कुछ शेष रह जाते यहाँ
यादो की परछाई में
कुछ के निशां भी नहीं होते
बह जाते है वक्त की पुरवाई में।
किसकी किस्मत क्या है
ये तो बस बहाना है,
गुजरे कर्मो को इस लिबास से
ढकने का रिवाज पुराना है।
खुद में रहकर ही ,
खुद के लिए जो गुजर जाते है ,
उन मजारो पर देखो जाकर
वहाँ घास-फूसों का आशियाना है।
अपने आप को छोड़कर जो
औरों के लिए दर्द लेते है
अपनी पलकों के नींद किसी और को देते है
जिनका हाथ किसी गैर का सहारा है
कंधो पे भार खुद का नहीं
अरमानों का बोझ कई का संभाला है
जो आवाज है कई
हकलाती जुवानों का
जिनके कानों में गूंजती है टीस
किसी के कराहने का।
उनके अस्तित्व ढूंढे नहीं जाते
वो सोते है गहरी नींद में
और लोग रोज उन्हें जगाने वहाँ आते
झुके हाथों से नमन उन्हें करते है
तुम हो साथ मेरे बस ऐसा कहते है। ।
इन बातों को शब्दों में गढ़ना कितना आसान है ,
लगता नहीं कोई इससे अंजान है ,
हम उनसे अलग नहीं कोई
किन्तु सोच शायद, कभी कर्म में बदल जायेगे
कोई अस्तित्व हम भी गढ़ जायेंगे। ।