्म धारण है करता,
प्रवंचना किस बात का फिर
दोष किसको कैसे कौन मढ़ता ।
शाश्वत है अजन्मा है
अदाह और अच्छेद भी
फिर कहाँ से कलष
इसमें स्वतः ही प्रवेश करता। ।
चिरन्तन  है स्थिर साथ ही
अचलता का भाव गर्भित
फिर अस्थिर हो कैसे मचलता।
सनातन से भाव शाश्वत
शोक और संताप शाश्वत
मन के भाव जब कलष छाये
फिर ये कैसे निर्विकार रहता।
क्यों वास हो इस अवध्य सार का,
अलौकिक इसके अद्भुत निखार का,
ढो रहा जब उद्भव से निर्वाण तक
किन्तु फिर भी अव्यक्तता का भाव धर
व्यक्त दोष इस हाड़ -मांस क्यों है जड़ता।
रंगहीन जब अंग -वस्त्र
आत्मा कैसे हो क्लेश त्यक्त
पोड़ -पोड़ पीड़ा नसों में
ज्ञान का सब सार व्यर्थ। 
जठराग्नि की ज्वाला
उद्भव से जो जला रही है 
उस दिव्य उद्घोषणा पर 
एक अंतहीन प्रश्न चिन्ह लगा रही है। । 

Wednesday, 2 April 2014

माया

वंचित आनंद से और 
संचित माया का राग ,
जीवन के हर दुःख में बस इसका प्रलाप 
फिर स्व उद्घोषित माया क्या ?
माया तो कुछ भी नहीं
लोलुपता का महा-काव्य है
खुद से छल, अनुरक्त से विरक्ति
लोभ -प्रपंच से सिक्त
निकृष्ट प्रेम का झूठा प्रलाप है।
हर वक्त ह्रदय में आलोड़ित
असीम  आनंद कि तरंगे,
सुरमई शाम के साथ
विहंगो कि कलरव उमंगें,
सब से विमुख हो
और करते प्रलाप ,
डसे जाने का त्राश, 
जीवन के द्वारा ही जीवन को।
फिर माया के नाम का करते आलाप है 
किन्तु यह निकृष्ट इच्छा का प्रलाप है।
गढ़ा है खूब वक्त कि कालिख से 
की इसके स्याह आवरण ने ढक दिया है,
उस श्रोत को जो अनवरत
बस आनंद का श्रृजन  करता है। 
और हम भटकते रहते है 
उस खोज में जीवन के, 
जो श्रृष्टि  ने आदि से ही 
हर किसी  के संग लगाया है। 
माया की महिमा को 
जीवन के दर्शन में क्या सजाया है ,
जैसे दर्शन जीव का न हो निर्जीवों कि काया है।  
और अनवरत चले जा रहे है, 
उसी निर्जीव में सजीव आनंद की  चाह लिये,
जिसे माया के नाम पर 
जाने कब से ह्रदय में उठते आनंद को, 
हमने स्व-विकृत चाह में इसे दबाया है। 
आनंद को माया के नाम छलना ही संताप है 
क्योंकि यह निकृष्ट सुख का छद्म प्रलाप है। । 

Thursday, 27 March 2014

ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते ..

