Tuesday, 6 May 2014

शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली.......१०० वीं पोस्ट

                                               ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
                                                दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSस्तु ते। । 
"शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली मंदिर"
             अकस्मात कभी कुछ संयोग ऐसा बन जाता है कि अपनी हृदय मे आह्लादित ख़ुशी दैवीय कृपा के रुप मे प्रतीत होता है। ऐसा ही ख़ुशी महसूस  हुई जब "शक्तिपीठ भद्रकाली " के दर्शन क सौभाग्य प्राप्त हुआ। काफी वर्ष झारखण्ड में व्यतित करने के बाद भी इस शक्तिपीठ के विषय मे अनभिज्ञ था। कहते है जब माता बुलाती है तो कोइ न कोइ सन्योग निकल हि आता है। वैसा हु कुछ इस दर्शन के दौरान हुआ।  लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विद्यानंद झा की पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" जो कि उक्त शक्तिपीठ के ही है उपर है,जो झारखण्ड राज्य के चतरा ज़िला अन्तर्गत "ईटखोरी " प्रखंड मे अवस्थित है। पुस्तक के लोकार्पण समारोह मे शामिल होने वावत निमंत्रण  पत्र प्राप्त हुआ। समारोह की तिथी ४ मई रविवार को सुनिश्चित कि गई थी। श्री विद्यानन्द  झा बिहार प्राशासनिक सेवा से सेवानिवृत अधिकारी है। अपने प्रशासनिक सेवा के दौरान कई वर्ष उस क्षेत्र मे विभिन्न दायित्व का  निर्वहन उन्होने किया था।  
 तीन -चार दिन पूर्व निमंत्रण पत्र मिला था। किन्तु गर्मी के बढ़ते प्रकोप के काऱण निश्चित निर्णय नहीं  कर पा रहा था।अकस्मात मौसम ने रंग बदलना शुरु किया जैसे उक्त कर्यक्रम मे शामिल होने के लिये देवी माँ  कि क्रिपा वृष्टि हो रही है। पहले तो सोचा स्वयं चला जाय किन्तु श्रीमतीजी ओर और पुत्र के द्वारा उग्र विरोध प्रदर्शन उस क्षणिक विचार के उपर पूर्ण विराम लगा  दिया। अवकाश का दिन होने के कारण मेरे पास और कोइ आधार नहीं था जिसके बहाने मै क़ोई   दलील पेस कर पाता।इसी दौरान एक सहकर्मी मित्र ने भी उक्त कार्यक्रम मे शामिल होने के लिये मिले निमंत्रण के विषय मे बताया ,चलो एक से अच्छे दो परिवार। भक्ति और पर्यटन के अपने अपने ख़ुशी से श्रीमतीजी और पुत्र दोनो रोमांचित हो गये  जैसे  हि  मैने उद्घोषणा किया  कि कल प्रातः हमलोग  "शक्तिपीठ भद्रकाली "  लिए प्रस्थान करेंगे।
माँ भद्रकाली
                             सुबह-सुबह रविवार के दिन तय कि हुई गाड़ी द्वार पर खडी हो गई। निर्धारित समय पर हमलोग सभी तैयार थे किन्तु मित्र सपरिवार आने मे कुछ विलम्व हो गये। जगह के विषय में ज्यादा जानकारी नही होने के कारण मनोज गाड़ी चालक, जो क़ी उपयुक्त व्यक्ती था उसने बताया कि  ईटखोरी बोकारो से लगभग २०० कि मी की दुरी पर है और अनुमानतः तीन से चार घंटे लगेंगे। बोकारो से सीधे राष्ट्रिय राजमार्ग -२३ पकड़ कर  रामगढ़  कैंट   के रास्ते हम बढ़ चले। बीच में लगभग ४० की मी की दुरी पर रास्ते मे रजरप्पा मुख्य सड़क से लगभग १० की मी अंदर दामोदर और भैड़वी नदि के मुहाने  एक प्रमुख विख्यात शक्तिपीठ  माँ छिन्नमष्तिका है जिसे हमने मन ही मन  प्रणाम किया।                      रामगढ़ कैंट झारखण्ड का  एक प्रमुख जिला शहर है साथ हि साथ यहॉँ सिख तथा पँजाब रेजिमेंट के काऱण इसकी  अपनी महत्ता है। जिसकी दुरी बोकारो से लग्भग ७० की मी है।  रामगढ़ से लगभग पांच कि मी पहले हि हमने  राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ से होते हुए हजारीबाग कि ओर चल पड़े। पुरे रास्ते रमणीक माहोर दृशय देख दिल खुश हो गया। प्रकृति की खुबसुरती  का आनंद कुछ रुक उठने क मन कर रह था किन्तु पहले हि विलम्ब होने के काऱण ये इच्छा को दबा दिया ।   हजारीबाग से लगभग २० की मी राष्ट्रिय राज मार्ग -३३ पर चलने के बाद बीच से इटखोरी जाने वाले रोड मे मूड़ गये। जहाँ एक छोटा बोर्ड रोड के किनारे इटखोरी मोङ दर्शाते हुये लग हुआ है।   जहाँ से लगभग ३० की मी और दुरी शेष था। 

