Sunday 29 September 2013

खो गए सभी


उन्मुक्त गगन 
शीतल पवन
निर्मल जल 
विहंग दल
रेशमी किरण
भौरों का गण
सतरंगी वाण
बूंदों की गान  
ऋतुओ से मेल 
झिंगुड़ का खेल 
टर्र-टर्र का राग
आँगन में प्रयाग 
चन्दन से धुल 
मिल पराग ऑ फूल 
उठता गुबार 
गोधुली में अपार 
कचड़ो का हवन 
सर्द सुबहो में संग 
सकल गाँव का प्यार 
जो पूरा परिवार 
है खो गए सभी 
जब से छूटा वो जमीं। । 
क़दमों के चाल 
संग जीवन के ताल 
उदेश्य विहीन 
नहीं कुछ तर्क अधीन 
पथ पर सतत 
यात्रा में रत 
तन बसे कहीं 
पर मन वहीं 
डूबा प्रगाढ 
मिट्टी संग याद 
ए  काश कही 
हो जाये यही 
घूमे जो काल 
विपरीत कर चाल  
फिर जियूं वहाँ 
याद बसी जहाँ। । 

Saturday 28 September 2013

इज्जत का जनाजा है ...


इज्जत का जनाजा है 
बेशर्म आसुं बहा बहा रहे है,
बहरों की बाराती में
देखों भोपूं पे कई गा रहे है। ।

कौन किससे अर्ज करे
हर हाथों में शिकायत का लिफाफा है,
जिनको बिठाया है गौर करे
रौशन नजर उनका कहीं जाया है। ।

खुशहाली को बयां कैसे न करे
गोदाम अनाजों से नहाया है,
कमबख्त अंतरियों को खुद गलाते  है
अब तक कार्ड नहीं बनाया है। ।

मानणीयोँ को मान देना न भूले
कभी कदम बहक जाते है,
जम्हुरिअत इनसे ही जवां है
वरना कौन इसमें कदम बढ़ाते है। ।

हर कोई खफा है इन झोको से 
ये लौ बहक न जाये कही ,
आशियाने जो बनाये है ख्वावो के 
पल भर में धधक न जाये कही। ।  

Thursday 26 September 2013

सीमा

(चित्र :  गूगल साभार )
काश हम सब आपस  में
एकाकार हो पातें  ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते। । 
कटीली तारों के जगह
अगर गुलिस्ता फूलो का होता
महक बारूद की न घुलती
वहां विरानियाँ न होता।
सरहदों के नाम न  कोई
सभी अनजान ही होते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
क्यों खिंची है ये रेखा
उलझते घिर रहे है हम
कही जाती का बंधन है
कभी सीमाओं पर लड़ते हम।
है धरती माँ अगर अपनी
हम संतान हो पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
कभी था विश्व रूप अपना
न कोई और थी पहचान
मानव बस मानव था 
अब भ्रम फैला है अज्ञान
वो संकीर्ण विचारो को
अगर हम मिटा पातें
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
ये कैसी जकडन है
जो हम खुद को दबाते है
प्रकृति में कहाँ कही बंधन
मानव क्यों सिमटते जाते है
अगर इन बन्धनों से हम 
खुद को दूर कर पाते 
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
अगर ऐसा जो हो पाता 
कभी रणभेरियाँ न बजता 
सरहदों सी मौत की रेखा 
वहां कभी रक्त न बहता 
इन्ही रक्तो से सिच कर धरती 
स्वर्ग सा रूप दे पाते  
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।     

दूरियाँ


किसी तीली की वहां जरुरत नहीं,
दिल जहाँ लोगो के जलते है,
कौन यहाँ आग बुझाये अब,
पानी की जगह नफरत ढोते है। ।

किसी पे अब ऐतबार क्या करे,
अब सब खुद में अनजाने से है,
जिनको समझा था मददगार,
उन्ही हाथों ने आशियाने जलाएं है। ।

प्रेम से नफरते बढ़ रही है अब ,
नफरत से भी प्रेम का जूनून है,
इन्शानियत अब सरेआम चौराहे पर,
इन दोनों के बीच पीसने को मजबूर है। ।

बढती जा रही बंजर जमी में,
जज्बे दलदलों में धंस सी रही ,
दिलों की हरयाली मुरझाई सी,
नागफनी हर जगह है पनप रही। ।

कौन ये बेचता है और खरीदार कौन,
भरे बाजार में इनका मददगार कौन,
सब जान कर भी अनजाने से रहते है,
जिन्दा लाश से हर जगह दीखते है। ।           

Sunday 22 September 2013

चौक -चौराहे

जबसे चौक बाजार बन गए
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता  नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों  का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था। 
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था। 
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया  है ,
चौक  भी नए  रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे 
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब 
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। ।