Saturday, 14 December 2013

अपने-अपने पैमाने

                               हमने अपने-अपने तराजू बना रखे है। पैमाना भी सबका अपना -अपना है। मानव इतिहास को छोड़ अपने देश के  ही इतिहास कि बात करे तो बाकई हम अद्भुत दौर में है। ग्लोबल विश्व कि अवधारणा अब डी -ग्लोबलाइज की तरफ है या नहीं ये तो कहना मेरे लिए जरा  मुश्किल है किन्तु लगता है शासन व्यवस्था का विकेंद्रीकरण में अब ज्यादा समय नहीं है।  अब  कुछ लोगो के  समूह द्वारा  अपने अपने केंद्र में सभी को स्थापित कर अपने-अपने शासन को सुचारु रूप से चलाएंगे ,ऐसा सराहणीय  प्रयास जारी है में है। हर किसी को अधिकार चाहिए। लेकिन कौन किससे  मांग रहा है या कौन किसको देने कि स्थिति में है ये पूरा परिदृश्य साफ़ नहीं हो पा रहा है 
                               जनता को स्वक्छ शासन चाहिए था। सभी ने उनसे अपना वोट माँगा। दिलदार जनता दिल खोल के अपने वोटो का दान भी किया। किन्तु अभी भी कुछ लोगो को संदेह था कि वाकई में कौन ज्यादा स्वक्छ है ,सभी के अपने-अपने पैमाने जो है। दुर्भागयवश वोटो के दान दिए हुए जनता को अब अपने लिए सरकार कि मांग करनी पर रही है। सभी दिलदार हो गए सभी देने के लिए तैयार किन्तु शासन अपने हाथ में लेने को तैयार नहीं। वाकई भारतीय राजनीति का स्वर्ण युग। जनता कि सेवा के लिए सभी भावो से निर्लिप्त बुध्त्व कि ओर अग्रसर। अब देखना बाकी है कि मिल बाट  कर सेवा कर जनता को कुछ देते है या पुनः उनसे मांगने निकल पड़ते। 
                                  अभी तक अल्पसंख्यको से तो बस धर्म या जाती विशेष में ही बटें लोगो कि जानकारी थी। किन्तु अब एक नया वर्ग उभर कर आ गया। बस साथ -साथ रहने कि ही बातें तो कर रहे ?पता नहीं ये अनुच्छेद ३७७ क्या कहता है। सरकार के  मुखिया का दिल भी  द्रवित हुआ जा रहा है आखिर दकियानुसी लोगो के पैमाने पर इन्हे क्यों तौले । पता नहीं कानून बंनाने वाले इस धारणा  पर कैसे पहुचे होंगे कि ऐसे वर्ग अपनी पैठ बनाएगा जो इतने सालो पहले ही इसे अपराध घोषित कर दिया। प्रेम हर धारणा  को तोड़ सकता है ऐसी धारणा  क्यों नहीं कायम कर पाये। अवश्य पैमाने कि गडबडी है।ऐसे समय में जब मानव समुदाय में प्रेम बढ़ाने  की जरुरत है लोग प्रेम करने वाले को दूर करने में लगे है। 
                                   शायद लगभग  ३२  प्रतिशत से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय माप-दंड के अनुसार गरीबी देश में छाई है ,अपने राष्ट्रीय पैमाने पर ये आंकड़ा लगभग २९.८ प्रतिशत अपने खुद के बनाये रेखा से निचे है। इनका भी अपना वर्ग विशेष समूह है। इनको समय -समय पर सम्बोधित भी किया जाता है। कई बार रेखा को बढ़ाया जाता है तो कई बार उसे घटाया जाता है। आखिर सरकार भी क्या करे जब भी गरीबो क कम दिखने का प्रयास करती है ,गरीबो से प्यार करने वाले दल उनका आकड़ा कम नहीं होने देते। आखिर उनका भी अपना पैमाना है। 
                                ऐसे भी अब विशेष कोई समस्या इस देश में है नहीं। हर जगह उनको दूर करने का प्रयास हो ही रहा है ,किन्तु मिडिया मानने  को तैयार नहीं है और वो भी अपने बनाये पैमाने में उसे उछालते रहती है। आखिर उनका भी कोई वर्ग विशेष है। उनके भी अधिकार है।जनता जो सोई है आखिर उसे जगायेगा कौन ? 
                              फेहरिस्त लम्बी है आप भी अपने पैमाने पर उसे जांच ले  ताकी अपने अधिकार नाप सके। 

Wednesday, 11 December 2013

हर्षित पद रचाऊंगा

जिन छंदो में पीड़ा झलके,
शोक जनित भावार्थ ही छलके
वैसे युग्म समूहो में
मैं शब्दो को न ढालूँगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

सुख-दुःख का मिश्रण जब जीवन
यह यथार्थ नहीं कोई कोई भ्रम
तब क्यों आखर को व्यर्थ कर
बुधत्व भाव बनाऊंगा
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

समर भूमि के इस प्रांगण में 
कर्म डोर थामे बस मन में 
गीता भाव सदा बस गूंजे 
क्यों अर्जुन क्लेश जगाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

छल ,फरेब ,धोखा की  बाते 
ठोखर खाकर छूटती सांथे 
मेरे पंक्ति में न छाये 
बस हाथ मदद में उठते को सजाऊंगा  
त्रस्त भाव को अनुभव कर भी
हर्षित पद रचाऊंगा । ।

Sunday, 8 December 2013

"आप" की जीत


                               शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली  होती  है। तात्कालिक परिणाम भविष्य  के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक  है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद  करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती  है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें  फर्क करना मुश्किल  होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन।  किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास  में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण  से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की  प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें  नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये  विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के  विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में  इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे  आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है।  किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत  उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।  

Saturday, 7 December 2013

भ्रम



कितने विश्वास .... 
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना 
अधिकार कर लिया। 
और देखो वो बैठ कर 
मुस्कुराता है..... 
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर 
कभी-कभी........ 
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है, 
कि हमने क्या बनाया था 
आज ये क्या बन गए है। 
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से, 
अब तक जाने जाते है। 
पर ये इंसान  जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में 
खुद को बांटते चले जाते है। 
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब। 
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने  सींचे  है इतने रंग
वो सोचता हरदम  
कब फिसली मेरी कूची 
कि ये हो गया बदरंग। ।

Wednesday, 4 December 2013

तिनके का जोश


वक्त की आंधी उठती देख 
तिनको में था जोश भड़ा ,
अबकी हम न चूकेंगे 
है छूना आकाश जरा। 
दबे-दबे इन वियावान 
कब तक ऐसे रहे पड़े ,
चूस गए जो रस धरा का 
देखे कैसे अब  वो इसे सहे।  
हलके -हलके झोंकों ने 
जब भी हमको पुचकारा ,
ऊँचे दीवारो से टकराकर 
पाया खुद को वहीँ पड़ा।  
है सबका एक दिन यहाँ 
ऐसा हम तो सुनते है ,
पाश ह्रदय के नयन में हमको 
आज अश्रु से दिखते है। 
ओह देखो अब आन पड़ा है 
है बिलकुल ही पास खड़ा ,
इन झंझावात के वायुयान से 
देखूं अब  नया आसमान जरा। ।