                     लगभग ११:३० बजे हम मंदिर के मुख्य प्रांगण मे पहुच चुके थे। वही एक सभा मंडप था जिसके अन्दर पुस्तक लोकार्पण का समारोह आयोजित किय गया था। सबसे पहले हमने माँ कि पूजा अर्चना कि।  अष्टधातु गोमेद से बनी माँ कि मूर्ति से अलौकिक आभा को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर किया जा सकता है। माँ का ये मंदिर "भदुली " नदी के  किनारे स्थित है इसलिए "भदुली भद्रकाली" के रुप मे से भी  ये प्रषिद्ध है।मंदिर परिसर काफी मनोहर और आकर्षक है। प्रागै ऐतिहासिक काल से शक्ति स्वरूप भगवती का प्रसिद्ध पुजा स्थल है। ईटखोरी का नामकरण बुद्ध काल से सम्बद्ध है और किवदंती है की यहाँ गौतम बुद्ध अटूट साधना किये थे। जैन साहित्य के १० वे तीर्थंकर शीतला स्वामी का जन्म स्तन भदुली को ही कहा जाता है।   पंडित विद्यानन्द  झा ने अपनी पुस्तक मे इस मन्दिर के पौराणिकता के साथ-साथ इसके एतिहासिक पहलूँ पर भी  प्रकाश डाला  है।  आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह स्थान प्रागैतिहासिक है एवम महा काव्य काल ,पूराण काल से संबन्धीत है। ऐतिहासिकता के दृष्टिकोण से इस मन्दिर का निर्माण पाल वंश के राजा महेन्द्र पाल प्रथम (९८८ से १०३८ ई )के शासन के दौरान किय गया। यह स्थल हिन्दू ,जैन और बौद्ध धर्म के प्राचीन काल से समन्वय स्थल है। 


     
पुस्तक "शक्तिपीठ भदुली भद्रकाली" का लोकार्पण 
      पंडित विद्यानन्द  झा कि पुस्तक उक्त  शक्तिपीठ के आध्यात्मिकता  , पौराणिकता  और ऐतिहासिकता के विभिन्न बिन्दूओं के बीच परस्पर अनुसंधानात्मक विवेचना है। माँ भद्रकाली का प्रादुर्भाव ,उपासना ,माहात्म्य आदि विभिन्न महत्वपूर्ण बिन्दुओ क वर्णन इस पुस्तक मे है। लोकार्पण समारोह में जिला प्रशासनिक अधिकारियो के आलावा मुख्य अतिथि के रुप मे डा विन्देश्वर पाठक,जो कि किसी परिचय के मोहताज नहीं है और "सुलभ-स्वछता -आंदोलन " से दुनिया उन्हे जानती है , समारोह स्थल पर मौजूद थे। मंच पर और भी कई प्रख्यात लेखक मंचासीन थे। कार्यक्रम का आयोजन पुस्तक के प्रकाशक  "सरोज साहित्य प्रकाशन " दरभंगा (बिहार ) के द्वारा किया गया था। ज्ञात हो की पंडित झा की कई कृतियाँ मैथिली मे भी  है। 
धर्म विहार 
                  
