अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं । अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥ "कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्यनही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।" — शुक्राचार्य
Sunday, 13 October 2013
Thursday, 10 October 2013
सचिन तेरे बिन
अंतत वही हुआ जिसका डर था। आये है सो जायेंगे ये तो शास्वत सत्य है,चाहे जीवन का क्षेत्र हो या खेल का मैदान हो किन्तु बिलकुल वैसे ही जैसे हर इन्सान ज्यादा से ज्यादा इस संसार में अपना समय गुजरना चाहता है और काया के प्रति मोह नहीं जाता। वैसे ही हम तुम्हे ज्यादा से ज्यादा खेलते हुए देखना चाहते थे,इस अंध मोह का क्या कारण है ये तो विश्लेषण का विषय होगा। किन्तु ये क्या अचानक सन्यास की घोषणा कर ऐसे ही लगा की अब क्रिकेट में मेरे लिये बस काया रह गया और उसका आत्मा निर्वाण के लिए प्रस्थान कर गया।
ढाई दशक की यात्रा किसी खेल में कम नहीं होती और उसपर भी अपने आपको शीर्ष पर बनाए रखने का दवाव उफ़ । किन्तु हमारा मन कभी ये मानने को तैयार नहीं था की तुम भी इसी हाड मांस के साधरण मानव हो। हमारे नजर में तुम एक अवतार से कम नहीं थे। जिसका दिव्य प्रभाव सिर्फ क्रिकेट के मैदान को ही आलोकित न कर ,उसके बाहर की भी दुनिया इस चमत्कार से हतप्रभ रहा। हर किसी ने तुमसे किसी न किसी रूप में प्रभावित रहा। बेसक वो क्रिकेट का कोई जानकार रहा हो या इस खेल से दूर तक नाता न रखने वाले मेरे बाबूजी रहे हो ।
तुम्हारे आंकड़े जो की खेल के दौरान मैदान पर बने वो तो पन्ने में दर्ज है उसकी क्या चर्चा करना। वो तो "हाथ कंगन को आरसी क्या और पड़े लिखे को फारसी क्या" वाली बात है। किन्तु मैदान से परे का व्यक्तित्व ही तुम्हे एक अलग श्रेणी बना दिया जहा न जाने कितने वर्गो में बटे यहाँ के लोग भी तुम्हारी बातो पर अपना भरोसा कायम करना नहीं भूले,और बाकि धर्म के साथ-साथ क्रिकेट धर्म भी पनपा जिसके तुम साक्षात् अवतार यहाँ माने गए। इतिहास में कई महान विभूति हुए होंगे जिनपर लोगे ने ऐसे भरोसा किया होगा ,किन्तु आज के भारत में ऐसा तो नहीं कोई दीखता। नहीं तो क्या ये सम्भव होता की क्रिकेट जब अपने गर्त में जा रहा था और उसके मुह पर सट्टे बाजी की कालिख लगी हुई थी और सभी को इस खेल से वितृष्णा हो रखा था तो किसी मार्ग दर्शक की भाँती आगे बढ़ कर की गई अपील को किसी ने ठुकराया नहीं,तुमपर भरोसा अपने से ज्यादा करते । जब क्रिकेट साम्प्रदायिकता के पत्थर से लहूलुहान हो रहा था ,तो आगे आकर अपने भावुक वाणी की कवच से तुमने क्रिकेट और मानवता की रक्षा की। शायद हम इस मनोवृति के संस्कारगत शिकार रहे है जिसका परिणाम है की भगवान् की तरह लोग तुम्हारे ओर देखने लगे। ये कैसे सम्भव हो की हिमालय की अडिगता ,समुद्र की गंभीरता ,वायु की ,पलता से लोग तुम्हे अलंकृत न करे। खैर ये सभी आभूषण तो कवि और लेखक की कल्पनाशीलता है जबकि तुम कल्पना न होकर मूर्त हो। जिसे की हम पिछले पच्चीस वर्षो से अपने आस -पास देख रहे है,फिर भी दिल है की मानता नहीं ।
सचिन तेरे बिन अब भी क्रिकेट के मैदान वैसे ही सजंगे किन्तु अब उसमे वो रौनक नजर नहीं आएगी। चौके -छक्के भी लगेगे किन्तु उसमे वो उल्लास नहीं आएगा। मैच के निर्णय ही मायने रखेंगे किन्तु उसमे संभवतः वो आनंद का संचार नहीं होगा। मै कभी ये विचार नहीं किया की मै क्रिकेट प्रेमी हु ,या इस खेल में संलग्न देश प्रेमी किन्तु ये कभी संकोच नहीं रहा की मै सचिन प्रेमी हु। तेरे बिन अब क्रिकेट वैसे ही अनुभव करूँगा जैसे की किसी खुबसूरत गीत का विडिओ देख रहा हु किन्तु आवाज नदारद है। जैसे की तुम क्रिकेट की बिना जीवन की कल्पना नहीं करते सम्यक वैसे ही मै सचिन के बिना क्रिकेट की कल्पना नहीं करता,मुझे डर बस ये है की कही गलती से इतिहास यदि अपने आपको दोहराएगा तो कौन तुम्हारे भार को वहन करेगा ,खिलाडी है तो मैदान पर तो वो इसे संभल लेंगे ।
