Thursday, 26 September 2013

सीमा

(चित्र :  गूगल साभार )
काश हम सब आपस  में
एकाकार हो पातें  ,
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो जाते। । 
कटीली तारों के जगह
अगर गुलिस्ता फूलो का होता
महक बारूद की न घुलती
वहां विरानियाँ न होता।
सरहदों के नाम न  कोई
सभी अनजान ही होते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
क्यों खिंची है ये रेखा
उलझते घिर रहे है हम
कही जाती का बंधन है
कभी सीमाओं पर लड़ते हम।
है धरती माँ अगर अपनी
हम संतान हो पाते
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
कभी था विश्व रूप अपना
न कोई और थी पहचान
मानव बस मानव था 
अब भ्रम फैला है अज्ञान
वो संकीर्ण विचारो को
अगर हम मिटा पातें
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
ये कैसी जकडन है
जो हम खुद को दबाते है
प्रकृति में कहाँ कही बंधन
मानव क्यों सिमटते जाते है
अगर इन बन्धनों से हम 
खुद को दूर कर पाते 
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।
अगर ऐसा जो हो पाता 
कभी रणभेरियाँ न बजता 
सरहदों सी मौत की रेखा 
वहां कभी रक्त न बहता 
इन्ही रक्तो से सिच कर धरती 
स्वर्ग सा रूप दे पाते  
मानव अगर सीमाओं से
आजाद हो पाते। ।     

दूरियाँ


किसी तीली की वहां जरुरत नहीं,
दिल जहाँ लोगो के जलते है,
कौन यहाँ आग बुझाये अब,
पानी की जगह नफरत ढोते है। ।

किसी पे अब ऐतबार क्या करे,
अब सब खुद में अनजाने से है,
जिनको समझा था मददगार,
उन्ही हाथों ने आशियाने जलाएं है। ।

प्रेम से नफरते बढ़ रही है अब ,
नफरत से भी प्रेम का जूनून है,
इन्शानियत अब सरेआम चौराहे पर,
इन दोनों के बीच पीसने को मजबूर है। ।

बढती जा रही बंजर जमी में,
जज्बे दलदलों में धंस सी रही ,
दिलों की हरयाली मुरझाई सी,
नागफनी हर जगह है पनप रही। ।

कौन ये बेचता है और खरीदार कौन,
भरे बाजार में इनका मददगार कौन,
सब जान कर भी अनजाने से रहते है,
जिन्दा लाश से हर जगह दीखते है। ।           

Sunday, 22 September 2013

चौक -चौराहे

जबसे चौक बाजार बन गए
दिल बेजार से हो गए,
अब मिलता  नहीं कोई मुझे
लोग उधार से हो गए।
कभी इस जगह पे
जमघटों  का दौर था ,
गाँवों के ख़ुशी और गम का
वो रेडियो बेजोड़ था। 
एक कप चाय का प्याला ही नहीं
दिन भर की उर्जा उसमे ओत-प्रोत था,
और जो शाम को थक कर लौटा तो
थकान मिटा दे ऐसे गर्म धारा का स्रोत था। 
अब हम मिलते है वहां
बस एक खरीदार की तरह ,
बातों के भाव भी बदल गए है
बाजार की तरह।
विकास जबसे गाँव में छाया  है ,
चौक  भी नए  रूप में आया है ,
सुख-दुःख का मोल करे 
ऐसे नोट कब कहाँ मिलते है ,
इसलिए चौक -चौराहे पर अब 
आम-जन नहीं बस खरीदार दीखते है। । 
            

Saturday, 21 September 2013

मेरे उद्दगार


मै कोई पथ प्रदर्शक
 या तारणहार नहीं ,
उठती लहरों को मैं बांधू 
ऐसा खेवनहार नहीं। 
मेरे बातों में न कोई
 भविष्य की पुकार सुने ,
मेरे उद्दगारों में अपने 
सपनों के अल्फाज चुने। 
मै तो हूँ बस पथिक राह का 
कदम बढ़ता चलता हूँ ,
कंटक मार्ग या पुष्प शुषोभित 
कर्म निभाता बढ़ता हूँ।  
धरा धुल सा बेशक हूँ  पर
इतना भी कमजोर नहीं ,
ठोकर खा मै सर चढ़ जाऊ
 इन जोशो में नहीं कमी ,
अंगारे  जब राह में पाया 
दिल बेशक कुछ शुष्क हुआ 
हिमवान सा धीरज धर मन 
डगर शीतल अनुकूल किया।
मैं चाहूँ जिस राह से गुजरू 
वहां न ही कोई शूल रहे 
आने वाले पथिक न अटके 
और पीड़ा से दूर रहे। 
 हो सकती है भूल ये संभव 
   राह अगर मै  भटक गया , 
मुमकिन है दिग्भ्रमित होकर 
कही बीच डगर में अटक गया। 
कोशिश होगी अपनी दृष्टि 
खुद अपने में लीन करू ,
सत्य पुंज जो राह दिखा दे 
खुद को यूँ तल्लीन करूँ। 

Thursday, 19 September 2013

बिंब

ऊपर खुला आसमान
निचे अनगिनत निगाहें
निगाहों जुडी हुई
अनगिनत तंत्र सी रेखाएं,
मन में प्रतिबिंब का क्या है मायना 
जिससे जुड़ी है सभी निगाहों का कोरा आयना।
क्या बिंब सभी की आँखों में
बस एक सा उभरता है
क्या देखते है हम ,
क्या देखना चाहते है
फर्क दोनों में पता नहीं ,
ये तंत्र कैसे कर पाते है?
बादलो से छिटकती किरणे
देव के मस्तष्क की आभा
किसी में  उभर आता है,
कोई घनी केसुओ को लहराते हुए
देख कर मचल जाता है।
चाँद में किसी को दाग नजर आता है ,
कोई सुन्दरता का पैमाना उसे गढ़ जाता है।
अनगिनत टिमटिमाते तारों की लड़ी
सर्द हाथों में गरमाहट की उमंग है ,
किसी को व्याकुल पौष में शोक का तरंग है।
पथ्थर को देव मान कोई पूजता है ,
कोई उसी से रक्त चूसता  है।
तंत्र की संरचना में कोई फर्क नहीं ,
तत्व हर एक में बस है एक सा ही,
फिर ये दोष कहाँ से उभर आता है,
है आखिर क्या जो बिंब के भावों को गढ़ पाता है ?
एक ही बिंब को हर दृष्टि में बदल जाता है ?