      समारोह  के दौरान कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी  प्रस्तुत किये गये। उसके प्रसाद स्वरूप भोजन कि समुचित व्यवस्था आयोजको द्वार कि गई थी।  सभी प्रसाद ग्रहण के लिये प्रस्थान किये। हमलोगो ने भी प्रसाद ग्रहण किया। समय अपने अंदाज में निकलता जा रहा पुरा मन्दिर परिसर भी  नहि घुमा अंतः उसके बाद मन्दिर परिसर के आलावा चारो ओर फैले गहन जॅंगल मे छाये नीरव शांती को महसुस कर, चुंकि सुरज भी मध्यम पड्ता जा रहा था।  इसलिए समय और इजाजत नहि दे रह था कि उस शांति क और आनन्द ले सके। बच्चे भी अब थकान महसूस कर रहे थे।  अब घर जल्द-से जल्द पहुचने क था ,घङी की सुइ छह पर था। अतः हम  सभी गाडी मे सवार हो मा को प्राणाम कर वापस वापस बोकारो के लिये प्रस्थान कर गये।      
                 माँ भद्रकाली सब पर कृपा करे। जय माँ भद्रकाली। 

Monday, 28 April 2014

बदलते पैमाने

रौंद कर सब शब्द 
उससे गुजर गए,
कुछ दिल को भेद
कुछः ऊपर से निकल गए। 
अलग-अलग करना 
अब मुश्किल है, 
जिंदगी जहर बन गया 
नहीं तो जहर जिंदगी मे घुल गये। 
लानत और जिल्लत के बीच
वो खुद को ढूढ़ रहा था,
जलालत की सब बातें जब से
इंसानी सरोकारों में मिल गए।
सबने चिंता दिखाया 
कल के लिये सब बैचेन दिखे,
कुछ को देश निकाला मिला तो 
कुछ को समुन्दर मे डुबों दिये।
बदलेगा क्या 
ये तो वक्त बताएगा, 
किन्तु सब भाव अब 
वोट के कीमत मे सिमट  गये। 
जो जरिया है और   
तरक्की का पैमाना है बना,  
उस लोकतंत्र में चुनाव ने  
सारे पैमाने बदल दिये। ।    

Thursday, 24 April 2014

अंतहीन समर

न जाने कितनी आँखे
रौशनी की कर चकाचौंध
ढूंढती है उन अवशेषों में
अतीत के झरोंखे की निशां। 
गले हुए कंकालो के
हड्डियों की गिनतियाँ
बतलाती है उन्हें 
बलिष्ठ काया की गाथा।
और नहीं तो कुछ 
सच्चाई से मुँह मोड़ना भी तो 
कुछ पल के लिए श्रेस्कर है 
स्वप्न से  क्षुधाकाल बीते यदि 
विचरण उसमे भी ध्येयकर है। 
किन्तु होता नहीं उनके लिए 
जो अपने गोश्त को जलाकर  
बुझातें है अपनी पेट की आग
और रह-रह कर अतृप्त कंठ 
रक्त भी पसीना समझ चुसती है।
आज संभाले जिसके काबिल नहीं 
विरासत का बोझ भी डालना चाहे 
झुके कंधे जब लाठी के सहारे अटके है 
उस भग्नावेश की ईंटों को कैसे संभाले। 
उस विरासत में कहीं जो
आनाज का  इक दाना शेष हो
उसे पसीने से सींच कर,
अब भी लहलहाने की जिजीविषा 
सूखे मांशपेशियों के रक्त संग सदैव है  
किन्तु निर्जीव पत्थरों  में भाव जगता नहीं 
जबतक  भूख संग अंतहीन समर शेष है। ।  