हर उलझन को ये सुलझा दे 
और सब कुछ है फिर उलझा दे 
बड़े-बड़े वादों से आगे अब 
हर चौक पे होर्डिंग लगवा दे। 
नए-नए ब्रांडो की लहरे 
थोक भाव में बेच रहे है  
जनता क्या सरकार चुने अब 
देश नहीं सिर्फ बाजार पड़े है। 
गांधी जी के बन्दर भांति 
आमजन बैठे-बैठे है 
मूड पढ़े कैसे अब कोई 
न कुछ देखे न ही सुने है। 
वोटर सब नारायण बनकर  
हवाई सिंघासन पर लेटें है 
दोनों हाथ उठे है लेकिन 
मुठ्ठी बंद किये ऐंठे  है। 
लोभ ,लालच प्रपंच में कितने 
रुई कि भांति नोट उड़े है 
सेवक सेवा कि खातिर अब 
कैसे-कैसे तर्क गढ़े है।  
बेसक कल लूट जाये नैया 
लगा दांव सब पड़े अड़े है 
आश निराश के ऊपर उठ कर 
द्वारे-द्वारे भटक फिर रहे है। 
किसकी किस्मत कौन है बदले 
आने वाला कल कहेगा 
जो करते सेवा का  दावा 
कितने सेवक वहाँ लगेगा। 
मंथर चक्र क्रमिक परिवर्तन 
सब पार्टी में अद्भुत गठबंधन 
तुम जाओ अब हम आ जाते 
ठगे -ठगे सब बमभोला बन जाते। 

Sunday, 9 March 2014

अंतहीन


ये गाथा अंतहीन है
बनकर मिटने और
मिट -मिट कर बनने की।
प्रलय के बाद
जीवन बीज के पनपने की
और विशाल वट बृक्ष के अंदर
मानव जीवन को समेटने की।
रवि के सतत प्रकाश की
राहु के कुचक्र ग्रास की
कुरुक्षेत्र में गहन अंधकार की
विश्व रूप से छिटकते प्रकाश की।
अद्भुत प्रकृति के विभिन्न आयाम
जीवन के उद्गम श्रोत का  भान
पुनः अहं ज्ञान बोध कर
उसे बाँधने को तत्पर ज्ञान। 
द्वन्द और दुविधाओं से घिरकर 
श्रृष्टि के उत्कृष रचना 
अपने होने का अभिशाप कर 
अंतहीन विकास के रास्ते 
जाने कौन सा वो दिन हो 
जब मानव भूख के  
हर अग्निकुंड में 
शीतल ज्वाला की आहुति पड़े।  

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हर उद्भव के साथ
समग्र को समाने का प्रयास
ह्रदय को बस
एक सान्तवना सा है।
काल के आज का कुचक्र
जिनको अपने आगोश में लपेटा है।
प्रारब्ध के भस्म से
मानवता के मस्तिष्क  पर
तिलक से शांति का आग्रह। 
चिरंतन से उद्धार का उद्घोष
मानव से महामानव
तक कि अंतहीन यात्रा
और इसी यात्रा में
सतयुग कि महागाथा
से कलियुग के अवसान होने तक
हर मोड़ पर अनवरत
मानव के विकास बोझ 
और उसके राख तले
बेवस सी आँखे। 
अपने लिए
एक नए सूरज के उदय का 
अंतहीन इन्तजार करते हुए। । 

Wednesday, 5 March 2014

एक ख्वाहिश

खुली आँखों से 
जो न दिखी हो अब तक 
किया हूँ बंद पलक बस 
तुझे निहारने के लिए       ।। 
प्यास बुझे तेरे प्रेम की 
ऐसी तो  कोई खवाहिश नहीं
बस चाहता हूँ जलूं  और
इसे  निखारने के लिए     ।। 
गूंजती है कई आवाजे 
टकराकर लौट जाती 
बस गूंजती है सनसनाहट 
तूं पास ही है ये जताने के लिए  ।। 
कभी पास-पास हम बैठे  
ऐसा न कर पाया 
दिलजले कई घूमते अब भी 
कुछ तस्वीर जलाने के लिए    ।।
टूटकर तो कितनो ने  
तुझपे इश्क का चादर चढ़ाया है 
मैंने ओढ़ा है तुझे 
खुद को भूलाने के लिए     ।।
कई रंग है तेरे 
सब अपना-अपना ढूढ़ते है 
मैंने मिला दी सबको 
नए निखार लाने के लिए   ।। 
तू इबादत है ,प्रेम है,इश्क या कुछ और 
मुझे मालूम नहीं 
बस ख्वाहिश  है इतनी 
तू छूटे न कभी और कुछ पाने के लिए। ।