गतिशीलता जीवन की धुरी है और पूर्ण ठहराव अंत। मुझे लगता है की क्रिकेट के खेल के प्रति पूर्ण ठहराव बेशक न हो किन्तु ये एक अल्प विराम तो अवश्य ही है। जब तक की कोई और सचिन अवतरित नहीं होता या किसी को सचिन के अवतार के रूप में नहीं देखता। तब तक सचिन तेरे बिन क्रिकेट बिना स्याही की कलम ही है……।
Wednesday, 9 October 2013
एक याचना
माता तेरे नाम में
श्रद्धा अपरम्पार है
झूम रहे है भक्त सब
नव-रात्र की जयकार है । ।
शक्ति सब तुम में निहित
तुम ही तारनहार हो
सृष्टि की तुम पालनकर्ता
तुम कल्याणी धार हो । ।
माता तेरे आगमन पर
कितने मंडप थाल सजे
क्या -क्या अर्पण तुझको करते
शंख मृदंग करताल बजे। ।
कुछ भक्त है ऐसे भी
जो अंधकार में खोये है
करना चाहे वंदन तेरा
पर जीवन रण में उलझे है।
क्या लाये वो तुझे चढ़ावा
जब झोली उनकी खाली है
श्रद्धा सुमन क्या अर्पित करते
तेरे द्वार भरे बलशाली है। ।
तू तो सर्व व्यापी मैया
ऐसे क्यों तू रूठे है
उन्हें देख कर लोग न कह दे
तेरे अस्तित्व झूठे है। ।
है बैठे फैलाये झोली कब से
तेरी कृपा की वृष्टि हो
बस भींगे उसमे तन मन से
उनमे भी एक नए युग की सृष्टि हो। ।
Sunday, 6 October 2013
विरोधाभास
नव शारदीय नव रात्र की सभी को हार्दिक शुभकामना एवं बधाई। इस रचना को किसी प्रकार के धार्मिक बन्धनों में बंध कर न देखे। स्वाभाविक रूप से किसी के आहात होने से खेद है -----
मन के कुत्सित सेज पर ,
पवित्रता के आवरण झुक गए ।
मूर्त शक्ति की परीक्षा हर रोज,
अमूर्त शक्ति पे सब शीश झुक गए।
नव शारदीय उत्साह का संचार
भाव -भंगिमा बदले ,नहीं विचार।
विरोधाभास के मंडपों में ,
कुम्हार के गढ़े कच्चे रूपों में ,
श्रधा जाने कैसे उभर आते है।
जिस धरा पर लगभग हर रोज ,
कितने कन्या पट खुलने से पूर्व ,
विसर्जित कर दिए जाते है।
आँगन में शक्ति का आंगमन
हर्ष नहीं ,विछोह से मन
परम्पराओ में जाने क्यों ढोते है,
ऐसे विरोधाभास कैसे बोते है।
माँ इस बार कुछ अवश्य करेगी
कुत्सित महिषासुर के विचारो पे
सर्वांग शस्त्रों से प्रहार करेगी। ।
Wednesday, 2 October 2013
एक आत्मा की पुकार
हो आबद्ध युगों -युगों से
निरंतर दर-दर बदलता रहा
मुक्ति की खोज में
अब तक किसी न किसी
काया संग युक्त ही चलता रहा.…।
मै अजन्मा ,जन्म काया
निर्लिप्त ही, न मोह पाया
शस्त्र ,वायु या अग्नि
अशंख्य पीड़ा की जननी
अन्य भी न संहार पाया ……. ।
किन्तु अब घुटता यहाँ
काया में बसता जहाँ
मलिनता छा रहा
मै आत्मा अब
खुद पर ही रोता रहा ……. ।
सतयुग से भटकता
कदम बढाता कल्कि तक पंहुचा
शायद मै हो जाऊ मुक्त
अंतिम सत्य से दर्शन
युगों युगों से अब तक विचरण ……. ।
धृष्टता सब युगों में देखि
किन्तु अब ये संस्कार
मन मलिन काया संग करता
मै आत्मा वेवश लाचार
किन्तु दोष ले पुनः भटकता…… . ।
जीर्ण -शीर्ण रक्षित देह
व्याकुल विवश कितने से नेह
मृत जग न छोड़ जाना चाहे
किन्तु मै हर्षित हो अब
महाप्रयाण करू इस जग से परे…….. . ।
करुणा पुकार अब श्याम करू
इन दिव्यता से उद्धार कर
मै भी चाहूँ मुक्ति अब
खुद से अब इस आत्मा का
इस धरा से संहार कर…… . ।
निरंतर दर-दर बदलता रहा
मुक्ति की खोज में
अब तक किसी न किसी
काया संग युक्त ही चलता रहा.…।
मै अजन्मा ,जन्म काया
निर्लिप्त ही, न मोह पाया
शस्त्र ,वायु या अग्नि
अशंख्य पीड़ा की जननी
अन्य भी न संहार पाया ……. ।
किन्तु अब घुटता यहाँ
काया में बसता जहाँ
मलिनता छा रहा
मै आत्मा अब
खुद पर ही रोता रहा ……. ।
सतयुग से भटकता
कदम बढाता कल्कि तक पंहुचा
शायद मै हो जाऊ मुक्त
अंतिम सत्य से दर्शन
युगों युगों से अब तक विचरण ……. ।
धृष्टता सब युगों में देखि
किन्तु अब ये संस्कार
मन मलिन काया संग करता
मै आत्मा वेवश लाचार
किन्तु दोष ले पुनः भटकता…… . ।
जीर्ण -शीर्ण रक्षित देह
व्याकुल विवश कितने से नेह
मृत जग न छोड़ जाना चाहे
किन्तु मै हर्षित हो अब
महाप्रयाण करू इस जग से परे…….. . ।
करुणा पुकार अब श्याम करू
इन दिव्यता से उद्धार कर
मै भी चाहूँ मुक्ति अब
खुद से अब इस आत्मा का
इस धरा से संहार कर…… . ।
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