Sunday, 20 April 2014

चित्रलेखा के साथ, एक कोने की तलाश


                          सरकारी सेवा के सौजन्य से छठे दशक तक सरकारी आवास की सुविधा के बावजूद भी सर पर छत की सुनिश्चितता उनकी प्राथमिकता सदैव से रही है। आखिर गाँव-गाँव है ,जहाँ उत्तरार्ध का जीवन व्यतीत करना उनको लगता है ज्यादा कठिन होगा। फिर इसकी उपलब्धि का सुख उन्हें बार बार रोमांचित करता है मैं बार -बार टाल जाता हूँ।   फिर भी बीच-बीच में इसी  "हम " के बीच " मैं"  के लिए भी एक कोना तलासने का प्रयास अर्धांगिनी कर्तव्य को निभाते हुए प्रयत्नशील थी। जिसमे गूगल बाबा का पूर्ण सहयोग तथा सपनो के आशियाने प्रदान करने वाले की मिश्री युक्त वार्तालाप का विशेष प्रभाव था की रह-रह कर मुझे कुछ करने को प्रोत्साहित करती रहती ,जैसे मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूँ। वर्तमान को न जी कर भविष्य सुधारने की तर्कसंगत बातो में मेरी दिलचस्पी कभी ज्यादा नहीं रही। वर्तमान को सही तरीके से जिया जाय तो भविष्य सुन्दर भूत में परिवर्तित होगा ऐसा मेरा मानना है। फिर भी अर्धांग्नी की विचार का आदर न करना कर्कश संगीत के साथ सुरालाप करने जैसा है और आदर करके उसपर कदम न उठाना उनके प्रति प्रेम-निष्ठां पर प्रश्न चिन्ह। 
 इसलिए काफी मसक्कत के बाद मैं उनके विचारों से सहमति जताया तो आनन फानन में हमने कार्यक्रम  भी निश्चित कर दिया। मैंने भी सोचा चलो एक बार अपने "मैं" के लिए एक कोना ढूंढ़ ही लेते है। किस शहर में ये कोना होगा ये उनके द्वारा पहले ही निश्चित किया जा चुका था। क्योंकि मेरे व्यक्तिगत राय से शुरु से ही वाकिफ होने के कारण  की मुझे अपने गाँव की धूल  काफी आकर्षित करती है ,उसके आलावा बाकी सभी शहर मेरे लिए एक जैसा ही है ,मुझे उनके प्रस्ताव पर कुछ विशेष कहने को नहीं था। क्योंकि गाव की वातावरण में अभी भी "हम" का ही अस्तित्व है सो "मैं " को ढूंढने मुझे किसी शहर में ही जाना पड़ेगा। 
                      अपने वरिष्ठ अधिकारी को इस सम्बन्ध में बताया तो उन्होंने भी श्रीमतीजी के प्रस्ताव पर अपनी ख़ुशी प्रकट की तथा सलाह दिया अभी समय है नहीं तो समय यु ही निकल जाएगा। साथ ही साथ अवकाश के सन्दर्भ में कोई अनापत्ति नहीं दर्ज किया जो की मुख्य उदेश्य था। 
 सफर में हमसफ़र
                      अवकाश स्वीकृत होते ही तत्काल में आरक्षण हेतु प्रयास किया अतिरिक्त खर्च कर सुविधा पाने में सफल रहा। कार्यक्रम कुछ पहले से प्रस्तावित्त न होने के कारण जल्दीबाजी में अपने जरुरत के सामान ले कर चल दिए। चूँकि जिस शहर का प्रस्ताव था वहां पहले से ही बड़े भइया रहते है इसलिए कुछ विशेष चिंता नहीं थी। शुरू से ही यात्रा में कुछ उपन्यास ले कर चलने की आदत ही बेशक उसे पढ़े या नहीं उससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। सो एक पुस्तक अलमीरा से निकल कर रख लिया। श्रीमतीजी ने इसपर भी आपत्ति जताई जब पढ़ना था तभी याद नहीं अभी ढूंढते चलते है। मैंने  मुस्कुराकर व्यंग वाण का रुख विपरीत कर दिया। उन्होंने नजर हटा ली और अपने काम में लग गई। 
