Sunday 8 December 2013

"आप" की जीत


                               शंका और सवाल हर वक्त कायम रहते है। बदलाव कि प्रक्रिया काफी बैचैन करने वाली  होती  है। तात्कालिक परिणाम भविष्य  के अपेक्षित चाह को कितना भरोसा देती है इसके लिए धौर्य आवश्यक  है। गुणात्मक बदलाव कि अपेक्षा, हमेशा औरों से उम्मीद  करने की प्रवृति शायद अपेक्षित परिणाम से रोक देती  है। व्यबस्था के सर्वांगीण विकास में व्यक्तिगत निष्ठा और संगठन के विचार,इसमें  फर्क करना मुश्किल  होता है।समझते-समझते हो गई क्षति को भरना उससे भी कठिन।  किसी आभा के तहत कई बार सूक्ष्म छिद्रो पर नजर नहीं जाता। अपेक्षा का स्तर और चाह संगठन के शैशव कालीन निर्माण के बाद के विकास  में समय के साथ कुरूपता भर देता है। इसके उदाहरण  से हमारा लोकतंत्र समृद्ध है। चाहे वो जन संघ का निर्माण हो या जयप्रकाश कि क्रांति हो या लोहिया का आदर्श सभी यौवन काल तक पहुचते-पहुचते चारित्रिक विकारो से ग्रस्त हो गए। आश्चर्यजनक रूप से विचारो की  प्रषंगिकता का हर चुनाव के पूर्व तथाकथित अनुयाइयों द्वारा जाप किया जाता है किन्तु उसके बाद उसका उन विचारो को व्यवहारिकता के नाम पर कैसे धूल कि तरह झाड़ा जाता है ये कोई विशेष ज्ञान बातें  नहीं है । हम भी शायद व्यवहारिकता पे ज्यादा भरोसा करते, नहीं तो ये  विचार सिर्फ तथाकथित बौद्धिक जनो के  विचार का मुद्दा न रहकर जड़ तक इसका अनुपालन हो, इससे बेखबर हो जाते। अपेक्षित चाल -चलन और विचारो का बदलाव जो कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव में  इस बार देखने को मिला है इसका वास्तविक रूपांतरण अगर व्यवस्था संचालन में आगे  आने वाले समय में होगा तो बेहतर प्रजातंत्र से इंकार नहीं किया जा सकता है। और लकीर पकड़ कर चलने में माहिर राजनेता इन आदर्शो को चुनाव जितने में सहयोग के तौर पर देखते हुए बेशक मज़बूरी में चले तो भी स्वागत योग्य है।  किन्तु हर बार कि तरह इसमें योगदान देने वाले जनता अपने लिए व्यक्तिगत  उपदान की अपेक्षा अगर रखने लगे तो सिर्फ इसबार "आप" बधाई कि पात्र होंगे तथा इतिहास बनाते-बनाते कही ऐतिहासिक में न तब्दील हो जाए ये देखना बाकी है। फिर भी अंत में बदलाव स्वागत योग्य है और शंकालू प्रवृति से ही सही किन्तु उम्मीद कि रौशनी तो फूटी है।  

Saturday 7 December 2013

भ्रम



कितने विश्वास .... 
अति विश्वास ? के भवर में ,
डूबते और निकलते है ,
कि तैर कर बस हमने पार कर लिया ,
इस प्रकृति पे अपना 
अधिकार कर लिया। 
और देखो वो बैठ कर 
मुस्कुराता है..... 
कहकहा शायद नहीं ,
क्योंकि अपनी रचना पर 
कभी-कभी........ 
हाँ कभी-कभी शायद पछताता है, 
कि हमने क्या बनाया था 
आज ये क्या बन गए है। 
जितने भी आकृति उकेडी है ,
सब एक ही नाम से, 
अब तक जाने जाते है। 
पर ये इंसान  जाने क्यों ?
सिर्फ हिन्दू-मुसलमां ही कहाँ ,
न जाने कितने सम्प्रदायों में 
खुद को बांटते चले जाते है। 
भ्रम के जाल में ,
उलझे दोनों परे है अब। 
रचना खुद को रचनाकार समझ बैठा ,
और जिसने  सींचे  है इतने रंग
वो सोचता हरदम  
कब फिसली मेरी कूची 
कि ये हो गया बदरंग। ।

Wednesday 4 December 2013

तिनके का जोश


वक्त की आंधी उठती देख 
तिनको में था जोश भड़ा ,
अबकी हम न चूकेंगे 
है छूना आकाश जरा। 
दबे-दबे इन वियावान 
कब तक ऐसे रहे पड़े ,
चूस गए जो रस धरा का 
देखे कैसे अब  वो इसे सहे।  
हलके -हलके झोंकों ने 
जब भी हमको पुचकारा ,
ऊँचे दीवारो से टकराकर 
पाया खुद को वहीँ पड़ा।  
है सबका एक दिन यहाँ 
ऐसा हम तो सुनते है ,
पाश ह्रदय के नयन में हमको 
आज अश्रु से दिखते है। 
ओह देखो अब आन पड़ा है 
है बिलकुल ही पास खड़ा ,
इन झंझावात के वायुयान से 
देखूं अब  नया आसमान जरा। । 

Thursday 28 November 2013

कुछ पंक्तियाँ यूँ ही ......

सुख से ख़ुशी है या ख़ुशी से सुख
इस जीवन में किसकी हो भूख  । 

आधार एक दूजे से ऐसे है मिलते
रेत पे लकीर जैसे बनते - मिटते।

खुशियां जीवित मन का उमंग
सुख बनते वस्तु निर्जीव के संग। 

कदम-दर-कदम दोनों की  आस
उठती है मन में दोनों कि प्यास। 

इस मरीचिका को कैसे है समझे 
मन कि तरंग यतवत भटके। । 

Thursday 31 October 2013

द्वन्द

नजर अधखुली सी 
ख्वाव अधूरे से 
आसमान कि गहराई पे पर्दा 
बादल झुके झुके से। 
अविरल धार समुद्र उन्मुख 
पूर्ण को जाने कैसे भरता। 
एहसास सुख का या 
सुख क्या? एहसास कि कोशिश।  
हर वक्त एक द्वन्द 
किसी और से नहीं 
खुद से खुद का तकरार। 
नियत काल कि गति 
फिर क्यों नहीं कदम का तालमेल। 
जो है उसे थामे,सहेज ले 
या कुछ बचा ले जगह 
जो न मिला उसकी खोज में। 
हर रोज जारी है 
अधूरे को भरने कि  
और भरे हुए को हटाकर 
नए जगह बनाने का द्वन्द । ।