                      हम दो हमारे एक तीनो ने अपना-अपना एक एक बैग लिया और स्टेशन को प्रस्थान कर गए। ट्रेन अस्वभाविक रूप से निश्चित समय पर होने के कारण स्वभाविक ख़ुशी दिल में आलोड़ित हुई। अपने गंतव्य आरक्षित सीट पर बैठने के साथ ही श्रीमतीजी जी भावी कार्क्रम में खो गई जबकि बेटा अष्टम वर्ष के अपने उम्र के  अनुरूप ट्रेन के साथ-साथ चल रहे वृक्ष और पेड़ पौधों में खो गया। मैं पहले किये हुए गलती को सुधरने के लिए बैग में रखे पुस्तक को बाहर निकला। हाथ में भगवती चरण वर्मा  की प्रसिद्ध उपन्यास "चित्रलेखा" पाया। काफी बार पढ़ने के बाद भी हर बार यह एक नया अनुभव देता है। दिल में प्रसन्नता हुई चलो  सफर अच्छा कटेगा। 
                    राजधानी ट्रेन के सेवा के अनुकूल सभी सेवा समय से यात्रीगण को खुश करने के प्रयाश में लगे हुए थे। इसी  बीच पुस्तक का प्रथम पेज पलटा और वही प्रश्न -"और पाप " महाप्रभु रत्नाम्बर से श्वेतांक ने किया। जिसके जवाव में उन्हने कहा की इसे तुम्हे संसार में ढूँढना पड़ेगा जिसके लिए उनके दोनों शिष्य श्वेतांक और विशालदेव ने अपने  आपको सहर्ष प्रतुत किया। उसी बीच में चाय के लिए श्रीमतीजी द्वारा पूछना जैसे खलल डालना प्रतीत हुआ। वैसे वो किसी भी सेवा का अधिकतम उपभोग में यकींन  रखती है। वैसे रखना भी चाहिए आखिर मूल्य भी तो चुकाया जाता है। 
               जैसे जैसे ट्रैन की गति बढ़ती जा रही थी मैं  भी पढ़ने की  गति बढ़ता जा रहा था। अब विशालदेव कुमारगिरि योगी के कुटीर में और श्वेतांक बीजगुप्त के प्रसाद में पाप को ढूंढने एक वर्ष के लिए  पहुंच चुके थे और ट्रेन अपने अगले ठहराव पर।
             बीजगुप्त और चित्रलेखा के द्वारा जीवन का सुख क्या है। इसके चर्चा से कहानी दोनों के मस्ती उल्लास-विलास में मादकता का पूट लिए आगे बढ़ती है। जो जीवन में सुख ,अनुराग ,विराग ,पाप और पुण्य को तलाशने के क्रम में आगे बढ़ती है। जब रत्नाम्बर द्वारा  श्वेतांक बीजगुप्त के बैभव में पाप का पता लगाने के छोड़ दिया उसी बीच में श्रीमती जी ने पुस्तक को छोड़ कर खाने के लिए आमंत्रित किया। राजधानी ट्रेन में भोजन की व्यवस्था होने के कारन वो पहले से ही खुशी थी की अतिरिक्त भार  नहीं पड़ेगा। हम दोनों के बीच उसी क्रम में पुनः चर्चा हो ही गई जिससे मैं  पुस्तक के द्वारा बच रहा था। किन्तु जब कुमार गिरी विशालदेव को मन को  शुद्ध और ममत्व से मुक्त रहने के लिए प्रयत्न करने को कहते है।यह एक तपस्या है और तपस्या में दुःख नहीं है और इच्छाओ को दबाना उचित नहीं ,इच्छाओ को तुम उत्पन्न ही न होने दो। मुझे लगा मैं और मेरी श्रीमतीजी दोनों सही है उन्होंने इच्छाओ को दवया नहीं और मैंने इच्छा को जगाया नहीं। 
            भोजन समाप्ति के उपरांत पुत्र निंद्रा देवी के आगोश में चला गया और मैं पुनः विशालदेव के इस विचार में उलझ गया की मनुष्य उत्त्पन्न होता है क्यों ?कर्म करने के लिए। उस समय कर्म के साधनो को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है। उधर श्वेतांक चित्रलेखा के विचार से  दिग्भ्रमित है जब वो कहती है -पिपासा तृप्त होने की चीज नहीं है। आग को पानी की आवश्यकता  नहीं है ,उसे धृत की आवश्यकता होती है जिससे वो और भड़के। जीवन एक अविकल प्यास है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत करना है। जीवन हलचल है ,परिवर्तन है और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शांति का कोई स्थान नहीं है। इसी बीच खाने के उपरांत दिए जाने वाले  आइसक्रीम बढ़ाया मैं  कहानी में अतिरिक्त हलचल को आमंत्रित नहीं करना चाहता था अतः उसे इंकार कर दिया। श्रीमतीजी खुश हो गई। आइसक्रीम खाने के बाद उन्होंने अब सोने का निश्चय  किया। मैं लाइट के बंद होने तक पुस्तक छोड़ना नहीं चाह रहा था। 
                     इसी बीच कुमारगिरि के आश्रम पर बीजगुप्त और चित्रलेखा पहुंचे। चित्रलेखा ने मस्तक नवा कर कहा -" पतंग को अंधकार का प्रणाम " । सौंदर्य में कवित्व और वासना  की मस्ती में अहंकार। अनुराग और विराग के दार्शनिकता का तथ्य  लिए योगी और नर्तकी के बीच संवाद जीवन के विभिन्न आयामों को सम्बोधित कर बढ़ रहा था। क्रांति और शांति का मुकाबला ,जीवन और मुक्ति होड़ बढ़ चली थी। "शांति और सुख " शांति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है जबकि सुख की कोई परिभाषा नहीं है। योगी के लिए ये जीवन का विद्रूप सिंद्धांत था। तब तक प्रकाश के कारण अन्य यात्री को थोड़ी असुविधा होने लगा। मैं  भी नींद में सुख को देख उसी के आगोश में चला गया। 
                सुबह नींद खुलने पर पुत्र ने इतना मौका नहीं दिया दिया की जीवन के विभिन्न पहलुओ को पुस्तक में झाँकू। अब ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुंच चूका था। हमलोग अपना-अपना सामान ले कर ठिकाने के लिए चल दिए। पहुचने पर भइया को हमारे आने प्रयोजन चुकी पहले से ही पता था  अतः उन्होंने कहा आराम करने के बाद चलेंगे। 
                इस बीच बिभिन्न कोनो में छत की तलाश जारी रही। समाचार पात्र में सपनो के आशियाने पर तालाबंदी का समाचार पहले आकर्षण पर तुषारापात कर दिया। न्यूज चैनलों पर आवेदको के आँखों में भविष्य की श्याह परछाई दिल को भयभीत कर दिया। सरकार के तमाम आलोचनाओ के वावजूद भी सभी का एक मत से राय था की हमे अब ऐसा ही कोना लेना था जिसे सरकार ने खुद बनाया हो। इस प्रकार के कई परियोजनाओं को देखने में अवकाश के दिन निकल गए। कंक्रीट के बियावान में समकालीन शारीरिक सुविधाओ के अनुसार एक कोना हमने तय कर दिया। अब जल्द से जल्द वापस आना था।  क्योंकि अभी तक की जमाई और और आगे की कमाई के ऊपर ही दिए जाने वाले दस्तावेज की जरुरत थी जिस पर कुछ आने वाले वर्षो में नाम हमारा और लिखित कागद पर किसी और का अधिकार होगा। इसी दौरान चित्रलेखा कुमारगिरि की और बीजगुप्त परिस्थिगत कारण  से मृत्युंजय की पुत्री यशोधरा की ओर आकर्षित होते दिख रहे थे। कुमारगिरि विराग से अनुराग की और सफर करने लगा जबकि चित्रलेखा के दिल में विराग ने अपना घर बनाना शुरू कर दिया। 
                 हमने भी भविष्य की योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक सप्ताह उपरान्त  ट्रेन पकड़ लिया,जो की पहले से ही सुनिश्चित था । अब बीजगुप्त जीवन के उल्लास से उचट शांति की तलाश में काशी पहुंच गए जहाँ यशोधरा भी साथ हो गई। बीजगुप्त जिससे दूर भाग रहा था परिस्थिति उसे नजदीक ला  रही थी जबकि जबकि चित्रलेखा जिसकी नजदीक जाना चाह रही थी अब उससे दूर भाग रही थी। बीच में विशालदेव और श्वेतांक पाप और पुण्य के बदलते निहितार्थ अनुराग और विराग , शांति और सुख के मध्य ढूंढने का प्रयास कर रहे थे। जब बीजगुप्त यशोधरा से ये कहता है की हम स्थान को नहीं पसंद करते है -स्थान तो केवल एक जड़ पदार्थ हम वातावरण को पसंद करते है जिसके हम अभ्यस्त हो जाते है। कितना सही है एक घटना ने वातावरण को प्रभावित किया और हमने अपना निर्णय बदल दिया। राजधानी ट्रेन अब राजधानी से अपनी दूरी  बढाती जा रही थी। मैं ट्रेन और जीवन के हलचल से दूर  पुस्तक में अपने लिए शांति तलाश रहा था। श्रीमतीजी भावी कटौती पर विचार कर रही थी जबकि पुत्र इन सबसे मुक्त अपनी दुनिया में अपने खेल-खिलौने के साथ खोया हुआ था। मनुष्य परतंत्र है परिस्थिति का दास है ,वह करता ही नहीं साधन मात्र है। बीजगुप्त के इस विचार से मैं पिछले एक सफ्ताह से सामंजस्य बैठाने का अध्यनरत चिंतन कर रहा था। कर्तव्य मुख्य है सुख या दुःख नहीं। 
               इसी बीच रात्रि के भोजन में कुछ यात्रीगण के आलोचना की पनीर शुद्ध नहीं है।  बीजगुप्त को सन्यासी द्वारा कहना घूम गया की -कृत्रिमता को अब हमने इतना अधिक अपना लिया की वो अब स्वयं ही प्राकृतिक हो गई है। वस्त्रो का पहनना भी अप्राकृतिक है। प्राकृतिक जीवन एक भार है उसमे  हलचल  लाने के लिए ही बिभिन्न उपक्रम किये गए है। दुःख को कृतिम उपाय द्वारा दूर करना आत्मा का हनन नहीं है यदपि वह अप्राकृतिक है किन्तु स्वभाविक। -बीजगुप्त उठ खड़ा हुआ मैं भी खाने के उपरांत हाथ धोने चल दिया। 
                 कहानी अपनी परिणीति की और अग्रसर था और मैं भी इस हलचल को सोने से पहले ही शांत करना चाहता था। क्योंकि की ट्रेन सुबह सुबह ही मुझे अपने से अलग कर देगा और पुनः मौका मिलने की सम्भावना अगले यात्रा से पहले शायद संभव कम ही होगा,  ऐसा ही मुझे लगता था। परिस्थिति का क्रम बदल रहा था। कुमारगिरि वासना के अभिभूत अपने मार्ग से च्युत हो रहा था ,चित्रलेखा जिस विराग को अनुभव करने आई थी वहां प्रेम संग छल नजर आ रहा था ,बीजगुप्त अब आत्मा के अस्थाई मिलन के भाव को समझ यशोधरा की और आकर्षित था ,जबकि श्वेतांक जीवन के प्रेम में  ऊष्मा को अब महसूस करने लगा था। विशाल देव ध्यानस्थ समाधी में अग्रसर था। 
                 श्वेतांक और यशोधरा से प्रेम ,बीजगुप्त के लिए ये जानकारी दिल में ज्वाला उत्त्पन्न कर दिया। वह प्रेम के स्थाई और अस्थाई के विचार में प्लावित होने लगा। चित्रलेखा का अस्थाई प्रेम है ऐसा उसका दिल मानने को तैयार नहीं था। बीजगुप्त का त्याग और श्वेतांक का यशोधरा से मिलन परिस्थिति के कर्ता होने के भाव को पुष्ट करता  हुआ बिलकुल अंतिम परिच्छेद में आ चूका था। सह यात्री के निवेदन पर की प्रकश को बंद कर दिया जाय ,मुझे खुद भी अपने ख़ुशी के लिए दूसरे के कष्ट को अनदेखी करने पर छोभ हुआ। किन्तु मैं अब इस कहानी की पराकाष्ठा पर यु ही नहीं उसे छोड़ना चाहता था अतः बाहर निकल अटेंडेंट के सीट पर निवेदन कर बैठ गया जबकि वो थोड़ा और खिसक कर सो गया। 
स्वेतांक का विवाह अब यशोधरा से हो गया। बीजगुप्त अपनी सारी संपत्ति उसे दान कर दिया। संसार में चित्रलेखा और बीजगुप्त भिखारी बनकर निकल पड़े ,जिसका आधार प्रेम और सिर्फ प्रेम था। 
               एक वर्ष बाद जब स्वामी रत्नाम्बर मिले तो उहोने गृहस्थ स्वेतांक से पूछा -बीजगुप्त और कुमारगिरि दोनों में कौन पापी है और यही प्रश्न विशालदेव से। दोनों के जवाव अलग अलग थे। तो उन्होंने कहा -जो मनुष्य करता है वो स्वभाव के अनुकूल होता है  और स्वभाव प्राकृतिक। मनुष्य अपना स्वामी नहीं परिस्थितियों का दास है -विवश है। कर्ता नहीं है केवल साधन मात्र फिर पाप और पुण्य कैसा। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है पर उसके केंद्र अलग होते है कुछ धन में देखते ,कुछ मदिरा में देखते है कुछ अन्य में किन्तु सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। यही मनुष्य की मनः प्रवृति है उसकी दृष्टिकोण की विषमता। किन्तु सुख हर कोईचाहता है।  उस समय मुझे सुख सोने में नजर आ रहा था और उसके पश्चात सोने चल दिया।
              दिमाग के किसी कोने में प्रस्तावित कोने की तलाश में श्रीमतीजी के दिल में सन्निहित सुख के विषय में सोचने लगा।  यदपि इसमें पहले की असहमति में अपने सुख का कोना भी नजर आया। सार्वभौमिक आत्मा के एकाकार की स्थिति में भी उसको अलग पहचान का कोना चुकी अन्य  सदस्यों की सहमति का रूप ले चूका था अतः उसके प्राप्ति के विभिन्न स्रोतों के विषय में विचार करता हुआ अनचाहे सुख में खो गया। पुनः निकट आने वाले समय के विषय में इस यात्रा के समाप्ति के उपरांत ही सोचने पर बाध्य हो गया। संभवतः परिस्थिति मुझ पर हावी होने लगा था ।     

Monday, 7 April 2014

आंसू

बहते आसुओं कि लड़ी को 
उम्मीदो के धागे से बाँध कर 
मैंने अर्पित कर दिया उसी को 
जिसने ये सोता बनाया। 
न कोई मैल है न शिकायत 
की ये झर्र -झर्र कर बहते है 
शुष्क ह्रदय कि इस दुनिया में 
मुझसे  खुशनसीब कौन है। 
ये गिर कर बिखर न जाए 
बस इतना ही फ़िक्र करता हूँ 
की और कोई मोतियों की लड़ी नहीं 
जो मै तुझको समर्पित कर सकूँ। 
मांगू क्या और तुझसे 
न मिले तो भी रिसती है 
और मिलने के बाद भी 
फिर यूँ  ही बहकती रहती है। 
मैं  जानता हु तू मेरा है ये जताने के लिए  
दर्द बन कर यूँ ही  सताता है 
और तेरी रहमत का क्या कहना 
साथ में आंसू भी दवा बन आ ही जाता है। ।